इंटरसेक्शनलजेंडर ‘सेटेल हो जाओ’ कहकर लैंगिक हिंसा और भेदभाव का बीज बोता हमारा समाज | नारीवादी चश्मा

‘सेटेल हो जाओ’ कहकर लैंगिक हिंसा और भेदभाव का बीज बोता हमारा समाज | नारीवादी चश्मा

हमें बचपन से ही सेटेल होने की सीख दी जाती है। अक्सर माता-पिता की इच्छा में ये ज़रूर होता है कि ‘बच्चे बस सेटेल हो जाए।‘

जब भी किसी काम की शुरुआत करते है तो विकास के मानक में उसे हमेशा बढ़ते क्रम देखना चाहते है। क्योंकि समाज में बढ़ते हुए क्रम को अधिकतर विकास की नज़र से सकारात्मक माना जाता है, फिर बात चाहे देश के संदर्भ में हो या फिर व्यक्तिगत स्तर पर। इसी तरह जैसे हम स्कूल के बाद कॉलेज और कॉलेज के बाद अच्छी नौकरी या आर्थिक स्वावलंबन का सपना देखते है, जो बेहद सामान्य और सहज भी है। हमें बचपन से ही सेटेल होने की सीख दी जाती है। अक्सर माता-पिता की इच्छा में ये ज़रूर होता है कि ‘बच्चे बस सेटेल हो जाए।‘ आइए आज की बात थोड़ा इसी ‘सेटेल होने के’ मुद्दे पर करते है।

‘सेटेल’ एक अंग्रेज़ी शब्द है जिसका हिंदी में शाब्दिक अर्थ है `बसना या ठहरना।‘ जब कोई इंसान सही समय पर पढ़ाई पूरी करके और सही नौकरी या पैसा कमाने और सही से परिवार बसा लेता है तो उसे हमारे समाज में सेटेल कहते है। ग़ौरतलब है कि इस हर ‘सही’ के लिए मानक हम या आप नहीं बल्कि हमारे समाज ने तय किए है, जो सदियों से चले, चलाए और निभाए जा रहे है। ज़ाहिर है जब समाज ने इस सेटेल को तैयार किया है तो इसकी हर बुनियाद में समाज की पितृसत्तात्मक सोच भी मज़बूती से काम करती है। इसका एक अच्छा उदाहरण है – जेंडर रोल। यानी कि हमारे सामाजिक लिंग के अनुसार निर्धारित की हुई भूमिका, जिसके हिसाब से हमें अपनी ज़िंदगी का गणित चलाना होता है। सेटेल की परिभाषा में पुरुषों के सेटेल होने के बहुत तय मानक है – लड़के को पढ़ना है और पैसे कमाने के लिए तैयार होना है, जिससे वो अपना परिवार चला सके। वहीं लड़की को घर के काम अच्छे से सीखने है वो शादी करके परिवार बसाना और चलाना है।

आपको मेरी ये बात पुरानी लग सकती है और हो सकता है आप ये भी कह दें कि ‘अरे! अब कहाँ ये सब होता है, अब तो सब बदल गया है।‘ बेशक समय तो बदला है, ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ की मुहिम भी तेज हुई है। हर क्षेत्र में महिलाओं का प्रतिनिधित्व भी बढ़ा है। लेकिन इन सबके बावजूद आज भी जब हम अपने देश की बड़ी संख्या वाले मध्यमवर्गीय परिवार में महिला स्थिति को देखते है तो यही पाते है कि महिलाओं के काम, उनकी नौकरी या पैसे कमाने को सेटेल होना नहीं माना जाता है। अभी भी लड़कियों के सेटेल होने की परिभाषा उनकी शादी और परिवार संभालने की उनकी भूमिका तक में अटकी है।  

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सेटेल होने की परिभाषा ने पूरी एक पीढ़ी ही क्या आने वाली कई पीढ़ियों को बुरी तरीक़े से प्रभावित किया। एक तरफ़ तो सेटेल होने की होड़ ने इंसानों को मशीन बनने पर मजबूर किया वहीं दूसरी तरफ़ महिलाओं के साथ होने वाली अलग-अलग हिंसा को भी बढ़ावा दिया है।

अक्सर अपनी महिला सहकर्मियों के अनुभवों में इसबात का ज़िक्र होता है कि – ‘हमारे परिवार वालों के लिए मेरी कमाई कोई मायने नहीं रखती है।‘ या ‘मेरे आर्थिक रूप से स्वावलंबन को हमारे परिवार वाले सेटेल होना नहीं मानते है।‘ यही सोच है कि मध्यमवर्गीय परिवार के लिए कामकाजी होना दोहरी चुनौती हो जाती है। पहली ये कि वो घर के साथ-साथ बाहर का भी काम करें और दूसरा ये कि उन्हें काम या उनकी कमाई को घर में कोई अहमियत नहीं दी जाती है। अपने परिवार की ऐसी बातें सीधेतौर पर महिलाओं के मनोबल को प्रभावित करती है, जिसके चलते अक्सर हम अपने आसपास शादी के बाद महिला के नौकरी छोड़ने की खबरें सुनते है। वही दूसरी ओर, जिस तरह महिला के ऊपर समाज के बताए सेटेल होने की परिभाषा में फ़िट होने का दबाव होता है, ठीक उसी तरह का दबाव पुरुषों के ऊपर भी बराबर बना रहता है। अगर कोई पुरुष घर अच्छे संभालता हो या फिर अपनी महिला साथी से कम कमाता होतो तो उसे हर पायदान पर अपने परिवार और समाज से मर्दानगी के हवाले से ताने सुनने को मिलते है। इतना ही नहीं उसकी पौरुषता पर सवाल खड़े होने लगते है।

चूँकि हमारे मध्यमवर्गीय परिवारों में महिलाओं के कामकाजी होने को तो स्वीकार कर लिया गया है, लेकिन अभी भी उसकी मान्यता बस शौक़िया ही है। व्यवहार और विचार में अभी भी इसे लागू नहीं किया जा सका है। यही वजह है कि आज जब एक तरफ़ कामकाजी महिलाओं पर उनकी कमाई को बिना सेटेल या कोई अहमियत न मिलने का दबाव है। ठीक उसी समय पुरुषों पर अपनी महिला साथी से अधिक कमाने और परिवार के पूरे खर्च को खुद अपने कंधे पर उठाने का दबाव है। और यही वो दबाव है जिसका हिंसक रूप है – घरेलू हिंसा।

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इस सेटेल होने की परिभाषा ने पूरी एक पीढ़ी ही क्या आने वाली कई पीढ़ियों को बुरी तरीक़े से प्रभावित किया। एक तरफ़ तो सेटेल होने की होड़ ने इंसानों को मशीन बनने पर मजबूर किया वहीं दूसरी तरफ़ महिलाओं के साथ होने वाली अलग-अलग हिंसा को भी बढ़ावा दिया है। बिहार के मेरे एक दोस्त ने अपनी बहन की शादी को लेकर अपना अनुभव साझा करते हुए बताया कि – उसके परिवार ने बिना किसी भेदभाव के बेटा-बेटी दोनों को ख़ूब पढ़ाया और आर्थिक रूप से स्वावलंबन की दिशा में बढ़ावा दिया। उसकी बहन की प्राइवेट कम्पनी में अच्छी नौकरी भी लग गयी। लेकिन चूँकि लैंगिक भेदभाव को शिक्षा में दूर कर पाया पर सेटेल की परिभाषा पर अटक गया इसलिए अब उसकी शादी एक बड़ी समस्या बन गयी। उसने बताया कि अब परिवार की चिंता ये है कि इतनी पढ़ी-लिखी और अच्छे पैसे कमाने वाली लड़की की शादी के लिए लड़का भी उसी हिसाब का खोजना होगा और जिसके लिए उन्हें ख़ूब सारा दहेज देना पड़ेगा और परिवार ने शादी की सेविंग की बजाय बेटी की पढ़ाई पर ज़ोर दिया, इसलिए शादी करना एक समस्या बन गयी।

ये लड़कियों को ख़ूब पढ़ाने, फिर आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनाने के बाद ख़ुद को समाज के सेटेल करने-करवाने की परिभाषा में फ़िट बैठाना का ऐसा दबाव है जो न केवल एक परिवार बल्कि पूरी एक पीढ़ी को कंफ्यूजन में डाल रहा है। अब लोग कनफ़्यूज हो रहे है कि वो पुरानी सोच से आगे आकर लड़कियों को आर्थिक स्वावलंबन की तरफ़ तो बढ़ा रहे है, पर अभी भी उसके आर्थिक स्वावलंबन को लड़की के सेटेल होना नहीं स्वीकार पाए है और न ही हमारा समाज इसे स्वीकारने के मूड में लग रहा है। वे ये नहीं स्वीकार पाए है कि अच्छी पढ़ाई-लिखाई के बाद नौकरी करने वाली या अच्छे पैसे कमाने वाली लड़की अपने लिए अपना जीवनसाथी चुन सकती है और अपनी ज़िंदगी के सेटेल होने के रंग ख़ुद चुन सकती है। कुल मिलाकर कहने का मतलब है कि ‘सेटेल होने के दबाव को जेंडर रोल के नज़रिए से देखना छोड़कर इंसान के अपने फ़ैसले पर छोड़ दीजिए।‘ वरना लैंगिक हिंसा और भेदभाव का ये वार कभी ख़त्म नहीं होगा और समाज में लैंगिक हिंसा और भेदभाव के बीज बोते जाते रहेंगें।

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तस्वीर साभार : scroll.in

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