समाजखेल लैंगिक भेदभाव को खत्म करने में अहम भूमिका निभा सकते हैं खेल

लैंगिक भेदभाव को खत्म करने में अहम भूमिका निभा सकते हैं खेल

ओलंपिक खेलों को लेकर हम लोगों के स्कूल में टीचर इसे अक्सर खेल का सबसे ऊंचा पहाड़ बताते थे। वह कहते कि इस खेल में जीतना किसी भी खिलाड़ी की ज़िंदगी की सबसे बड़ी उपलब्धि होती है। इस साल टोक्यो में ओलंपिक खेल शुरू हो गए है और भारत की भारोतोलक मीराबाई चानू ने रजत पदक जीतकर, अपने देश का मान-सम्मान अंतरराष्ट्रीय मंच पर बढ़ा दिया है। वहीं, भारतीय फेंसर भवानी देवी ने भी शानदार प्रदर्शन किया। शुरुआत से ही ओलंपिक खेलों में भारतीय महिलाओं का शानदार प्रदर्शन वाक़ई गर्व की बात है। वैसे तो मैंने कभी तो खेल प्रतिस्पर्धा में भाग नहीं लिया। मैंने ही क्या मेरे साथ में पढ़ने वाली किसी भी लड़की ने कभी किसी खेल में हिस्सा नहीं लिया और ये कोई चौंकने वाली बात भी नहीं रही क्योंकि उत्तर प्रदेश के बनारस से दूर जिन ग्रामीण क्षेत्रों में मैं पली-बढ़ी और पढ़ाई की वहां लड़कियों का खेलना बुरा समझा जाता रहा है। ऐसे माहौल में अपनी ज़िंदगी का आधा हिस्सा गुज़ारने के बाद जब ओलंपिक में महिला खिलाड़ियों की जीत देखती हूं तो सच में ये किसी बड़े पहाड़ को पार करने जैसा ही लगता है।

बेशक ये महिलाएं अपने-अपने खेल की बेजोड़ खिलाड़ी हैं, क्योंकि इन्होंने समाज की दकियानूसी सोच का पहाड़ पार कर लिया है। वह सोच जो लड़कियों कि ज़िंदगी सिर्फ़ चूल्हे और घर में सीमित होकर देखती है। यूं तो ओलंपिक खेलों में हर साल महिला खिलाड़ियों की भागीदारी बढ़ रही है, जो एक अच्छी बात है लेकिन जब मैं अपने आस-पास के गांव में लड़कियों को खेल-क्षेत्र में बढ़ावा देने या उनकी भागीदारी का हिस्सा देखती हूं तो ओलंपिक में खेलती ये महिला खिलाड़ी किसी और ग्रह की लगने लगती हैं। इसे आप मेरी सीमित समझ भी कह सकते हैं, लेकिन मैं ये बात अपने अनुभव के आधार पर कह रही हूं।

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गांव में दलित (मुसहर) समुदाय की बच्चियों को पढ़ाने के दौरान मैं हमेशा उन्हें खेल के लिए प्रोत्साहित करने की कोशिश करती हूं जो मुझे इन बच्चियों को पढ़ाने से ज़्यादा चुनौतीपूर्ण काम लगता है। समाज के बनाए जेंडर के ढांचे में ढली छोटी उम्र की लड़कियां भी खेल का नाम सुनते ही समाज की बताई आदर्श महिला की तरह व्यवहार करने लगती हैं और कई बार उन्हें ऐसा व्यवहार करने के लिए मजबूर किया जाता है। बहुत मेहनत के बाद अब धीरे-धीरे ये बच्चियां खेलने के लिए तैयार हो रही हैं, लेकिन अभी भी उनके खेल के प्रकार या दायरे बहुत सीमित हैं। जैसे, लड़कियां बैठकर खेलने वाले में खेल में ज़्यादा रुचि रखती हैं। उन्हें भागने-दौड़ने वाले या फिर ख़ुद को और अपने विचारों को प्रस्तुत करने वाले खेल पसंद नहीं आते। इतना ही नहीं, वे खेल में जिसमें ग़लतियां होने या हारने का डर ज़्यादा हो, उसे वे सीधे से ना कह देती हैं।

समाज के बनाए जेंडर के ढांचे में ढली छोटी उम्र की लड़कियां भी खेल का नाम सुनते ही समाज की बताई आदर्श महिला की तरह व्यवहार करने लगती हैं और कई बार उन्हें ऐसा व्यवहार करने के लिए मजबूर किया जाता है।

खेल इंसान के न केवल शारीरिक बल्कि मानसिक स्वास्थ्य के विकास में भी अहम भूमिका अदा करता है। जब कभी भी खेल को लड़कियों के संदर्भ में देखती हूं तो ये लगता है कि लड़कियों का खेलना जैसे सीधेतौर पर समाज की संकीर्ण पितृसत्तात्मक सोच को चुनौती देना है क्योंकि खेल में लड़कियां समाज के नहीं बल्कि खेल के नियम पर चलती हैं। उनका पहनावा, व्यवहार और गतिविधि सब खेल के अनुसार होती है। उन पर न तो इज़्ज़त का बोझ होता है और न हारने का डर। शायद इसीलिए बचपन से लड़कियों को खेलने की बजाय घर के काम या फिर घर के काम को सिखाने वाले गुड्डे-गुड़ियों की शादी वाले खेल के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।

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ग्रामीण क्षेत्रों में लगातार लड़कियों और महिलाओं के साथ काम करते हुए यह महसूस किया है कि लड़कियों का खेल क्षेत्र में आगे बढ़ना बुरा माना जाता है। इसके लिए इज़्ज़त-लाज वाले नियम तो है ही साथ ही अलग-अलग भ्रांतियां भी हैं। बेनीपुर नाम के गांव की रहने वाली शिवानी (बदला हुआ नाम) एक धाविका रही है। उन्होंने ज़िला स्तर के खेल में हिस्सा भी लिया, लेकिन वहां हारने के बाद उन्होंने दौड़ना छोड़ दिया। इसकी वजह जानने के लिए जब मैंने उनसे बात की तो उन्होंने बताया, “गांव में लड़की का खेल के क्षेत्र में आगे बढ़ना बहुत मुश्किल रहता है, ख़ासकर अपने उत्तर भारत के क्षेत्र में। मुझे पापा हमेशा सहयोग करते थे, लेकिन जब मैं स्कूल-कॉलेज जाने लगी तो मेरी दोस्त नहीं बनती थी, क्योंकि उनके घर में उन्हें मुझसे दोस्ती करने से मना किया जाता था। गांववालों के अनुसार मैं मनबढ़ और बुरी लड़की थी, क्योंकि मैं रोज़ सुबह हाफ़ पैंट पहनकर घंटों दौड़ने जाती थी और इसके लिए मेरे पापा मेरा सपोर्ट करते थे। बहुत मुश्किल से मेरी एक दो दोस्त बनी और जब मैं ज़िला लेवल पर हारी तो मेरा बहुत मज़ाक़ बनाया गया। इसलिए मैंने ये खेल ही छोड़ दिया।”

शिवानी के खेल छोड़ने के बाद जब भी कोई लड़की किसी खेल में आगे बढ़ने की बात करती है तो हमेशा शिवानी का हार का उदाहरण दिया जाता है। लड़कियों के खेल के क्षेत्रों में आगे बढ़ने में उनका परिवेश भी बहुत मायने रखता है। अधिकतर लड़कियां न चाहते हुए भी किसी भी खेल से कदम पीछे खींच लेती हैं क्योंकि उनको बताए ‘अच्छी लड़की’ के खांचे में खेलना मना है। लेकिन अब इस खांचे को बदलने की ज़रूरत है और ग्रामीण क्षेत्रों में भी लड़कियों को खेल की दिशा में प्रोत्साहित करने की ज़रूरत है, क्योंकि खेल न केवल समाज की छोटी सोच बल्कि लैंगिक भेदभाव की गहरी जड़ों को उखाड़ फेंकता है और इस बदलाव की शुरुआत हमें अपने घर और स्कूल से करनी होगी, लड़कियों के हाथ में घर-घर के खिलौने नहीं बल्कि फ़ुटबाल, क्रिकेट जैसे खेल के समान थमाकर। 

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