एडिटर्स नोट : यह लेख हमारी दो पार्ट की सीरीज़- ‘शिक्षा एक प्रिविलेज’ का दूसरा भाग है जहां हमने अलग-अलग समुदायों के आनेवाले चार छात्रों से बात की है जो क्राउडफंडिंग के ज़रिये विदेशी कॉलेजों की फीस जुटा रहे हैं। ये सीरीज़ इस मुद्दे पर केंद्रित है कि कैसे शिक्षा हमारे देश में आज भी एक विशेषाधिकार है।
हम एक लोकतांत्रिक देश में रहते हैं। हमारी सरकारों को ऐतिहासिक रूप से मुध्यधारा से कटे लोगों के लिए उनके अनुरूप बेहतर शिक्षा नीतियां बनानी चाहिए। यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि इन नीतियों की जानकारी उन तक पहुंचे और उसकी प्रक्रिया एक सुविधापूर्ण ढांचे के तहत हो लेकिन ज़मीनी स्तर पर ऐसा नहीं हो रहा है। इसलिए मजबूरी में कई विद्यार्थी सरकारी छात्रवृत्ति मिल पाने की उम्मीद छोड़कर अपनी पढ़ाई के लिए खुद पैसे जोड़ रहे हैं। भारत सरकार के पास दो योजनाएं हैं। पहला, ‘National Overseas scholarship for Scheduled Caste‘ जिसके तरह 100; 90 अनुसूचित जाति, 6 डिनोटिफाइड ट्राइब, नोमैडिक, सेमी- नोमैडिक ट्राइब और चार भूमिहीन मजदूर और पारंपरिक कारीगर विद्यार्थियों को विदेश पढ़ने जाने के लिए छात्रवृत्ति मिलती है। दूसरा, ‘National Scholarship for ST’ जिसमें 20 विद्यार्थियों को सहायता का प्रावधान है। इन योजनाओं के अपर्याप्त होने के कारणों पर बात करने से पहले बता दें कि अन्य पिछड़ी जातियों (OBC) विद्यार्थियों के लिए ऐसी कोई योजना मौजूद तक नहीं है। बताते चलें कि भारत सरकार द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक विश्वविद्यालयों में एससी, एसटी विद्यार्थी मात्र 11.03% से 4.87% प्रतिशत हैं। कई विद्यार्थी उच्च शिक्षा पैसों और मौकों की कमी के कारण बीच में ही छोड़ देते हैं। इस संबंध में फेमिनिज़म इन इंडिया ने भारत के कुछ ऐसे ही विद्यार्थियों से बात की जो अपनी उच्च शिक्षा विदेश में करने के लिए फंड जमा कर रहे हैं।
हर्षाली महाराष्ट्र के बल्लारपुर की रहने वाली हैं। उन्होंने TISS मुंबई से ‘women centered practises’ में मास्टर्स किया है। उन्हें रॉयल होलोवे, लंदन यूनिवर्सिटी से ‘Election Campaign and democracy’ में MSc के लिए स्वीकृति पत्र मिला है। वह हाल के उच्च शिक्षा के अंदर की स्थितियों पर कहती हैं, “लोकतंत्र के लिए शिक्षा जरूरी है और इस स्पेस को स्वस्थ्य रखना है, ऐसा मौका सभी बच्चों को मिलना चाहिए लेकिन अभी आप देखेंगे कि ज्यादातर भारतीय जो विदेशों में है वे उच्च वर्ग और जाति से हैं। हमारे मामले में जब हम बाहर जाते हैं तो हम पर समाज की आंखें टिकी हैं, क्योंकि हम पहली पीढ़ी हैं जो वहां जा रहे हैं। हम एक ऐसा स्पेस चाहते हैं जहां हम बिना किसी दबाव के पढ़ पाएं। हम आर्थिक तंगी की चिंता किए बिना पढ़ना चाहते हैं। जब तक हम स्वस्थ माहौल में रहेंगे नहीं तो पढ़ने में ऊर्जा कैसे लगाएंगे। ये मुद्दा सवर्ण जातियों के विद्यार्थियों के साथ नहीं रहता है। कई लोगों का संघर्ष एडमिशन होने के बाद आराम से फीस देने के बाद उस यूनिवर्सिटी जाकर शुरू होगी। मेरा संघर्ष तो फंड जमा करने के साथ ही शुरू है।
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हर्षाली आगे कहती हैं, “आपको राजनीति में खींचा जाता है, बल्कि आप भी तो एक ऐसा मौका चाहते हैं कि जहां आप पढ़ने गए हैं वहां केवल पढ़ पाएं। पहले तो एंट्री में दिक़्क़त होती है, पढ़ाई का बैकग्राउंड नहीं होता तो एंट्री के बाद भी दिक़्क़त होती है। यहां तो नेट-जेआरएफ फेलोशिप के पैसे तक नहीं आते। ये सारी चीजे़ं विद्यार्थी का पढ़ने-लिखने का मन कमज़ोर कर देती हैं। मेरी जो आगे की पढ़ाई है वह लोकतांत्रिक व्यवस्था के बारे में ही है उसमें प्रतिनिधित्व एक मुद्दा है ही। जैसे आज के समय में मुझे कोई भारतीय नेता विजनरी नहीं लगता। कुछ नेता अपनी पार्टी की विचारधारा के तहत विज़न रखते हैं लेकिन विकास में मुख्यधारा से काटकर रखे गए तबक़े का विकास कहां है। उनकी जगह हर क्षेत्र में होनी चाहिए। बहुत छोटी-छोटी चीजें हैं जो लोकतंत्र को मजबूत करती हैं। जैसे चुनाव में औरतों की भागीदारी। मुझे आगे चल कर इस मुद्दे पर काम करना है।”
हर्षाली और गोल्डन सिंह के अलावा भी कई फंड रेज़ के पोस्टर्स आपको देखने मिल जाएंगे। इन्हें पूरा देखकर तत्कालीन खुश हुआ जा सकता है लेकिन ये स्थिति शर्मनाक है कि अपनी प्रतिभा साबित करने के बाद भी इन विद्यार्थियों की दिक्कतें खत्म नहीं हुई हैं।
हर्षाली स्कॉलरशिप को लेकर अपना अनुभव बताते हुए कहती हैं, “महाराष्ट्र सरकार के पास एक स्कॉलरशिप है SC/ST विद्यार्थियों के लिए। उसमें 75 बच्चों को छात्रवृत्ति मिलती है लेकिन जिस यूनिवर्सिटी में दाखिला हुआ है उसकी क्यूएस रैंकिंग 300 से कम होनी चाहिए। बाकी बच्चों के लिए क्या जिनका दूसरा मास्टर्स है वह स्कॉलरशिप के लिए नहीं मान्य नहीं हैं। ये मेरे साथ भी हुआ। ‘National overseas scholarship’ 100 या उससे कम लोगों की मदद करती है, लेकिन पूरे देश से इतने ही बच्चे जा रहे हैं क्या? स्कॉलरशिप का रिज़ल्ट आएगा अगस्त के आखिर में, मुझे जाना है सितंबर में, मैं फीस कैसे भरूंगी। मेरे कुछ सीनियर जो इन स्कॉलरशिप पर बाहर गए हैं बताते हैं कि छात्रवृत्ति समय पर नहीं आ रही। देश के बाहर ऐसे गुज़ारा कैसे होगा पर मैंने अप्लाई किया है। अलग-अलग यूनिवर्सिटी के कई स्कॉलरशिप के बारे में बच्चे को मालूम नहीं रहता क्योंकि जानकारी नहीं है। बच्चे इसलिए बाहर जाकर पढ़ने का सोच ही नहीं पाते। मुझे थोड़ा स्पेस मिला आगे पढ़ने का पर हर किसी के पास ऐसा स्पेस नहीं है।” हर्षाली बताती हैं कि स्वीकृति पत्र आने के बाद उन्होंने किसी को बताया नहीं था फिर उन्होंने सोचा कि यह मौका उनके लिए ज़रूरी है और वह इसे जाने नहीं दे सकतीं। 20 मई को उन्होंने ये फंड रेज़ शुरू किया था। उन्हें कई आंबेडकरवादी संगठनों से भी मदद मिली है।
गोल्डन सिंह ने जेएनयू से एमए किया है। उनके पास SOAS लंदन, ISS Hauge से उनके पास स्वीकृति पत्र आए हैं। उन्होंने फंड रेज़ जून के महीने में ISS के लिए शुरू किया था। वह बताती हैं कि ओबीसी विद्यार्थियों के देश से बाहर पढ़ने के लिए कोई छात्रवृत्ति योजना नहीं है। कोरोना के कारण वह कई जगहों से मदद नहीं ले पाई जैसे, मंत्रालय को चिट्ठी लिखकर मदद लेने की कोशिश आदि। गोल्डन फंड रेज़ से फीस जोड़ने की कोशिश कर रही हैं, लोन के बारे में भी सोच रही हैं, लेकिन उनके पास समय बहुत कम है और स्थिति अभी तक अनिश्चितता से भरी है। वह बताती हैं कि उनका फंड रेज़ बहुत लोगों तक नहीं पहुंच पा रहा है। वह हर संभव प्रयास में लगी हैं। “ISS का रिजल्ट जून शुरुआत के दिनों में आया। मेरे पास समय कम है, शायद वे कुछ छात्रवृत्ति दें।” हर्षाली की तरह गोल्डन भी दूसरी बार एमए कर रही हैं। वह कहती हैं, “मुझे ये समझ नहीं आता क्योंकि मास्टर्स तो कोई कभी भी कर सकता है। दूसरी बात मैं ओबीसी तबके से हूं तो ऐसे देखा जाए तो मेरे लिए कोई छात्रवृत्ति ही नहीं है। उस पर से कोरोना का समय है, इन सबने पहुंच को असंभव बना दिया है। जो स्कॉलरशिप प्राइवेट देते हैं उसका क्रेटेरिया एक तरह से अंग्रेजी जानना, नेटवर्किंग होना होता है। मुझे अब समझ आ रहा है कि सिर्फ़ पढ़ाई करने से नहीं हो जाएगा, कई और बातें भी हैं।”
गोल्डन का जन्म बिहार में हुआ है लेकिन उनका परिवार महाराष्ट्र विस्थापन कर गया। महाराष्ट्र सरकार केवल SC/ST विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति देती है। साहूजी महाराज छात्रवृत्ति तकनीकी विषय पढ़ने वाले विद्यार्थियों के लिए हैं, ऐसा गोल्डन बताती हैं। आर्ट्स और हयूमैनिटिज़ के कोर्स को लेकर वह कहती हैं, “तकनीकी पढ़ाई के लिए कई बार फंड्स ज्यादा आते हैं, बाहर के विश्वविद्यालयों में भी एमए तकनीकी विषय में होने से स्कॉलरशिप मिला जाता, मुझे ये पक्षपात भी समझ नहीं आता”। गोल्डन अपने फंड रेज़ करने के अनुभव से कहती हैं, “लोग कर्ज़ लेने की सलाह देते हैं, औरतों के पास कहां ज़ायदाद होती है, वह उनके पिता के नाम से होती है न, आपको सभी के घरों के हालात नहीं मालूम है। मैं जेएनयू से भी हूं तो अर्बन नक्सल जैसे शब्दों का प्रयोग करना, मेरी जाति का अनुमान लगाकर जाति सूचक गालियां देना आम है। जबकि मैं कैंपस में बहुत सार्वजनिक तरीक़े से मुखर नहीं रही हूं। यह सवाल तो सरकार से पूछना चाहिए न कि इन्हें पब्लिक फंडिंग क्यों करनी पड़ रही है।” उम्र सीमा यानी एज गैप को वह जातिवादी और पितृसत्तात्मक नज़र बताती हैं। “हर इंसान एक तरह से प्रिविलेज्ड नहीं है। कोई इंसान एक उम्र के बाद शिक्षा हासिल करना चाहते हैं, मानो मेरी मम्मी या पापा अब पढ़ना चाहते हैं, तो उनको क्यों इस स्टीरियोटाइप झेलना पड़े।”
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गोल्डन अपने अनुभवों से एक रोचक बात कहती हैं स्पेस बनाने का मतलब सिर्फ पार्टी बनाना नहीं होता। ख़ासकर मुध्यधारा से कटे समुदायों का बाहर जाकर पढ़ना या भारत में उच्च शिक्षा लेना थोड़ा अलग है क्योंकि वे पहली पीढ़ी हैं जिन्हें वह जगह मिली है, इसलिए उनपर अपने लोगों के लिए जहां भी जैसे भी हो पाए एक स्पेस बनाने की नैतिक जिम्मेदारी आती है, मैं इसे ऐसे देखती हूं। वे ऐसा करने वाली पहली पीढ़ी होने पर कहती हैं, “वहां कोई अपना जाए तो ऐसा नहीं लगता है कि उस जगह हम नहीं जा सकते। जब मैं अप्लाई कर रही थी मैं बहुत डरी थी, जैसे, फॉर्म भरने में नाम लिखने तक का तरीक़ा भारत और वहां अलग होता है। मेरी मदद सीनियर सुमित समोस ने की थी। उसी तरह अपने लोगों का बाहर जाना सामाजिक आर्थिक शक्ति और एक तरह से कहीं पहुंचने के रास्ते से परिचिय करा देता है। गोल्डन सॉलिडेरिटी स्पेस की महत्ता पर कहती हैं कि जब वह जेएनयू आई थीं उन्हें यहां की बातचीत, शब्दावली समझ नहीं आती थीं क्योंकि वह कॉमर्स की विद्यार्थी थीं। बाप्सा में उन्हें ये स्पेस मिला, “बाप्सा में अपनी तरह की स्थितियों से संघर्ष वाले लोग मिले जो पढ़ पाए। वहां मैं पहली पीढ़ी द्वारा शिक्षा के संघर्ष की अहमियत समझ पाई और इसका आने वाली पीढ़ियों पर कैसे असर होता है।” गोल्डन ने बताया कि उनके थीसिस का विषय, ‘Political representation of Shudra women post Mandal in the states of Bihar and U.P’ है। वह कहती हैं कि शोषण सिर्फ ब्राह्मण दलित के बाइनरी में नहीं होता है, कई जातियां शोषक भी हैं और शोषित भी, ये भी समझना ज़रूरी है।
हर्षाली और गोल्डन सिंह के अलावा भी कई फंड रेज़ के पोस्टर्स आपको देखने मिल जाएंगे। इन्हें पूरा देखकर तत्कालीन खुश हुआ जा सकता है लेकिन ये स्थिति शर्मनाक है कि अपनी प्रतिभा साबित करने के बाद भी इन विद्यार्थियों की दिक्कतें खत्म नहीं हुई हैं। कुछ फंड रेज़ लोगों तक पहुंच रहे और कुछ उस गति से नहीं पहुंच रहे जिससे समय रहते जरूरत भर के पैसे जमा हो सकें। इनका संघर्ष अपने उस अधिकार के लिए है और इसमें सरकार नीतियों ने उन्हें मायूस किया है। सकारात्मक बदलाव के लिए भारत में अलग-अलग पहचानों के कारण शोषित समुदायों के लिए उनकी जनसंख्या और ज़रूरत देखते हुए शिक्षा नीतियां बनने की दरकार दिखती है। डॉक्टर आंबेडकर संविधान सभा के सबसे शिक्षित व्यक्ति थे। उनकी उच्च शिक्षा का संघर्ष अपने समय के उन पढ़े-लिखे लोगों से अलग था जिन्हें समाज की मुध्यधारा होने का प्रिविलेज प्राप्त था। लेकिन आज़ादी के 75 साल के बाद भी भारत की शिक्षा नीति, बजट और योजनाएं दुनिया के शीर्ष विश्वविद्यालयों में चयनित विद्यार्थियों के काम नहीं आ रही। जबकि ये विद्यार्थी अलग-अलग जगहों से आते हैं लेकिन शिक्षा के ढांचे से कारण इनकी दिक्क़तें एक सी हैं। ये योजनाएं ज़मीनी हक़ीक़त से अनजान आंकड़ों के लिए रह जा रही हैं और शिक्षा के मौकों और उसे हासिल करने के रास्ते लोकतांत्रिक और समावेशी नहीं हैं।
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