पुरखों से चले आ रहे विवाद, हिंसा, अत्याचार, शोषण आदि का कानून के आधार पर हल होने की राह देखते लोगों के लिए अदालत ही एक आस होती है। हर तरह के अन्याय को मिटाने के लिए आम नागिरक चाहे वह किसी भी जाति, धर्म और लिंग का हो अदालत ही उसकी सबसे मज़बूत उम्मीद होती है। महिलाएं जो हमारी सामाजिक व्यवस्था में एक अदद इंसान होने के लिए भी पूरे जीवनभर जद्दोजहद करती रहती हैं, उनके लिए भी अदालत के फैसलें उनकी नागरिकता को स्थापित करने का काम करते हैं। लेकिन कई दफा हमारे न्यायालय और न्यायधीश अपने फैसलों और बयानों में उसी पित्तृस्तात्मक सोच को जाहिर करते हैं, जिस अन्याय से न्याय पाने के लिए महिलाएं अदालतों का रुख करती हैं।
महिलाओं की शादी, रिलेशनशिप और उनके साथ हुए अपराध को लेकर अदालतों के फैसले कई बार चौंकाने वाले होते हैं। कई बार अदालतों में फैसला सुनाने वाले जज कानून से परे अपने पूर्वाग्रहों पर आधारित फैसला सुना देते हैं, जिनमें पितृसत्तात्मक सोच की छाप होती है। बात जब महिला की यौन आज़ादी की आती है तो क्या हमारी अदालतें और क्या ही हमारे घर। केवल जगह बदल जाती है लेकिन बातों का सार एक जैसा ही होता है। “एक सर्वाइवर यौन हिंसा के बाद भी सामान्य दिख रही थी, महिला की मर्ज़ी सामाजिक ताना-बाना बिगाड़ रही है, राखी बांधकर समझौता कर लो, सरकारी अधिकारी है शादी कर लो” जैसी बातें अदालतों में सुनने को मिली हैं। हाल ही में इलाहबाद हाईकोर्ट ने लिव-इन रिलेशनशिप में रह रही पहले से ही शादीशुदा महिला को संरक्षण देने से मना कर दिया। एनडीटीवी की रिपोर्ट के मुताबिक कोर्ट ने न केवल याजिका खारिज की बल्कि याचिकाकर्ता पर पांच हज़ार रूपये का जुर्माना भी लगा दिया। जस्टिस कौशल जयेंद्र ठाकर और जस्टिस दिनेश पाठक की खंडपीठ ने याचिका खारिज करते हुए कहा है कि “क्या हम ऐसे लोगों को संरक्षण देने का आदेश दे सकते हैं जिन्होंने हिंदू विवाह अधिनियम का उल्लंघन किया हो। संविधान का अनुच्छेद 21 सभी नागरिको को स्वतंत्रता से जीने का अधिकार देता है लेकिन यह स्वतंत्रता कानून के दायरे में होनी चाहिए तभी उनपर लागू होती है।”
और पढ़ें : तरुण तेजपाल केस : ‘विक्टिम ब्लेमिंग’ की सोच को मज़बूत करता एक फैसला
न्यायालय के फैसले और पितृसत्ता
गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ की रहने वाली गीता ने इलाहबाद हाईकोर्ट में एक याचिका दाखिल की। याचिका में उसने अपने पति और ससुराल वालों से सुरक्षा की मांग की। वह अपनी मर्ज़ी से अपने पति को छोड़कर एक दूसरे व्यक्ति के साथ लिव-इन रिलेशन में रह रही हैं। महिला का कहना है कि उनका पति और परिवार के लोग उसके शांतिपूर्ण जीवन में हस्तक्षेप कर रहे हैं। अदालत ने इस मामले में जो फैसला सुनाया है वह हैरान करने वाला है। यह फैसला कहीं न कहीं अपनी मर्ज़ी से रहने वाली महिलाओं की आज़ादी कम करने की जैसी सोच से ग्रसित है। यह संभवतः पहली बार नहीं है जब भारतीय अदालतों से इस तरह की बातें सामने आई हो। अभी कुछ दिनों पहले ही चर्चित तरुण तेजपाल केस में पीड़िता के आचरण पर सवाल उठाते हुए कहा गया था कि उनके बर्ताव में ऐसा कुछ नहीं दिखा जिससे लगे की वह यौन शोषण की पीड़िता हैं। पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट ने भी लिव-इन रिलेशनशिप में रह रहे एक जोड़े को सुरक्षा देने से मना कर दिया था। हाईकोर्ट ने कहा था कि अगर जोड़े को संरक्षण दिया गया तो यह सामाजिक ताने-बाने पर गलत असर पड़ेगा। इस तरह की बातें भारत की न्याय व्यवस्था में निहित रूढ़िवाद को दिखाती है।
भारत के समाज में जब एक महिला स्वंय की पसंद से जीना चुनती है या फिर अपने साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ लड़ाई लड़ती है तो सबसे पहले वह अपने आसपास के माहौल और परिवार से एक जंग लड़ती है। ऐसे में संविधान के संरक्षण हेतु काम करने वाले न्यायलाय ही उसके लिए एकमात्र विकल्प होते हैं जो उसके अधिकार को स्थापित करने का काम करते हैं। वहीं, हमारी न्याय व्यवस्था में न्यायधीश कई बार परंपरावादी, रूढ़िवाद, पित्तृसत्तात्मक सोच के तहत ऐसे फैसले देते हैं जो हाशिये पर मौजूद लोगों की उम्मीद को खत्म कर देते हैं। 1970 के दशक का मथुरा केस भारतीय अदालत का एक चर्चित मामला है जिसमें उसके फैसले में रूढ़िवादी सोच और पूर्वाग्रह दिखते हैं। यह केस भारत की अदालतों की विफलता के उदारहण के रूप में माना जाता है। इस केस में दो पुलिस वालों को बलात्कार के मामले से ‘चोट के निशान न होने के कारण’ और ‘सेक्स करने की आदत’ जैसी बातों के आधार पर रिहा कर दिया था। फैसले के बाद में काफी आलोचना हुई थी, और चार कानून के प्रोफेसरों ने सुप्रीम कोर्ट को पत्र लिखकर फैसले में सहमति की अवधारणा पर सवाल उठाए। इस फैसले के बाद से भारत में महिला अधिकार आंदोलनों का एक टर्निंग प्वाइंट बताया जाता है। श्री राकेश बी बनाम कर्नाटक सरकार (कर्नाटक हाईकोर्ट) के मामले में जस्टिस दीक्षित ने अग्रिम जमानत देते हुए आरोपी के पक्ष में आदेश सुनाते हुए कहा था कि शिकायतकर्ता ने यह उल्लेख नहीं किया है कि वह रात को दफ्तर क्यों गई थी। शिकायतकर्ता के स्पष्टीकरण में उन्होंने कहा है कि वह अपराध के बाद थककर सो गई थी, यह भारतीय महिलाओं के लिए अशोभनीय है। इस तरह का व्यवहार भारत की महिलाओं को शोभा नहीं देता है। जस्टिस दीक्षित का यह बयान उनकी पितृसत्तात्मक पूर्वाग्रह निहित सोच का परिणाम है जिसमें महिला को कैसा व्यवहार करना है, कैसे बोलना है, कैसे दिखना है।
और पढ़ें : लिव-इन रिलेशनशिप : समाज से लेकर अदालतें भी रूढ़िवादी सोच से पीड़ित हैं
न्यायिक रूढ़िवाद कैसे है एक बाधा
न्यायिक रूढ़िवाद न्याय के प्रारूप में एक बाधा के रूप में काम करता है। ऐसे फैसले न्यायधीश के सामाजिक विशेषाधिकार की सोच से ग्रसित होते हैं जो न्याय क्षेत्र के लिए हानिकारक हैं। लगातार अदालतों के द्वारा न्यायिक प्रक्रिया में इस तरह की संकीर्णता का इस्तेमाल भारतीय कानूनी प्रणाली की जवाबदेही पर भी सवाल उठाता है। न्याय व्यवस्था का काम देश की कुरीतियों को दूर कर एक समावेशी समाज को स्थापित करना है लेकिन हमारे देश की न्याय व्यवस्था में आये दिन इस तरह के आदेश जारी होते हैं जो सामाजिक भेद को बढ़ावा देते हैं। समाज में महिलाओं के साथ बहुत ही भेदभावपूर्ण व्यवहार होता है। उस भेदभाव को दूर करने का एक विकल्प देश की न्याय व्यवस्था दिखती है। लगातार अदालतों से आते इस तरह के फैसले सामाजिक रूढ़िवादी सोच को और जटिल बनाते हैं। भारतीय न्याय प्रणाली में लगातार अनेक सुधार होने के बावजूद भी महिलाओं के न्याय के प्रति एक अलग ही सोच देखने को मिलती है। बलात्कार में पीड़ित पक्ष को ही कमज़ोर करने वाले कानूनों को खत्म करने के लिए कई महत्वपूर्ण बदलाव किए गए हैं। 2013 में क्रिमिनल लॉ (संशोधन) के बाद कई बदलाव आए, कानून में सुधार हुए। इस तरह के बदलाव के बाद भी महमूद फारूकी बनाम स्टेट ऑफ एनसीटी ऑफ दिल्ली 2017 में अदालत ने सहमति की अपनी समझ को दिखाते हुए कहा कि “कमज़ोर की ना में भी हां है।”
भारतीय न्यायालयों के इस तरह के फैसले और बयान अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कानून के विपरीत हैं। भारत अनेक अंतरराष्ट्रीय कानून पर हस्ताक्षरकर्ता है। महिलाओं के प्रति भेदभाव को रोकने और उनके अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा के द्वारा ‘कनवेंशन ऑन द एलिमिनेशन ऑफ ऑल फॉर्मस ऑफ डिस्क्रीमिनेशन अगेन्स वुमेन’ 1979 में पारित हुआ था। इसके तहत महिलाओं के मूलभूत मानवाधिकारों के सम्मान, संरक्षण को पूरा करने की कानून बाध्यता है। वहीं, लगातार भारतीय अदालतों के इस तरह के फैसले भारत की संस्थाओं में मौजूद लिंग पूर्वाग्रह को दूर करने में विफल रहा है। आज भी भारत में किसी ऐसे कानून का अभाव है जो विशेष रूप से न्यायिक रूढ़िवादिता को संबोधित करता हो।
देश की सर्वोच्च अदालत ने इसी साल मार्च में जस्टिस ए.एम खानविलकर और जस्टिस एस रविंद्र भट की पीठ ने जजों को लैंगिक समानता और महिलाओं के प्रति संवेदनशील रवैया बरतने की नसीहत दी। अदालत ने कहा था कि जज सुनवाई के दौरान या अपने आदेश में कोई भी ऐसी टिप्पणी न करें जो पूर्वाग्रह से ग्रस्त हो। साथ ही कोर्ट ने इस तरह के मामलें में संवेदनशीलता रखने के लिए सरकारी वकीलों और बाकी के वकीलों को शिक्षित किए जाने की ज़रूरत बताई। इस पीठ के आदेश के अनुसार जज महिला के कपड़े, आचरण पर टिप्पणी करने से बचें। अगर शिकायतकर्ता को कोई खतरा है तो उसे उचित सुरक्षा देने पर भी विचार करे। देश में कानून को लागू करने के लिए न्यायालय स्थापित किए गए हैं। न्यायालय नागरिकों मूल अधिकार के संरक्षण के लिए प्रतिबद्ध है। उनका काम सामाजिक कुरीतियों को दूर करना है न कि उनके रक्षक बन उनकी पैरवी करना। लैंगिक रूप से संवेदनशील व्यवहार समाज में स्थापित करने से पहले न्यायलय के जजों को पहले खुद के स्थापित पूर्वाग्रहों को मिटाना होगा।
और पढ़ें : सुप्रीम कोर्ट का अदालतों को महिला-विरोधी ना होने का निर्देश देना एक अच्छी पहल
तस्वीर साभार : city of rockwood