“हम काले हैं तो क्या हुआ दिल वाले हैं” ये गाना आप सभी ने सुना ही होगा। इस गाने के बोल कितनी आसानी से त्वचा के सांवले रंग को मज़ाक का विषय बना देते हैं। हां, एक बार आप सोचेंगे कि चलो इस गलती को माफ कर देते हैं क्योंकि पहले के ज़माने में लोगों को कहां रंग का भेदभाव समझ आता था लेकिन गौर करने वाली यह बात है कि आज भी समाज की मानसिकता के लिए एकदम सटीक बैठता है। अधिकतर घरों को औरतों की सांवली या काली रंगत सहन नहीं होती इसलिए वे लोगों के तानों से जीवनभर पीड़ित रहती हैं। हालांकि पढ़े-लिखे परिवारों में देखने को को तो ये हालत कुछ बदल रहे हैं पर वास्तव में ये सिर्फ दिखावा है जिसकी वास्तविकता जस की तस है।
अगर हम घर की बात करें तो मां-बाप अपनी बच्चियों को अपनी क्षमता अनुसार प्रेरित तो करते हैं पर यहां भी एक खामी है। वे आज के दौर में ढलकर अपने बच्चों को आगे बढ़ाना चाहते हैं लेकिन समाज में चली आ रही बरसों की इस रंगभेदी सोच को छिपा नहीं पाते। इसका उदाहरण आमतौर पर हम अपने घरों में देख सकते हैं। जैसे, “तुम काली हो तो क्या हुआ, जिंदगी में बहुत कुछ कर सकती हो या फिर आजकल अब अच्छी नौकरी लग जाती है ना तब शादी के वक़्त सांवला, गोरा कोई नहीं देखता।” अब उन्हें कौन समझाए कि नौकरी पर रखने वाले भी कई बार सावला रंग देखकर अस्वीकार कर देते हैं। बहुत बार हम लोगों को यह भी ताना सुनने को मिलता है कि लड़की सांवली है हमें तो चप्पल घिसनी पड़ेगी।
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आखिर त्वचा की रंगत पर इतना बवाल क्यों? भारतीय समाज की यह मानसिकता है कि केवल गोरा रंग ही सुंदरता की निशानी है। लोगों का ऐसा मानना है कि अगर वे अपने घर सांवली बहु लाएंगे तो उनका ‘वंश’ भी इससे प्रभावित होगा। यही कारण है कि जब अखबारों और पत्रिकाओं में वैवाहिक विज्ञापन आते हैं तो अक्सर उन्हें ‘गोरी और सुंदर वधु’ चाहिए होती है। अक्सर आपने लोगों को यह कहते सुना होगा कि हमारा लड़का गोरा है लड़की गोरी और सुंदर होनी चाहिए। इन शब्दो को बड़ी ही गंभीरता से लिया जाता रहा है जबकि ये शब्द रंगभेद को बढ़ावा देते हैं। इन सभी बातों के चलते सांवली रंगत वाली लड़कियों को घरवालों और समाज दोनों में ही मानसिक प्रताड़ना झेलनी पड़ती है लेकिन कुछ लोग हैं जिनके लिए यह स्थिति बेहद फायदेमंद है।
झूठ, असमानता और नफरत बेचने वाला सौंदर्य उद्योग। ये सौंदर्य प्रसाधन जैसे क्रीम, लोशन, स्प्रे आदि समाज की दकियानूसी सोच को बढा़वा देते हैं और लोगो के मन में भेदभाव की भावना को ठोस करते हैं। बाज़ार में ना जाने कितने ही ऐसे ब्रांड हैं जो महिलाओं को गोरा बनाने का दावा करते हैं। इनके विज्ञापनों में सांवली औरतों को अबला बेचारा और बेसहारा दिखाया जाता है। उनकी त्वचा को उनकी कमज़ोरी बता दिया जाता है। इससे इन कंपनियों की बिक्री भी अधिक होती है क्योंकि महिलाओं को लगता है कि सफलता का यही एकमात्र रास्ता है। यही वजह है कि गोरे होने की क्रीम देश में सबसे ज्यादा बिकती है क्योंकि देश में काला और गोरे का फर्क सिर्फ जुबानी तौर पर नहीं मानसिक, जातिगत और सामाजिक तौर पर भी है।
स्कूल में मुझे अन्य बच्चे चिढ़ाते हुए कहते थे, “अब तेरा क्या होगा कालिया।” ऐसे घोर आपत्तिजनक और रंगभेदी डायलॉग ने करोड़ों भारतीयों का उनके रंग के आधार पर मज़ाक उड़ाया है।
स्कूल में मुझे अन्य बच्चे चिढ़ाते हुए कहते थे, “अब तेरा क्या होगा कालिया।” ऐसे घोर आपत्तिजनक और रंगभेदी डायलॉग ने करोड़ों भारतीयों का उनके रंग के आधार पर मज़ाक उड़ाया है। अक्सर मैंने देखा है कि ग्रामीण परिवेश के विद्यालयों में ज्यादातर वंचित बच्चों के साथ अक्सर उनके रंग-रूप को लेकर कई तरह के भेदभाव समाज के द्वारा किए जाते हैं। जो बच्चियां रंग से थोड़ी गहरी हैं उनके अभिभावक कहते सुने जाते हैं, “चप्पल घिस जाइ एकरा खातिर लड़का खोजते खोजते।” अक्सर मां कोसती है, “लड़की देवे के रहे भगवान त करिया काहे के देनी।” सांवले या काले रंग का होना कोई ईश्वरीय महत्व नहीं रखता। समाज की सीढ़ी पर इंसान कहा खड़ा है ये भी उसकी चमड़ी के रंग से तय होता है। इस पर कोई सवाल उठाए तो जवाब मिलता है, “हमारे तो देवता भी सावले रंग के हैं, हम इंसानो के सांवले रंग से क्यों नफरत करेंगे भला।” इनसे कोई पूछे कि भगवान के आगे अगरबत्ती घूमाने से इंसान की इज्जत करनी कैसे आ जाती है।
भारतीय समाज की यह मानसिकता है कि केवल गोरा रंग ही सुंदरता की निशानी है। लोगों का ऐसा मानना है कि अगर वे अपने घर सांवली बहु लाएंगे तो उनका ‘वंश’ भी इससे प्रभावित होगा। यही कारण है कि जब अखबारों और पत्रिकाओं में वैवाहिक विज्ञापन आते हैं तो अक्सर उन्हें ‘गोरी और सुंदर वधु’ चाहिए होती है।
फिल्मों में भी हर बार हीरो को गोरी नायिका ही मिलती है। विज्ञापनों में गोरी लड़कियों को ही सफलता मिलती है। हर बार सांवली लड़की को टिंडर पर लेफ्ट स्वाइप कर दिया जाता है। हर बार उसे जब धीमे से जताया जाता है कि उसके लिए दहेज़ इकट्ठा करना ज़रूरी है क्योंकि उससे बराबरी का विवाह तो कोई करेगा ही नहीं। हर बार जब उसे यकीन दिलाया जाता है कि एक्ट्रेस, मॉडल, टीवी और न्यूज़ एंकर तो बनने के सपने तो उसे देखने ही नहीं है। भारत में सालों से सांवली और काली महिलाओं का मानसिक शोषण हो रहा है। देश में आज भी महिलाएं काले और गोरे होने की खाई पैदा होने से पुरुषों की सोच की गुलाम हैं। महिलाएं आज भी इसी रंगभेदी मानसिकता का शिकार हैं।
सांवली रंगत पर शर्म का यह बीज बचपन से ही बो दिया जाता है। जब बच्चे घरों और स्कूलों में रंग का भेदभाव सुनते और देखते हैं तो वही चीज सीखकर वह अपने जीवन में भी करते हैं। बड़े होते-होते यह उनकी आदत में बदल जाती है और फिर वे भी त्वचा के रंग से लोगों को आंकने लग जाते हैं। इसलिए ज़रूरी है कि बचपन से ही उन्हें समझाया जाए कि किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व में उसकी त्वचा के रंग का कोई हाथ नहीं होता है। साथ ही साथ यह जिम्मेदारी स्कूलों और शिक्षकों की भी है कि वे बच्चों का रंग देखकर उनके साथ भेदभाव ना करे और बच्चों को भी ऐसा करने से रोकें। उन्हें रंगभेद का इतिहास बताएं, इसके आधार पर होनेवाली हिंसा, शोषण और विरोध का इतिहास बताएं। इससे बच्चे अपने साथ-साथ पूरे परिवार को यह सीख देंगे। हमारे समाज में गोरे और सांवले जैसे शब्दों का इस्तेमाल करना ही बंद हो जाना चाहिए। समाज में फैली हुई इस बुराई को अब मिटाना जरूरी है। बूढ़े बुजुर्गो से लेकर बच्चों तक को भी यह समझाना जरूरी है कि एक इंसान की त्वचा उसके अंदर की गुणवत्ता को कम या ज्यादा नहीं करती है।
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तस्वीर साभार : The World