भारत में हुए अब तक के सबसे बड़े और प्रथम आदिवासी विद्रोहों में से एक बड़ा विद्रोह ‘हूल विद्रोह’ को माना जाता है। यह संथाल परगना में घटित हुआ था। संथाल परगना का विस्तार उत्तर में बिहार के भागलपुर से दक्षिण में ओडिशा तक तथा हजारीबाग से अविभाजित बंगाल की सीमा तक विस्तृत था। बाकी सभी आदिवासियों की तरह संथाल आदिवासी भी जंगलों में निवास करते थे। अपने परंपरागत तौर-तरीके से रहते और वहां खेती करते थे। वैसे तो यह लड़ाई महाजनों और साहूकारों के खिलाफ थी जो इन आदिवासियों की ज़मीन पर मनमाने कर वसूलते, भारी ब्याज में कर्ज़ देते थे और कर्ज़ के साथ ही फ़सल भी देने को मजबूर करते। जिसके परिणामस्वरूप कई बार उन्हें महाजनों को न केवल अपनी फसल देनी पड़ती बल्कि इसके साथ अपने पालतू जानवरों, हल, बैल,जमीन और फसल भी देने को मजबूर होना पड़ता था। बहुत जल्दी वे सभी बंधुआ मजदूर के रूप में परिवर्तित हो जाते फिर इन महाजनों, साहूकारों के खेतों और घरों में काम करते।
संथालों के शोषण में अंग्रेज़ भी महाजनों के साथ बराबर के भागीदार थे। महाजन संथालों की जमीन हड़पना चाहते थे और अंग्रेज़ उनके जंगलों में मौजूद खनिज संपदा को हथियाने, आदिवासी रीति-रिवाज, परंपरा में हस्तक्षेप करना। इन लोकप्रिय प्रतिरोधों का एक और कारण था, इसका कारण अंग्रेजों द्वारा प्रारंभ किए गए सामाजिक धार्मिक सुधार था जो अक्सर ईसाई मिशनरी द्वारा चलाया गया था। आदिवासियों ने अपने आदिम धर्म के खिलाफ होते घुसपैठ के कारण भी इनका विरोध किया और अंग्रेज़ों ने इसके के लिए संथालों पर अत्याचार करना शुरू कर दिया। जंगल और ज़मीन इनकी जीविका के मुख्य संसाधन थे। जीवित रहने के लिए जिन बुनियादी चीज़ों की उन्हें आवश्यकता होती थी, उनकी पूर्ति वे जंगलों से करते थे। उन्होंने आदिवासियों की आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था और इन समुदायों को नष्ट करने का प्रयत्न किया। शांतिपूर्ण जीवन यापन करने वाले आदिवासियों का जनजीवन इन सभी ने एक हद तक तहस-नहस कर दिया। इनकी जमीनें तो छीनी जा ही रही थी, साथ ही इनकी सांस्कृतिक पहचान भी मिटाई जा रही थी।
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इस अत्याचार और शोषण के खिलाफ संथाल परगना के छह भाई बहनों ने महाजन और ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध हूल का आह्वान किया। हूल का अर्थ संथाली भाषा में विद्रोह होता है। इस विद्रोह ने संथालों में विभिन्न क्षेत्रों से आने वाले सामाजिक पृष्ठभूमि के सभी वर्गों को अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध एकजुट कर दिया। 30 जून 1855 में संथाल परगना के मुर्मू भाई बहनों सिद्धू–कान्हू, चांद–भैरव, फूलों–झानो के नेतृत्व में यह लड़ाई प्रारंभ की गई। अत्याधुनिक हथियारों से लैस अंग्रेज़ों के सामने इस विद्रोह में शामिल आदिवासियों ने अपने परंपरागत हथियार तीर, धनुष, टंगिया फरसा इत्यादि का प्रयोग किया। संथाल बहनें फूलो–झानो अंग्रेजों की गोलीबारी का परवाह ना करते हुए उनके बनाए शिविर में प्रवेश कर गई और इसी शिविर में अंधेरे की आड़ में उन्होंने कई अंग्रेजों को अपनी कुल्हाड़ी से मौत के घाट उतार दिया। अंग्रेज़ उस वक्त तक संथालोंं का मुकाबला फिर भी नहीं कर पा रहे थे। इस विद्रोह को कुचलने के लिए अविभाजित बंगाल के गवर्नर जनरल के नेतृत्व में अतिरिक्त अंग्रेज़ सेना को बुलाया गया। एक बार फिर से संथालों पर अंग्रेजों द्वारा एक बड़ा आक्रमण किया गया जिससे संथालों को बहुत बड़ी क्षति हुई और विद्रोही उस क्षेत्र को मजबूरी में छोड़ कर चले गए। फिर भी संथाल अंग्रेज़ों का मुकाबला हर हालात में करते रहे। हजारों की संख्या में संथाल आदिवासी अंग्रेज़ों से लड़े और अपनी माटी के लिए शहीद हुए।
अब भी इतिहास में यही पढ़ाया जाता है कि 1857 का स्वतंत्रता संग्राम प्रथम विद्रोह था जो अंग्रेज़ों के खिलाफ हुआ था और इतिहास में भी यही दर्ज किया गया है। चूंकि यह मुख्यधारा से कटे हुए समुदायों का अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह रहा है तो इसे मुख्यधारा के इतिहासकारों ने सीमित दृष्टिकोण से इसका विश्लेषण किया।
फिर अंग्रेज़ सरकार की तरफ से फरमान सुनाया गया कि अगर संथाल आत्मसमर्पण कर दें तो उनके नेताओं को छोड़कर बाकी सभी को माफ कर दिया जाएगा। इस क्षेत्र में शांति स्थापना की पहल की और कहा गया कि उनकी समस्याओं का निवारण किया जाएगा। इस फरमान के बावजूद किसी भी संथाल ने आत्मसमर्पण नहीं किया। तब नवंबर के महीने में ब्रिटिश शासकों ने अविभाजित बंगाल के संथाल अंचलों को ब्रिटिश शासन के हवाले कर दिया। सरकार ने घोषणा की कि जिस भी संथाल के हाथों में परंपरागत हथियार देखा जाएगा उसे ब्रिटिश सरकार का विरोधी या दुश्मन माना जाएगा और जेल में डाल दिया। हालांकि पहले संस्थालों की लड़ाई साहूकारों और महाजनों से थी लेकिन इस आदेश के यह लड़ाई जल,जंगल, ज़मीन और आदिवासी अस्मिता की बन चुकी थी। इस विद्रोह में सबसे पहले सिद्धू को अंग्रेज टुकड़ी द्वारा गिरफ्तार किया गया और एक पेड़ के नीचे उन्हें फांसी दे दी गई। अब यह लड़ाई चांद–भैरव की अगुवाई में हो रही थी। कुछ समय बाद इन्होंने भी गोलीबारी में अपनी जान गंवा दी और कान्हु को भी गिरफ्तार कर लिया गया। साल 1856 के अंत में इन्हें एक विशेष आयुक्त के सामने पेश किया गया जहां पर फांसी की सजा सुनाई गई और झारखंड के भोगनाडीह में फांसी दे दी गई।
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संथाल परगना में हुई यह जन क्रांति अंग्रेज़ो को आदिवासियों के हकों को ससम्मान लौटाने को बाध्य किया। कहा जाता है कि इसी विद्रोह के कारण आखिरकार अंग्रेज़ों को एसपीटी– सीएनटी एक्ट (संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम,छोटा नागपुर काश्तकारी अधिनियम) और शेड्यूल डिस्ट्रिक्ट एक्ट 1874 बनाना पड़ा जिसका आधार अंततः पांचवी अनुसूची के रूप में उभरा जो इस देश के आदिवासी बहुल राज्यों के क्षेत्रों में आदिवासी समुदायों को जल,जंगल,ज़मीन का हक प्रदान करता है। इन्हीं सब एक्ट की वजह से आज सुदूर प्रांतों के आदिवासी क्षेत्र आरक्षित हैं और इन इलाकों में समुदायों को स्वायत्त शासन का अधिकार है। बहरहाल अब भी इतिहास में यही पढ़ाया जाता है कि साल 1857 का स्वतंत्रता संग्राम प्रथम विद्रोह था जो अंग्रेज़ों के खिलाफ हुआ था और इतिहास में भी यही दर्ज किया गया है। चूंकि यह मुख्यधारा से कटे हुए समुदायों का अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह रहा है तो इसे मुख्यधारा के इतिहासकारों ने सीमित दृष्टिकोण से इसका विश्लेषण किया और इसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम मानने से इनकार कर दिया। कई ऐसे तथ्य हैं जो यह साबित करने में पूरी तरह कामयाब हैं कि असल में साल 1855 का संथाल विद्रोह ही प्रथम स्वतंत्रता संग्राम रहा है। शोषण, अत्याचार और ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ हुए इस हूल क्रांति को हर साल 30 जून को हूल दिवस के रूप में मनाया जाता है। इन वीर आदिवासी जननायक और नायिका को नमन किया जाता है और अपनी जल, जंगल, ज़मीन को बचाए रखने की कसमें खाई जाती हैं।
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तस्वीर साभार : दैनिक जागरण