बिहार के पटना की रहनेवाली अर्चना, गर्दनीबाग स्थित एक सरकारी स्कूल में दसवीं की छात्रा है। कोविड से पहले जब स्कूल खुले थे तब उसे वहीं सैनिटरी पैड मुफ्त मिल जाया करते थे। कभी स्कूल के द्वारा तो कभी किसी संस्थान के ज़रिये।। अब चूंकि लॉकडाउन में पिछले एक साल से स्कूल बंद रहे वह फिर से घर में पीरियड्स के दौरान कपड़े के इस्तेमाल को मजबूर है। पूछने पर वह बताती है, “सैनिटरी पैड पुराने कपड़े के मुकाबले कहीं ज्यादा आरामदायक लगते हैं। कपड़े का इस्तेमाल करने पर लगता है जहां बैठी हूं बस वहीं बैठी रहूं।” मैं अपनी बात करूं तो मैं, सातवीं क्लास में थी जब पहली बार पीरियड्स आए। सैनिटरी प्रॉडक्ट्स की जगह मां ने साफ़, पुराने कपड़े थमाए थे। चूंकि घर की आर्थिक स्थिति सैनिटरी नैपकीन खरीदने की इजाज़त नहीं देती थी। कपड़े की तकलीफ़, स्कूल यूनिफॉर्म में दाग लगने का डर और शर्म, इसके कारण अक्सर स्कूल दो-तीन दिन नहीं जा पाती। ये तकलीफ सिर्फ मेरी ही नहीं, मेरी बड़ी बहन की भी थी। पांच बेटियों वाले परिवार में सैनिटरी प्रॉडक्ट्स का खर्च भी एक बड़ा खर्च होता है।
धीरे-धीरे हम सस्ते सैनिटरी पैड के विकल्प की ओर बढ़े। उस वक्त सस्टेनबिलिटी या प्लास्टिक पैड से पर्यावरण को कितना नुकसान हो रहा है यह मायने नहीं रह गया था। ज़रूरी था तो यह कि बाज़ार में बने पैड का इस्तेमाल कपड़े के मुकाबले आरामदायक था, हम स्कूल आसानी से जा सकते थे। हमें कोई यह बताने वाला नहीं था कि सूती कपड़े से बने पैड्स भी आसानी से बाज़ार में उपलब्ध हैं या घर में बनाए जा सकते हैं। स्कूलों में पीरियड्स पर जानकारी के नाम पर शेमिंग ही मिली। यह कहानी सिर्फ मेरी नहीं है। यह बहुत सामान्य बात है जो आज भी पूरी तरह हमारे समाज में प्रचलित है। सैनिटरी प्रॉडक्ट्स का महंगा होना, उनका आम जनमानस की पहुंच से दूर होना आज भी एक बड़ी समस्या है।
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कॉलेज के दिनों में सस्टेनेबल मेस्ट्रुअल प्रॉडक्ट्स जैसे मेंस्ट्रुअल कप, कॉटन पैड्स पर थोड़ी-बहुत जानकारी दी गई लेकिन इनका इस्तेमाल कैसे करना है, कैसे ये बाज़ार में मिलनेवाले डिस्पोज़बल सैनिटरी पैड्स से बेहतर हैं। ऐसा कुछ नहीं बताया गया। पर्यावरण के प्रति जागरूकता के नाम पर पौधे लगाने के कार्यक्रम से अधिक कुछ देखा नहीं। ऐसे में सस्टेनेबलिटी का विमर्श हम तक कैसे पहुंचता। आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर और जानकारी प्राप्त होने का विशेषाधिकार मिलने के बाद हम व्यक्तिगत पहल पर कपड़े से बने पैड्स की ओर शिफ्ट हुए। धीरे-धीरे हमारे देश में पर्यावरण को नुकसान या बेहद कम नुकसान पहुंचानेवाले मेन्स्ट्रुअल प्रॉडक्ट्स और सस्टेनबल मेंस्ट्रुएशन पर चर्चा शुरू हुई है। हालांकि यह चर्चा और ये प्रॉडक्ट्स अभी भी विशेषाधिकार प्राप्त लोगों तक ही सीमित है। ऐसा बिल्कुल नहीं है कि इन प्रॉडक्ट्स को आम जनमानस तक पहुंचाया नहीं जा सकता लेकिन भारत के मौजूदा हालात बताते हैं कि सस्टेनेबल मेंस्ट्रुएशन फिलहाल हमारे लिए एक दूर की कौड़ी है। आज अपने इस लेख के ज़रिये हम सस्टेनबल मेंस्ट्रुएशन के अलग-अलग पहलुओं पर चर्चा करेंगे।
सस्टेनबल मेंस्ट्रुएशन का मतलब है पीरियड्स के दौरान ऐसी चीज़ों का इस्तेमाल करना जो पर्यावरण को नुकसान न पहुंचाए। ऐसे प्रॉडक्ट्स में कपड़े से बननेवाले क्लोथ पैड्स, सिलिकन मेंस्ट्रुअल कप या पीरियड्स पैंटी का इस्तेमाल करना शामिल है। ये सस्टेनेबल इसलिए होते हैं क्योंकि इनका बार-बार इस्तेमाल किया जा सकता है। एक सिलिकन मेन्स्टुअल कप को लगातार 8 से 10 सालों तक इस्तेमाल किया जा सकता है। वहीं, कपड़े से बने पैड्स को डेढ़ से दो सालों तक इस्तेमाल किया जा सकता है। इनमें प्लास्टिक का इस्तेमाल न होने के कारण ये पर्यावरण के लिए भी बेहतर विकल्प होते हैं।
सस्टेनबल मेंस्ट्रुएशन और कचरा प्रबंधन
एक वैश्विक अनुमान के मुताबिक दुनिया में बननेवाले 79 फीसद प्लास्टिक प्रॉडक्ट हमारे पर्यावरण में कचरे के रूप में लैंडफिल्स में जमा होते चले जाते हैं। सिर्फ 9 फीसद प्लास्टिक से बननेवाले प्रॉडक्ट्स को रिसाइकल किया जाता है। इसमें डिस्पोज़बल सैनिटरी नैपकिन भी शामिल हैं। बाज़ार में मिलनेवाले डिस्पोज़बल सैनिटरी नैपकिन को बनाने में प्लास्टिक का इस्तेमाल किया जाता है। इसलिए एक सैनिटरी नैपकिन को नष्ट होने में 500-800 सालों का वक्त लगता है। एक सैनिटरी पैड चार प्लास्टिक बैग के बराबर होता है। केंद्रीय प्रदूषण बोर्ड की साल 2018-19 की रिपोर्ट बताती है कि हर साल 12.3 बिलियन सैनटरी पैड्स हमारे लैंडफिल्स में पहुंचते हैं जो करीब 1,13,000 टन कचरे के बराबर है। रिपोर्ट बताती है कि भारत हर साल 3.3 मिलियन टन प्लास्टिक कचरा पैदा करता है। हालांकि, इसमें मेंस्ट्रुअल वेस्ट का हिस्सा महज 3 फीसद होता है। वॉटरऐड और मेन्स्ट्रअल हाईजीन अलायंस इंडिया की 2018 की एक रिपोर्ट बताती है कि भारत में करीब 336 मिलियन महिलाएं हैं जिनमें सिर्फ 121 मिलियन ही सैनिटरी पैड्स का इस्तेमाल करती हैं। इनमें से 28 फीसद पैड्स को नियमित कचरे में डाला जाता है, 28 फीसद अन्य को खुले में फेंका जाता है, 33 फीसद पैड्स लैंडफिल में पहुंचते और 15 फीसद को खुले में जलाया जाता है।
दिल्ली के छतरपुर इलाके में लोगों के घरों से कचरा इकट्ठा करनेवाले कर्मचारी तोफाज़ खान बताते हैं कि लोग सूखा और गीला कचरा अलग नहीं करते। जहां हम कचरा जमा करने एमसीडी द्वारा तय स्थान पर जाते हैं वहां हमें खुद अपने हाथों से सारी चीज़ों को अलग करना पड़ता है। ऐसा करते वक्त हमें ध्यान भी नहीं रहता कि हम किन ‘गंदी चीज़ों’ को अलग कर रहे हैं।
आंकड़ों पर गौर करें तो मेंस्ट्रुअल वेस्ट हमारे देश में गंभीर समस्या है। मेंस्ट्रुअल वेस्ट मैनेजमेंट की यानि कचरा प्रबंधन भी सस्टेनबल मेंस्ट्रुएशन को लागू करने में एक अहम भूमिका निभाता है। इंडियन सॉलिड वेस्ट रूल्स (2016) मेंस्ट्रुअल वेस्ट की पहचान सॉलिड वेस्ट के रूप में करता है और इसे सैनिटरी वेस्ट के रूप में परिभाषित किया गया है। इसके रूल (4) (b) के मुताबिक सैनिटरी कचरे जैसे पैड्स, डायपर्स, कॉन्डम, टैंपन आदि को सुरक्षित तरीके से प्रॉडक्ट बनाने वाली कंपनी द्वारा मुहैया करवाए गए पाउच या उससे मिलती-जुलती चीज़ों में लपेटकर सूखे कचरे के लिए निर्धारित डस्टबिन में फेंका जाना चाहिए। साथ ही इसमें सैनिटरी प्रॉडक्ट्स बनाने वाली कंपनियों की भी ज़िम्मेदारी तय की गई है। जैसे डिस्पोज़बल प्रॉडक्ट्स बनानेवाली कंपनियों को स्थानीय प्रशासन की कचरा प्रबंधन में आर्थिक सहायता करनी चाहिए। उन्हें एक ऐसा सिस्टम बनाना चाहिए जहां से वे अपने प्रॉडक्ट से पैदा हुए कचरे को इकट्ठा कर सकें। साथ ही उन्हें अपने प्रोडक्ट की पैकेज़िंग पर लोगों को कचरा प्रबंधन के बारे में जागरूक करना चाहिए। वहीं, सरकार की मेंस्ट्रुअल हाईजिन मैनजमेंट गाइडलाइन के मुताबिक सैनिटरी प्रॉडक्ट्स के सुरक्षित निपटान (डिस्पोज़) सेल मतलब है इन चीज़ों को ऐसे डिस्पोज़ करना ताकि ये इंसानों के संपर्क में न आए।
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पढ़ने में तो ये नियम बिल्कुल ही आदर्श नज़र आते हैं लेकिन क्या इन नियमों को लेकर जागरूकता फैलाई जा रही है? क्या सरकार और कंपनियां अपनी ज़िम्मेदारी को पूरा कर रही हैं? इन सवालों का अधिकतर जवाब न में है। उदाहरण के तौर पर मैंने दो सैनिटरी पैड बनाने वाली कंपनियों के पैकेट, ‘विस्पर और सोफ़ी’ पर अंग्रेज़ी में बस यही लिखा हुआ पाया, “इन पैड्स को इस्तेमाल के बाद अच्छे से लपेटकर कचरे के डिब्बे में फेंक दें, फ्लश न करें।” सैनिटरी पैड्स के विज्ञापनों में भी डिस्पोज़ करने के तरीकों पर बात नहीं होती दिखाई पड़ती है। जागरूकता के अभाव का नतीजा यह होता है कि कचरा उठाने में शामिल कर्मचारियों को अपने हाथों ये सैनिटरी वेस्ट को अलग-अलग करना पड़ता है। सफाई कर्मचारियों को मिलने वाले सुरक्षा उपकरण, मेहनताने आदि की असलियत से हम वाकिफ़ हैं। हमारे देश में यह पूरी व्यवस्था जातिवादी है और श्रम के शोषण पर टिकी है। दिल्ली के छतरपुर इलाके में लोगों के घरों से कचरा इकट्ठा करनेवाले कर्मचारी तोफाज़ खान बताते हैं कि लोग सूखा और गीला कचरा अलग नहीं करते। जहां हम कचरा जमा करने एमसीडी द्वारा तय स्थान पर जाते हैं वहां हमें खुद अपने हाथों से सारी चीज़ों को अलग करना पड़ता है। ऐसा करते वक्त हमें ध्यान भी नहीं रहता कि हम किन ‘गंदी चीज़ों’ को अलग कर रहे हैं। तोफाज़ को हर घर से महीने का 70 रुपये मिलता है, भेदभाव अलग। कचरा प्रबंधन सिर्फ नीतियों की बात नहीं है। यहां वर्ग, जाति भी बेहद अहम हो जाती है जो अपने-आप में भारत के संदर्भ में एक वृहद मुद्दा है।
बात संसाधनों तक पहुंच की
इस समस्या का एक ही उपाय नज़र आता है और वह है- सस्टेनबल मेंस्ट्रुअल प्रॉडक्ट्स का इस्तेमाल। लेकिन इन आंकड़ों का दूसरा पहलू भी है। ऊपर जिन आंकड़ों का ज़िक्र किया गया है, उसके मुताबकि 336 में से सिर्फ 121 मिलियिन महिलाएं ही सैनिटरी पैड्स का इस्तेमाल कर रही हैं तो सवाल यह है कि क्या बाकी बची महिलाओं के पास सैनिटरी प्रॉडक्ट्स का कोई साधन मौजूद नहीं है? इसीलिए सस्टेनबल मेंस्ट्रुएशन के साथ-साथ भारत के संदर्भ में पीरियड पोवर्टी पर भी चर्चा ज़रूरी है। नैशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-4 के मुताबिक भारत में 336 मिलियन महिलाएं जिन्हें पीरियड्स होता है, उनमें से 36 फीसद ही सैनिटरी नैपकिन का इस्तेमाल करती हैं। वहीं, नैशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-5 के मुताबिक भारत में अब अधिक संख्या में महिलाएं सुरक्षित महिलाएं मेंस्टुअल प्रॉडक्ट्स का इस्तेमाल कर रही हैं। लेकिन यह भी एक तथ्य है कि बड़ी संख्या में लोग आज भी पुराने कपड़े, राख, सुखे पत्ते का इस्तेमाल करने को मजबूर हैं। गर्दनीबाग, पटना की रहनेवाली बीना (बदला हुआ नाम) बताती हैं कि उनके घर का आर्थिक बजट इतना है कि नहीं कि वह अपने लिए बाज़ार से पैड खरीद सकें। अपनी दो छोटी बच्चियों की ओर इशारा करते हुए कहती हैं कि मुझे चिंता होती है कि जब इनकी माहवारी शुरू होगी तो इन्हें भी मेरी तरह सिलाई से बचे पुराने कपड़े इस्तेमाल करने होंगे। बीना सिलाई का काम करके अपने घर का गुज़ारा करती हैं। पति का रोज़गार छिन जाने के बाद यह काम उन्होंने लॉकडाउन में शुरू किया। यह पूछने पर कि क्या उन्हें पता है कि वह सूती कपड़े से बने पैड्स बना सकती हैं। वह शर्माते हुए कहती हैं, “अब ब्लाउज़ की जगह घर में ‘ऐसी चीज़ें’ कौन सिलने देगा मुझे।”
पीरियड्स और उससे जुड़े मुद्दे को नीतियों और योजनाओं ने भी हमेशा से सिर्फ ‘महिला मुद्दे’ के रूप में सीमित रखा है जबकि इसे एक जन स्वास्थ्य का मुद्दा माना जाना चाहिए। ऐसे ज़रूरी कदमों को अमल में लाए बिना सस्टेनबल मेंस्ट्रुएशन पर चर्चा भारत के संदर्भ में बेअसर नज़र आती है।
बीना की चिंता बिल्कुल जायज़ है और ‘ऐसी चीज़ों’ को लेकर उनकी शर्म भी। संसाधनों की कमी के अलावा पीरियड्स के साथ जुड़ा शर्म और टैबु सस्टेनबल मेंस्ट्रुएशन को और अधिक चुनौतीपूर्ण बनाता है। दसरा नाम की एक स्वयंसेवी संस्था की साल 2014 की रिपोर्ट बताती है कि सैनिटरी प्रॉडक्ट्स की कमी और पीरियड्स पर जागरूकता के अभाव में भारत में करीब 23 मिलियन (2.3 करोड़) बच्चियां स्कूल छोड़ देती हैं। रिपोर्ट यह भी कहती है कि सर्वे में शामिल 70 फीसद माएं पीरियड्स को गंदा मानती हैं और 71 फीसद किशोरियों को पीरियड्स के बारे में कुछ पता ही नहीं होता। सस्टेनेबल मेंस्ट्रुएशन के विमर्श को आम लोगों तक ले जाने के लिए सबसे पहले ज़रूरी है शर्म को खत्म करने की। साथ ही पीरियड पोवर्टी की समस्या जब तक बनी रहेगी लोग ईको-फ्रेंडली प्रॉडक्ट कैसे इस्तेमाल करेंगे। ईको-फ्रेंडली प्रॉडक्ट का इस्तेमाल भारत में फिलहाल विशेषाधिकार प्राप्त लोगों की पहुंच तक ही सीमित नज़र आता है।
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संसाधनों की पहुंच की कमी को दूर करने में सरकार की सबसे बड़ी और ज़रूरी भूमिका है। सरकारों की यह ज़िम्मेदारी होनी चाहिए कि वह सस्ती दरों या मुफ्त में पीरियड्स प्रॉडक्ट्स लोगों तक पहुंचाए। इसके लिए केंद्र और राज्य स्तर पर योजनाएं तो हैं पर इन योजनाओं के सही क्रियान्वयन की चुनौती हमेशा बरकरार रहती है। साथ ही ये योजनाएं अभी तक सैनिटरी पैड्स के विमर्श तक ही सीमित हैं। इनमें ईको-फ्रेंडली प्रॉडक्ट्स नहीं शामिल हैं जबकि ये प्रॉडक्ट्स पैड्स के मुकाबले कम खर्चीले साबित हो सकते हैं। सरकार ने जन औषधी सुविधा सैनिटरी नैपकिन के तहत 1 रुपये में बायोडेग्रेडबल सैनिटरी नैपकिन बांटने की योजना तो शुरू की पर सही तरीके से लागू न हो पाने के कारण इसकी आलोचना भी हुई। कई रिपोर्ट्स बताती हैं कि इन केंद्रों पर सैनिटरी पैड्स की कमी देखी पाई गई। साथ ही, पीरियड्स में न सिर्फ सैनिटरी प्रॉडक्ट्स बल्कि कई अन्य मूलभूत सुविधाओं की भी ज़रूरत होती है। इनमें से दो सबसे ज़रूरी चीज़ें हैं साफ पानी और शौचायल। स्कूलों में शौचालय की सुविधा न होने के कारण बड़ी संख्या में किशोर बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं। इसी साल केंद्रीय शिक्षा मंत्री रमेश पोखरयाल ने जानकारी दी थी कि हमारे देश के 15 हज़ार स्कूलों में टॉइलेट्स है ही नहीं है और 42,000 स्कूलों में पानी की व्यवस्था। इन सुविधाओं का होना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि सैनिटरी पैड को बदलने के लिए, कपड़े से बने पैड्स को धोने, सुखाने और मेंस्ट्रुअल कप को खाली कर दोबारा इस्तेमाल करने के लिए शौचायल और पानी बेहद ज़रूरी है।
ध्यान देनेवाली बात यह भी है कि इस पूरे आंकडे, सर्वे, विमर्श से ट्रांस समुदाय गायब नज़र आता है। पीरियड्स से जुड़ी समस्याओं पर बात जाति, वर्ग, जेंडर आदि के आधार नहीं होती। जब तक समस्याओं की पहचान इन आधारों पर नहीं होगी, जब तक इस विमर्श को समावेशी नहीं बनाया जाएगा तब तक इस समस्या का कोई समाधान नहीं होगा। इसके साथ ही ईको-फ्रेंडली प्रॉडक्ट्स के इस्तेमाल की ज़िम्मेदारी का विमर्श अभी भी हमारे देश में व्यक्ति विशेष के स्तर पर ही सीमित है। ज़रूरत है कि सरकार पीरियड्स से जुड़ी योजनाओं में इस संदर्भ को शामिल करें। सरकार सस्ती दरों पर या मुफ्त लोगों तक सैनिटरी प्रॉडक्ट्स की पहुंच सुनिश्चित करे। साथ ही साथ बड़े स्तर पर इनके इस्तेमाल, इन्हें नष्ट करने के तरीकों पर जागरूकता फैलाई जाए। सफाई कर्मचारियों की सुविधाओं, उनकी सुरक्षा को महत्ता दी जाए। सैनिटरी प्रॉडक्ट बनाने वाली कंपनियों की जवाबदेही तय किए जाने की ज़रूरत है। पीरियड्स और उससे जुड़े मुद्दे को नीतियों और योजनाओं ने भी हमेशा से सिर्फ ‘महिला मुद्दे’ के रूप में सीमित रखा है जबकि इसे एक जन स्वास्थ्य का मुद्दा माना जाना चाहिए। ऐसे ज़रूरी कदमों को अमल में लाए बिना सस्टेनबल मेंस्ट्रुएशन पर चर्चा भारत के संदर्भ में बेअसर नज़र आती है।
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तस्वीर साभार: मुहीम : ‘एक सार्थक प्रयास’