संस्कृतिपरंपरा आदिवासी समुदायों में भी क्या बढ़ रहे हैं दहेज लेन-देन के मामले?

आदिवासी समुदायों में भी क्या बढ़ रहे हैं दहेज लेन-देन के मामले?

जो आदिवासी अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए शहर की ओर पलायन कर रहें वे बिल्कुल प्रत्यक्ष रूप से दहेज ले रहे हैं।

मीना एक मध्यम वर्गीय परिवार से आती है और उसके परिवार की आय का ज़रिया खेती-किसानी ही है। जब मीना के लिए शादी का रिश्ता आता तो ज्यादातर रिश्ते इसीलिए ठुकरा दिए जाते क्योंकि वह पतली-दुबली सी है। आखिरकार उनकी शादी एक ऐसे लड़के से कर दी गई जिसे कम दिखाई देता था और वह लड़खड़ाकर चलते थे। शादी में परिवार को अपनी क्षमता से अधिक दहेज़ देना पड़ा इस दहेज़ में बाकी सामानों को छोड़ दें तो लगभग डेढ़ लाख की बाइक ही दी गई जिसे वह खुद शारीरिक रूप से चलाने में सक्षम नहीं थे। बात यहीं खत्म नहीं होती जब भी मीना अपने घर आती है तब उसे अपने ससुराल वालों के लिए तेल साबुन जैसे रोज़मर्रा के समान के साथ कुछ रिश्तेदारों के लिए कपड़े हर बार लेकर जाना ही पड़ता है। इसे वह रस्मों-रिवाज़ का हिस्सा कहते हैं। तेल और साबुन का बक्सा अपने ससुराल ले लाने का सिलसिला लगातार साल भर तक जारी रहा। यह बात पूर्वी छत्तीसगढ़ की हैं।

छत्तीसगढ़ एक ऐसा प्रदेश है जहां पर बाक़ी राज्यों के मुकाबले दहेज़ उत्पीड़न से जुड़े मामले कम आते हैं। अगर दहेज संबंधित समस्याएं आती भी हैं तो लोक-लाज के भय से एफआईआर दर्ज नहीं कराई जाता और अक्सर ऐसे मामलों का निवारण पंचायत स्तर पर करके दबा दिया जाता हैं। दूसरा यह कि अब यहां पर भी दहेज़ देना और लेना सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक बन गया हैं। छत्तीसगढ़ में बढ़ते दहेज़ के मामलो की अगर बात करें तो नैशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार साल 2017 में यहां 84, साल 2018 में 79 और साल 2019 में 76 महिलाओं की दहेज के कारण हत्या की गई। ईटीवी भारत के एक लेख में पेशे से वकील दिवाकर सिन्हा बताते हैं कि छत्तीसगढ़ में लगातार दहेज के मामले बढ़ते जा रहे है। प्रदेश के सभी जिलों में महिला सेल की स्थापना की गई हैं उन थानों में आए दिन दहेज के मामले आते हैं। एक अनुमान के मुताबिक पूरे छत्तीसगढ़ में हर महीने दहेज के करीब 400 मामले सामने रहे हैं।

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अगर वहीं बात करें छत्तीसगढ़ के आदिवासी समुदायों के बारे में तो दहेज को लेकर सभी समुदायों का अलग–अलग विचार और पक्ष हो सकता है लेकिन मैं जिस मुरिया आदिवासी समुदाय से आती हूं वहां दहेज़ जैसी प्रथा अब भी गांवों में देखने को नहीं मिलती लेकिन शहर से सटे गांवों में इन दिनों खर्चीली शादियों का ग्राफ बढ़ता जा रहा है। वे देखा-देखी करते हुए अपने संस्कृति और परंपरा को भूलकर गैर पारंपरिक तरीके से शादी कर रहें अपनी शादियों में परंपरागत वाद्य यंत्रों जैसे मोहरी बाजा, गांडा बाजा हुलकी मांदरी को तरहीज़ ना देते हुए इसके बदले बड़े-बड़े डीजे और डांस फ्लोर लगवा रहे हैं जिससे कहीं न कहीं समुदाय में बनाई गई कार्य व्यवस्था भी बिगड़ रही है। मोहरिया शादियों में बाजा बजाने वाले लोगों का परंपरागत व्यवसाय छूट गया जो उनकी आय का ज़रिया होने के साथ-साथ उनके हुनर की पहचान भी थी। छिंद के पत्तों से मंडप की जगह अब रंग-बिरंगे फुलवारी वाले शामियाना ने ले ली है। किसी समय गांवों में गोंडी गीत और लोकगीतों का अलग ही महत्व हुआ करता था। महिलाएं पुरुष मिलकर रात में रेला, मांदरी नाचते-गाते गोंडी गीतों से सबका मन मोह लेते थे। आदिवासी विवाहों में कुछ सालों पहले यहीं सब मुख्य आकर्षण का केंद्र हुआ करता था पर अब धीरे-धीरे करके यह सब भी विलुप्ति के कगार पर आ पहुंचे हैं जिससे ऐसी शादियों का खर्चा दहेज़ में तो नहीं लेकिन दहेज़ लेने देने से भी कम नही हैं।

अगर वहीं बात करें छत्तीसगढ के आदिवासी समुदायों के बारे में तो दहेज को लेकर सभी समुदायों का अलग–अलग विचार और पक्ष हो सकता है लेकिन मैं जिस मुरिया आदिवासी समुदाय से आती हूं वहां दहेज़ जैसी प्रथा अब भी गांवों में देखने को नहीं मिलती लेकिन शहर से सटे गांवों में इन दिनों खर्चीली शादियों का ग्राफ बढ़ता जा रहा है।

दहेज जैसी प्रथा किसी भी आदिवासी समुदाय में लागू नहीं है। वर्तमान में जो आदिवासी शहरों की ओर काम और अच्छी शिक्षा के लिए शहर का रुख कर चुके हैं उनमें ही कहीं न कहीं दहेज़ लेने और देने की भावना उत्पन्न हुई है। इन दिनों ज्यादातर शिक्षित वर्ग, आर्थिक दृष्टि से संपन्न परिवारों में ही या कहें वधु पक्ष ही स्वेच्छा से देने के लिए राज़ी होते हैं और कभी ऐसा भी होता हैं कि यदि लड़का अच्छी नौकरी में है तो खुद ही समाज में अच्छी प्रतिष्ठा के बल पर मांग रखता है। कई बार परिवार में अप्रत्यक्ष रूप से दबाव बनाया जाता है। हम देखते आ रहे हैं कि दहेज के मामले आदिवासी समुदाय में ना के बराबर हैं। जो दहेज़ का लेन-देन कर रहे हैं वे गांवों और आदिवासि परंपरा और संस्कृति से दूर जा चुके हैं। यहां के आदिवासियों में दहेज जैसा कोई मुद्दा नहीं है क्योंकि इन विषयों पर बात करने वाले लोग इन सब में प्रत्यक्ष रूप से भागीदार रहे हैं। वहीं कई आदिवासी युवा सामाजिक संगठन के ज़रिये इन मुद्दों पर काम भी कर रहें हैं। वे दहेज़ में सामानों के बदले रिश्तेदारों और सगे संबंधियों से यह अपील करते हैं कि टिकावन में स्वेच्छा से कुछ रुपए-पैसे ही दिए जाए जो उनके नये गृहस्थी बसाने में काम आ सके।

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दहेज जैसी कुप्रथा सुदूर आदिवासी अंचलों में नहीं दिखाई देती। वहां पर आज भी सीमित संसाधन में ही विवाह कार्यक्रम संपन्न कराए जाते हैं। आदिवासियों में दहेज़ फिलहाल शहर तक ही सीमित हैं क्योंकि जो आदिवासी अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए शहर की ओर पलायन कर रहें वे बिल्कुल प्रत्यक्ष रूप से दहेज ले रहे हैं। खुले तौर पर तो नहीं कहा जा सकता कि यह समाज दहेज़ की मांग करता है लेकिन फिर भी तथाकथित सभ्य समाज के बनाए सामाजिक व्यवस्था के नियम- कायदे के सांचे में खुद को ढालने के लिए वे इस व्यवस्था का हिस्सा बनने को मजबूर हैं। अब इसे शौक कहें या लाचारी ये उन पर निर्भर हैं। आधुनिकता की होड़ में सामंजस्य स्थापित करने के प्रतिस्पर्धा में उनकी विविधता से भरी संस्कृति उनसे छूटती ही जा रही है और कहीं न कहीं संस्कृति और नैतिकता का धीरे-धीरे पतन हो रहा।हालांकि अब भी कई और जनजातियां हैं जिनमे दहेज़ प्रथा का प्रचलन नही हैं जिसे किसी भी सभ्य समाज में मिशाल के तौर पर अपनाया जा सकता हैं यहां दहेज़ प्रथा निषेध है। कई समुदायों में दहेज़ प्रथा निषेध है। दहेज़ के रूप में लड़कियों को शादी के वक्त ऐसे पौधे दिए जाते हैं जो आगे चलकर उनके आय का जरिया बन सके जैसे सल्फी (Caryota urens), महुआ आदि। साथ ही साथ केवल इतना ही ज़रूरी सामान दिया जाते है ताकि वे कम संसाधन में जीवन बिता सकें। इन सामानों में चंद कपड़े, बर्तन और एक-दो लकड़ी के समान होते हैं। फिर भी छत्तीसगढ़ के स्थानीय निवासियों का मानना है कि दहेज प्रथा छत्तीसगढ़ की संस्कृति नहीं है। यह क्षेत्रवाद की उपज है जो बाहर से यहां आकर बसे हैं उनमें दहेज लेने की प्रथा है और उन्हीं लोगों की देखा-देखी करते यहां पर भी दहेज़ प्रचलन बढ़ता ही जा रहा साथ ही दहेज़ उत्पीड़न से संबंधित मामलों की संख्या भी बढ़ रही है।

शासन ने दहेज उत्पीड़न से संबंधित महिलाओ पर होने वाले घरेलू हिंसा को ध्यान में रखते कई सारे नियम लागू किए हैं। न्यूज पेपर के फ्रंट पेज से लेकर शहर के चौक चौराहों पर बड़े से बड़े पोस्टर नजर आते हैं जिनमे साफ तौर पर लिखा होता हैं ” दहेज़ उत्पीड़न और घरेलू हिंसा दंडनीय अपराध है। इसमें संलिप्त पाए गए व्यक्ति पर कानूनी कार्रवाई होगी। इसके साथ ही टोल फ्री नम्बर भी जारी किए गए हैं। हालांकि, अफ़सोस की गांवों में आज भी इसके फैसले पंचायत समिति ही करती है। दहेज हिंसा पर ऐसी जागरूकता आज भी छत्तीसगढ़ में सिर्फ़ शहरों में दिखाई देती है। अगर गांवों में कोई हिम्मत करके शिकायत करना भी चाहे तो उन्हें पहले ही मान लिया जाता हैं कि उसकी शिकायत झूठी ही होगी। ऐसी शिकायतों का तोड़ पहले ही निकाल लिया जाता हैं और आरोपी कानून की गिरफ्त मे आने से बच निकलते हैं। यह तब और मुश्किल होता हैं जब तथाकथित सभ्य समाज दहेज़ को आधुनिकता का मापदंड मानता हैं इसी दिखावे के चक्कर में एक कई परिवार कर्ज़ के बोझ तले दबकर सालों तक नहीं निकल पाते।

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तस्वीर साभार : याकूब तिर्की 

Comments:

  1. Dr. Vibha Thakur says:

    ज्योति बहुत बढ़िया लेख है ।लोक संस्कृति में मेरी भी रूचि है इसलिए ऐसे लेख मुझे अच्छे लगते है जो अतीत से निकलकर
    वर्तमान की वास्तविकताओं से हमें परिचित कराते है ।
    निरंतर लिखती रहो।
    शुभकामनाएं

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