एक महिला के रूप में अमूमन हर दिन हम ऐसे मुद्दों से जूझते हैं, जिनके मूल में पितृसत्त्ता है। घरेलू कामकाज से लेकर कार्यस्थल, सड़क पर चलते हुए, बाज़ार में सामान की खरीदारी करते हुए या अन्य सभी तरह के घटनाक्रमों में संलग्न होने के दौरान महिलाएं महसूस करती हैं। पैदा होने और बढ़ने के क्रम में लड़कियों और लड़कों के पालन-पोषण से लेकर पढ़ाई के लिए मिले अवसरों और नौकरियों में महिलाओं की भागीदारी के हालिया आंकड़ों को देखकर मौजूद भेदभाव और शोषण की पुष्टि की जा सकती है। इस स्थिति में, स्त्री शोषण और भेदभाव को कम करने के लिए इसपर संवाद करना और पितृसत्त्ता की अवधारणा के ख़िलाफ़ आम समझ बनाना एक बुनियादी ज़रूरत है। अब इसमें यह देखना अहम हो जाता है कि संवाद और बातचीत के इन मंचों पर क्या औरतें अपनी बात रख पा रही हैं, क्या ये मंच समतावादी हैं और स्त्री द्वेष-मुक्त वातावरण तैयार करने में प्रयासरत हैं जिससे कि आने वाले समय में इन मंचों और यहां होने वाली बहसों के आलोक में मुख्यधारा में एक सकारात्मक बदलाव की उम्मीद की जा सके। यह लेख इसी सवाल की पड़ताल करता है, जिसमें मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय के अलग-अलग महाविद्यालयों की उन औरतों के अनुभवों के माध्यम से एक ठोस निष्कर्ष निकालने की कोशिश की है, जो वाद-विवाद और संवाद के इन स्पेसेज़ में संलग्न रही हैं।
इस बहस में उतरने से पहले विश्वविद्यालय, उनमें होने वाली बहसों और समाज में उनकी प्रासंगिकता पर बात कर लेना अहम है। दरअसल, विश्वविद्यालय किसी भी समाज की वैचारिकी-निर्माण प्रक्रिया के प्रमुख संस्थान होते हैं। मशहूर लिटरेरी क्रिटिक टेरी ईगलटन कहते हैं कि विश्वविद्यालय की भूमिका न्याय, परंपरा, मानव कल्याण, स्वतंत्र चिंतन और भविष्य को लेकर एक वैकल्पिक दृष्टि खोजने की होनी चाहिए, यथास्थितिवाद को संरक्षित करना उनका उद्देश्य नहीं होना चाहिए। इस प्रकार विश्वविद्यालय में होने वाली बहसों और टीवी पर होने वाली बहसों में एक बड़ा और महत्वपूर्ण अंतर होता है। विश्वविद्यालयों की बहसों में समाज की अलग-अलग परतों के अध्ययन और अनुभवों का आलोचनात्मक चिंतन किया जाता है और एक बेहतर निष्कर्ष की ओर जाना निहित मूल्य होता है। यह संस्कृति असल में इस संभावना को बचाकर रखती है कि समाज में एक वृहद बदलाव लाया जा सकता है।
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इसे दूसरी तरह समझते हैं। समाज का एक अपेक्षाकृत छोटा तबका है, जो स्कॉलर होता है और अध्ययन एवं शोध के बाद बहसों के माध्यम से यथास्थितिवाद के ख़िलाफ़ एक राय रखता है। वहीं, दूसरी ओर एक बड़ा तबका है जो इन बहसों को सुनता है, शोध की प्रक्रिया में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष ढंग से शामिल होता है और फिर स्कॉलर के विचार से सहमत-असहमत होता है। अब इसमें तीसरी अहम बात यह है कि विश्वविद्यालयों में चलने वाली इन बहसों का चरित्र क्या है, क्योंकि जब हम बदलाव की बात करते हैं, तो वह केवल राजनीतिक धरातल पर नहीं बल्कि व्यापकता में मौजूद मसलों जैसे पितृसत्त्ता, जाति, वर्ग को सम्मिलित करता है। इसलिए, जब हम विश्वविद्यालय में होनेवाली बहसों पर कोई राय बनाना चाहेंगे तो देखना महत्वपूर्ण होगा कि ये बहसें इन सभी मुद्दों को एकनॉलेज करती भी हैं या नहीं। इसे तीन स्तरों पर समझते हैं:
1- प्रतिभाग- प्रतिनिधित्व और मेरिट का आइडिया
विश्वविद्यालय की बहसों में शामिल होकर अलग-अलग मुद्दों पर अपना पक्ष रखने और एक समझ बनाने का अवसर उन्हें मिलेगा, जो अपना प्रतिनिधित्व दर्ज कर पाएंगे। लेकिन, यहां एक पूर्व निर्धारित मेरिट का आईडिया लागू कर दिया गया है जो रूढ़ मानकों के आधार पर यह मानता है कि कुछ लोग ही अच्छे डिबेटर हैं और उन्हें ही प्रतिनिधित्व का मौका मिलता है। ये अच्छे डिबेटर कौन हैं? ये वे प्रिविलेज्ड लोग हैं, जिनके पास संसाधन रहे और उसी के दम पर उनकी भाषा, समझ, तर्क-वितर्क का कौशल विकसित हुआ यानि जाति-वर्ग-लिंग-धर्म के प्रिविलेज के कारण उनकी स्कूलिंग अच्छी हुई, किताबें पढ़ने, सीखने समझने के अवसर अधिक मिले। इसके बरक्स वे लोग हैं जो सामाजिक-आर्थिक स्तर पर पिछड़े हैं, जिनके सामने खाने-जीने-अस्तित्व बचाने का संकट बना रहा। वे ऐसे स्कूलों में पढ़े जहां लाइब्रेरी और अन्य संसाधनों की उपलब्धता नहीं रही। ऐसे में इतने लंबे अंतर को नज़रंदाज़ करके दोंनो का मुक़ाबला करवाना और यह तय करना कि फलां व्यक्ति अयोग्य है, दिखाता है कि समाज में मौजूद अंतरों को लेकर कोई समितियों और सर्किट में कोई गंभीरता नहीं है। यहां ध्यान देने लायक बात है कि मेरिट के मानक जो कि भाषा-शैली या कुछ ख़ास तथ्यों की जानकारी तक सीमित हैं, वे भी प्रिविलेज्ड समूह को ही फ़ेवर करते हैं।
इस तरह साल दर साल चल रही यह प्रक्रिया असल में हमारी सांस्थानिक विफलता ही है, जिसके चलते समाज मे मौजूद इस बड़े अंतर को हम एकनॉलेज नहीं कर रहे हैं और अकादमिक स्तर पर असमान और असंवेदनशील माहौल तैयार करते जा रहे हैं, जिसमें हमेशा कोई ‘भईया’ ही सबसे अच्छे डिबेटर माने जाएंगे, पुरुष ही कार्यकारिणी में नियंत्रक की भूमिका में होगा, हर डिबेट में कोई ‘सर’ ही मुख्य निर्णायक अथवा ‘चेयर’ होंगे। इस बारे में बात करते हुए ज़ाकिर हुसैन दिल्ली कॉलेज की अध्यक्ष नसरीन बताती हैं, “अध्यक्ष की भूमिका में पुरुष और स्त्री को लेकर लोगों के अलग अलग रुख होते हैं। एक ओर जहां उनसे पहले इस पद पर रहे पुरुषों के निर्णयों को सीधे तौर पर स्वीकृति मिल जाती थी, वहीं एक महिला के रूप में उनकी बातें-निर्णय उतनी आसानी से स्वीकार नहीं किए गए।”
विश्वविद्यालय की बहसों में शामिल होकर अलग-अलग मुद्दों पर अपना पक्ष रखने और एक समझ बनाने का अवसर उन्हें मिलेगा, जो अपना प्रतिनिधित्व दर्ज कर पाएंगे। लेकिन, यहां एक पूर्व निर्धारित मेरिट का आईडिया लागू कर दिया गया है जो रूढ़ मानकों के आधार पर यह मानता है कि कुछ लोग ही अच्छे डिबेटर हैं और उन्हें ही प्रतिनिधित्व का मौका मिलता है।
दरअसल, अंतर्निहित पितृसत्त्ता के कारण न केवल पुरुष बल्कि कई बार महिलाएं भी ऐसा मानती हैं कि औरतें पुरुषों से कमतर हैं। पुरुष अपनी सत्ता स्थापित करने के लिए हमेशा अपने उदार होने, अप्रोचेबल होने और सपोर्टिव होने का दिखावा करके लोगों को लुभाने की कोशिश करते हैं। मिरांडा हाउस की ऐश्वर्य अपना अनुभव साझा करते हुए बताती हैं कि कॉलेज के पहले साल में वह कहीं डिबेट कर रही थीं, तभी एक ‘भईया’ ने उनसे कहा कि वह ऑडिटोरियम के बाहर उनसे किसी भी तरह की मदद के लिए मिल सकती हैं, जबकि ऐश्वर्य ने किसी से भी मदद नहीं मांगी थी। इस प्रवृत्ति को वह पावर डॉयनेमिक्स से जोड़ते हुए बताती हैं कि सीनियर-पॉपुलर पुरुष चेहरों की ओर से ऐसे अप्रोच कॉलेज के पहले-दूसरे साल के डिबेटर्स के लिए बहुत इंटीमीडेटिंग होते हैं, अनुक्रम (हायरार्की) में ऊंचे पुरुष द्वारा ऐसे प्रयास न केवल आपकी ‘फ्री थिंकिंग’ को अवरुद्ध करते हैं बल्कि समूची प्रक्रिया ‘मैन्सप्लेनिंग’ तक सीमित हो जाती है। वह बताती हैं कि ऐसे मामलों में कई बार चाहते हुए भी औरतें ‘ना’ नहीं कर पातीं हैं क्योंकि डिबेटिंग सर्किट में ‘भईया समूह’ का नेटवर्किंग और लॉबीइंग का खेल चलता है और विरोध करने वाली महिलाएं इस नेक्सस का सामना करती हैं।
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2- वाद विवाद के मुद्दे और उनमें निहित रूढ़िवाद
बीती वर्ष 3 फ़रवरी 2020 को आत्मा राम सनातन धर्म कॉलेज के इतिहास विभाग द्वारा एक वाद-विवाद प्रतियोगिता आयोजित हुई जिसका विषय था: “अच्छे/इज़्ज़तदार परिवारों की महिलाएं घरों से बाहर नहीं निकलतीं।” दरअसल, यह अकबरनामा से लिया गया एक कथन है। समझिए कि दुनिया भर में औरतों के ख़िलाफ़ मौजूद शोषण-भेदभाव के इतिहास को देखते हुए एकेडमिया में इन विषयों पर बहसें होते देखना ‘ट्रिगरिंग’ है। इसलिए कि पक्ष का वक्ता आकर महिलाओं के बाहर निकलने की तमाम खामियां गिनवाकर जाएगा, अच्छी और बुरी औरत की बाइनरी बनाएगा। वह आसानी से आकर पितृसत्तात्मक आचरणों का सामान्यीकरण कर जाएगा और आप कुछ नहीं कर सकते। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या हमारी वैचारिक चेतना बिल्कुल शून्य हो चुकी है कि हम ऐसी दलीलों को स्वीकार कर रहे हैं। वह भी अब जब इतने सालों की लड़ाई के बाद धीरे-धीरे औरतें अपने लिए रास्ते बना रही हैं, बाहर निकलने के लिए लड़ रही हैं। क्या अब सदनों में इस पर बहसे होंगी कि इस देश मे दलितों का शोषण हुआ है या नहीं या महिलाएं भेदभाव की शिकार हैं या नहीं या सती प्रथा महिला विरोधी है या नहीं, क्योंकि मैं दावे के साथ कह सकती हूं कि दिल्ली यूनिवर्सिटी के धुरंधर उसे भी सही बताते हुए पुरस्कार जीत ले जाएंगे।
डिबेट्स में विषयों में निहित मेलगेज़ और सेक्सिज़्म पर बात करते हुए जेएनयू में अध्ययनरत, लेडी श्री राम कॉलेज की पूर्व छात्रा रही स्मिति डिबेटिंग अपने अनुभवों एक को साझा करते हुए बताती हैं कि विषय था- ‘पॉर्न फ़िल्म शूट करते हुए कॉन्डम का इस्तेमाल होना चाहिए या नहीं।’ इस प्रतियोगिता के निर्णायक LLM कर रहे थे और उन्होंने प्रतियोगिता दूसरे पक्ष (यानी जो कह रहा है कि कॉन्डोम का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए) को सही ठहराते हुए उसके जीतने का कारण बताते हुए कहा कि ‘इजैक्युलेशन (Ejaculation) एक ही तरह से नहीं होता। कई बार पुरुष लिंग को योनि से बाहर निकाल कर इजैक्यूलेट करता है, इसीलिए कॉन्डम का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए।’ आप इन (कु) तर्कों को देखिए। डीयू सर्किट में इसी तरह के (कु) तर्कों पर बहसें जीत ली जाती हैं। स्मिति आगे बताती हैं कि एक अन्य प्रतियोगिता में उनके सामने जो विषय आया उसमें उनके पक्ष से अपेक्षित था कि वे ‘मैरिटल रेप का अपराधीकरण (क्रिमिनालिज़ेशन) नहीं होना चाहिए’ का विचार लेकर चलें। यह विषय, जो एक झटके में महिलाओं के अनुभवों को ग़लत ठहरा देता है, उस पर बहस रखना और करवाना साबित करता है कि इन पुरुषों में संवेदनशीलता-धरातल की सच्चाई को लेकर थोड़ी सी भी जागरूकता नहीं है। यह भी समझिए कि ऐसा कभी-कभी नहीं होता बल्कि अक्सर ही आपका सामना ऐसे विषयों से होता है जो स्त्रीद्वेषी नज़रिए से भरे होते हैं। एक अन्य विषय था- “शार्ट स्कर्ट भारतीय संस्कृति के ख़िलाफ़ है।” स्मिति बताती हैं कि जब उन्होंने निर्णायक मंडल में जाकर इस विषय के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई तो कहा गया, “अरे यह तो मज़ाक है” यानि वाद-विवाद समितियों के निर्णायक मज़ाक करने के लिए ‘स्त्रीद्वेष’ का सहारा लेते हैं।
दरअसल, ऐसे विषयों के पीछे जाकर देखें तो समझ मे आता है कि यह ‘मेल गेज़’ की उपज हैं। पुरुष समाज को ऐसे ही देखता है। वह बड़े आराम से मैरिटल रेप को यह कहकर खारिज़ कर चलता बनेगा कि ”शाम को सम्भोग किया, सुबह आरोप लगा दिया कि रेप था, क्या करोगे।” इस तरह के (कु)तर्कों और विषयों की बहुतायत इसलिए है कि वाद-विवाद समितियों से लेकर निर्णायक मंडल तक में पुरुषों की बहुलता है। विषय बनाने में भी पुरुषों की ही बहुसंख्या है, इसीलिए उनका नज़रिया हावी होता है। इस बारे में ऐश्वर्य बताती हैं कि महिला कॉलेजों में स्थितियां अलग हैं। हालांकि वहां भी कई बार समाज से कंडीशन्ड गेज़ जो कि पितृसत्तात्मक होती है, मौजूद रहती है लेकिन वहां एक प्रक्रिया में औरतें लर्निंग और अनलर्निंग से गुज़रती हैं और अपनी दृष्टि निर्मित करती हैं। इसीलिए वे विषयों, निर्णायक मंडल में जेंडर के आधार पर संतुलन और अन्य कारकों जो महिलाओं को वाद-विवाद में प्रतिभाग करने से रोकते हैं, को एकनॉलेज करती हैं। मसलन बाथरूम का मसला या देर तक प्रैक्टिस करने के समय से संबंधित समस्या। को-एड कॉलेजेस में यह नज़रिया आपको नहीं मिलेगा।
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मेरिट के भेदभावपूर्ण आईडिया को डीकन्सट्रक्ट करके एक ऐसा स्पेस तैयार करना डिबेटिंग सोसाइटीज़ की ज़िम्मेदारी है, जो समावेशी हो और सभी को सीखने-समझने और अपनी बात रखने का अवसर दें।
3- निर्णय की प्रक्रिया और स्त्रीद्वेष
स्मिति कहती हैं कि तीन साल तक डिबेट करने की प्रक्रिया में उनका सामना ‘वीयर्डली कॉम्पिटिटिव मर्दों’ से हुआ। वे यह स्वीकारना नहीं चाहते कि कोई औरत उनसे बेहतर है। अपने से बेहतर महिलाओं को वे ‘साइड लाइन’ करना चाहते हैं और बड़ी आसानी से आपसी तालमेल बनाकर ऐसा कर भी लेते हैं। घरेलू बंदिशों और सर्किट के इस माहौल के कारण बहुत-सी महिलाएं डिबेटिंग छोड़ देती हैं। इस तरह डिबेटिंग सर्किट में पुरुषों का बोलबाला हो जाता है। वे ही निर्णायक बनते हैं और अपनी इच्छानुसार कभी-कभी एक या दो महिलाओं को निर्णायक के रूप में ‘टोकन’ की तरह बुलाते हैं।
लेडी श्री राम कॉलेज की पूर्व छात्रा और वर्तमान में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के रूप में कार्यरत नैंसी भी स्मिति की इस बात से सहमत होती हैं और आगे बताती हैं कि असल में डिबेटिंग सर्किट में पुरुष और स्त्री के प्रति व्यवहार में एक बड़ा अंतर है। जहां एक पुरुष सीनियर होने भर से ही ‘भईया’ की पहचान व सम्मान प्राप्त कर लेता है। वहीं औरतों को डिबेट जीतने पर भी उचित सम्मान और अहमियत नहीं मिलती है। वह मानती हैं कि निर्णायक के रूप में स्त्री-पुरुष के साथ लोगों का व्यवहार अलग होता है। लगातार वाद-विवाद में संलग्न समितियां भी समाज में जेंडर की भेदभावपूर्ण सोच से उबर नहीं पाई हैं और अभी भी ‘योग्यता’ के पायदान पर वे पुरुषों को ऊंचा रखते हैं। अमूमन जब भी विषयों पर बात करनी हो या कोई विषय बनाना होता है, हमेशा पुरुषों की सलाह ली जाती है यानी इंटेलेक्चुअल लेबर के लिए हमेशा पुरुष योग्य और भरोसेमंद है, वहीं औरतें (जो हमेशा एक या दो की संख्या में होती हैं) उनसे टीम-मैचअप इत्यादि के विषय में सलाह ली जाती है। वह कहती हैं कि निर्णायक से असहमत होने पर असहमति दर्ज करने के तरीके में भी जेंडर के आधार पर भिन्नता होती है। उनके निर्णय से असहमत होने पर प्रायः पुरुष फिज़िकल अग्रेशन दिखाते हुए चीखने-चिल्लाने पर उतर जाते हैं और उनका टोन इंटीमीडेटिंग हो जाता है। वही पुरुष निर्णायक के प्रति उनका व्यवहार ऐसा नहीं होता।
सर्किट में आयोजित होने वाली प्रतियोगिताओं में निर्णायक मंडल में मौजूद लैंगिक असमानता पर बात करते हुए ऐश्वर्य कहती हैं कि कैसे ‘भईया समूह’ हमेशा ‘रिलेवेंट’ बने रहने के लिए पर्सनल बॉन्ड और चाटुकारिता का सहारा लेते हैं और चाटुकारिता करने और करवाने’ की प्रक्रिया से गुजरकर ये लोग ‘फेमस’ बनते हैं। इसके उलट महिलाओं को हमेशा अलग-थलग कर दिया जाता है, उन्हें मेंटरिंग या निर्णायक की भूमिका के लिए भी अप्रोच नहीं करते क्योंकि पुरुष समूह हमेशा अपनी लॉबीइंग और नेटवर्किंग के चलते अपने आप को अधिक बेहतर और अप्रोचेबल दिखाता है। वह एक और बात पर ज़ोर देती हैं कि वाद-विवाद के पूरे स्पेस को पुरुष अपने निजी हितों के लिए इस्तेमाल करना चाहता है, इसीलिए समय मिलते ही वे लोग समूह बनाकर गप्प मारते हैं, बजाय इसके कि विषय पर चर्चा- परिचर्चा और एक समझ बनाकर वाद-विवाद के व्यापक दृष्टिकोण को समझने जाए। असल में, यह फैक्टर विषयों में निहित सेक्सिज़्म का भी एक कारण है क्योंकि महिलाएं कम या न के बराबर होती हैं, इसलिए बड़े आराम से पुरुष अपनी दृष्टि और नज़रिए को थोपकर मनमाने ढंग से वाद विवाद करता और करवाता है। कई बार प्रोटेस्ट के रूप में महिलाएं इसे छोड़ती और नकारती भी हैं लेकिन पुरुष-समूह अपने आप में इतना मशगूल होता है उसे फर्क भी नहीं पड़ता। हां, ऐसा करने वालों को ‘हाइपर फेमिनिस्ट’ कहकर ज़रूर उन्हें निशाने पर लिया जाता है और उसका नुकसान उन्हें और दूसरी औरतों को आगे की डिबेट्स में भुगतना पड़ता है।
विश्वविद्यालय और वाद-विवाद-संवाद का स्पेस बहुत विस्तृत है। इसके सारे आयामों पर चर्चा करना और प्रत्येक पक्ष को शामिल कर पाना आसान नहीं है। फिर भी इन महिलाओं से संवाद करते हुए और अपने अनुभवों को शामिल करके वाद-विवाद सर्किट में मौजूद स्त्रीद्वेष, भेदभाव और अलग-थलग करने वाली प्रवृत्ति को समझाने की कोशिश की है। यहां की समितियों की संरचना में कई बड़े लूपहोल हैं, जो धरातल की सच्चाई को एकनॉलेज नहीं करते हैं। यह समस्या दोनों ही जगहों यानी को-एड और ऑल वीमेंस कॉलेज में मौजूद है। मेरिट के भेदभावपूर्ण आईडिया को डीकन्सट्रक्ट करके एक ऐसा स्पेस तैयार करना डिबेटिंग सोसाइटीज़ की ज़िम्मेदारी है, जो समावेशी हों और सभी को सीखने-समझने और अपनी बात रखने का अवसर दें। ऐसा नहीं है कि औरतें इनका विरोध नहीं करती हैं, लेकिन समस्याएं साल दर साल इसलिए बनी हुई हैं क्योंकि सर्किट में मौजूद स्त्रीद्वेष और पितृसत्त्ता को समझने में ही महिलाओं को दो से तीन साल लग जाते हैं और इस पूरी प्रक्रिया में वे कई बार हताश हो जाती हैं। इसी बीच, पितृसत्त्ता अपनी सोची समझी चाल के तहत औरतों को दूसरी औरतों के ख़िलाफ़ खड़ी करती है और अक्सर ही मिरांडा की लड़कियां-LSR की लड़कियां “ऐसी हैं” की धारणा बनाती है जिससे उसकी सत्ता बनी रहे पुरुष इन्हीं महिला-विरोधी विषयों पर बहस करते हुए पुरस्कार जीतते रहें। इसके लिए औरतों को लगातार प्रयास करने होंगे, इस प्रक्रिया में सिस्टरहूड का एक स्पेस बनाना होगा जो डिबेटिंग तक ही सीमित न हो, बल्कि उसके परे हो और महिलाएं एक दूसरे से अपनी बात-अपने मुद्दे कह सुन सकें और एक साथ आकर पितृसत्त्ता के ख़िलाफ़ आवाज़ उठा सकें, उसके बाद ही यह उम्मीद की जा सकती है कि सर्किट में भेदभावपूर्ण और स्त्रीद्वेष मुक्त माहौल बन सकता है।
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तस्वीर साभार : DU Beat
Much love Gayatri di.