समाजखेल पीटी उषा : जिनका नाम लेकर घरवाले कहते थे, ‘ज़्यादा पीटी उषा बनने की कोशिश मत करो’

पीटी उषा : जिनका नाम लेकर घरवाले कहते थे, ‘ज़्यादा पीटी उषा बनने की कोशिश मत करो’

जब 21वीं सदी में एक पिता को अपनी लड़की का खेलना मंज़ूर नहीं था तो उन्होंने किस तरह की मुश्किलों का सामना किया होगा। मैं जानती हूंं कि मेरे पिता को मेरे खेल से क्यों दिक्कत थी। उन्हें मेरे ठोस होती हथेलियों और मेरे काले होते चेहरे से दिक्कत थी।

मैं तब शायद सातवीं या ज्यादा से ज्यादा आठवीं क्लास में थी। मेरा-खेल कूद में बहुत मन लगता था। लिहाज़ा, अपने स्कूल में मैं खेल-कूद में बहुत आगे रहती थी। सुबह सुबह 6 बजे उठकर खेलने जाना और स्कूल के बाद फिर से उसी ग्राउंड पहुंचना, रोज़ की आदत थी। गर्मी हो या सर्दी, प्रैक्टिस का वक़्त कभी बदलता नहीं था। हां, वापस घर पहुंचने का तय समय अक्सर बदल जाता था। ज़ाहिर है, चिलचिलाती धूप में अपनी बेटी का काला होता चेहरा देखकर एक भारतीय मध्यवर्गीय बाप की भौंहे चढ़नी ही थी, सो चढ़ी भी। एक रोज़ उन्होंने मुझे फटकारते हुए कहा, “ज्यादा पीटी उषा बनने की कोशिश मत करो।” 

पीटी उषा-भारतीय खेल इतिहास का जाना-माना नाम। वह चमकता सितारा जिसने एथलेटिक्स में भारतीय महिलाओं का परचम ऊंचा किया। वह नाम जिसने गौरवपूर्ण भारतीय एथलेटिक्स के इतिहास में महिलाओं के योगदान को एक पहचान दी। वह पहली भारतीय महिला एथलीट का नाम जो किसी भी ओलंपिक के फाइनल्स राउंड की फेहरिस्त में पहुंचा। लेकिन जब यही गौरवपूर्ण नाम आप एक ताने के रूप में सुनते हैं, तो भारतीय समाज महिलाओं से क्या उम्मीदें करता है और उनकी इस समाज में क्या जगह है, उसका अंदाजा लगाना कोई रॉकेट साइंस नहीं है। मेरे लड़की होने के नाते मेरे पिता की वही उम्मीदें थी जो एक आम भारतीय पिता की होती है इसलिए मेरा खेलना उन्हें इतना परेशान कर रही थी।

भारतीय ट्रैक और फील्ड की रानी कही जाने वाली पीटी उषा का जन्म 27 जून 1964 को कालीकट, केरल के पय्याली नाम के गांव में एक बेहद गरीब परिवार में हुआ था। कई तरीके की बीमारियां झेलते हुए, उन्होंने अपना बचपन बहुत तंगहाली में गुज़ारा। पीटी उषा हमेशा से ही खेल-कूद में बहुत होशियार थी। साल 1978 में अंतर- राज्य जूनियर प्रतियोगिता में उन्होंने अपने नाम 6 मेडल्स किए। उसी साल केरल राज्य कॉलेज मीट में उन्होंने 14 मेडल्स हासिल। वहीं, साल 1979 में हुए नैशनल स्कूल गेम्स में उन्होंने चैम्पियनशिप भी अपने नाम की। वह साल 1976 था जब एक ऐसी ही प्रतियोगिता के पुरस्कार वितरण समारोह में उन्हें, उनके कोच ओएम नाम्बिआर ने देखा और देखते ही पीटी उषा को ट्रेन करने का फैसला कर लिया। हाल ही में पद्म श्री से सम्मानित ओएम नाम्बिआर साल 2000 में दिए एक साक्षात्कार में बताते हैं कि उन्हें पीटी उषा के दुबले शरीर की बनावट और तेज़ चाल गति ने बहुत प्रभावित किया और वह उन्हें देखते ही समझ गए थे कि उषा एक बेहतरीन धाविका बन सकती हैं।

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पीटी उषा ने अपना अंतरराष्ट्रीय करियर 1980 में कराची में हुए पाकिस्तान ओपन नैशनल मीट से किया जिसमें उन्होंने अपने नाम 4 गोल्ड मेडल्स किए। पकिस्तान जाने के दौरान आई मुश्किलों को याद करते हुए पीटी उषा कहती हैं कि अगर आज की जेनरेशन के खिलाड़ियों को वैसी मुश्किलें झेलनी पड़े तो वे फील्ड पर दोबारा कदम नहीं रखेंगे। वह बताती हैं कि 16 साल की उम्र में वह पाकिस्तान दो बार ट्रेन बदल कर पहुंची थी। वह आगे बताती हैं कि जब वे ट्रेन से सफ़र कर रही थी तब चलती ट्रेन पर कुछ बच्चों ने गोबर और पत्थर फेंके जो उनके मुंह पर आकर लगे। इस दौरान ट्रेन चलती रही। एक सोलह साल की लड़की के लिए वह सब कुछ कैसा रहा होगा इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।

साल 1980 का मॉस्को ओलंपिक्स पीटी उषा का पहला ओलंपिक्स था। यह वह ओलंपिक्स भी था जिसने 16 साल की पी टी उषा को ओलंपिक्स में भाग़ लेने वाली सबसे कम उम्र की भारतीय महिला धाविका बना दिया था। मॉस्को ओलंपिक्स में उषा के हाथ एक भी मेडल नहीं लगा लेकिन 2 साल बाद 1982 में दिल्ली में हुए एशिएन गेम्स में 100 मीटर और 200 मीटर रेस में उन्होंने सिल्वर मेडल जीता। मॉस्को जाते समय जब वह पहली बार हवाई जहाज में बैठीं तो वह उस यात्रा को याद करते हुए एक बेहद मजेदार किस्सा सुनती हैं। स्क्रोल को दिए एक इंटरव्यू में वह बताती हैं कि पहली बार हवाई जहाज़ में बैठने की वजह से वे बेहद उत्साहित महसूस कर रही थीं। लेकिन चूंकि यात्रा बहुत लंबी थी, उनका सर भारी होने लगा और उनकी तबीयत खराब होने लगी। मॉस्को पहुंचते-पहुंचते उनका सारा उत्साह ठंडा पड़ चुका था। उन्हें बहुत उल्टियां हुईं। उसके बाद जो हुआ वो उन्हें आज भी नहीं भूला। हुआ कुछ यूं कि मॉस्को पहुंचते ही खिलाड़ियों के स्वागत में किसी तरीके की ड्रिंक का इंतज़ाम था। उषा को मालूम नहीं था की वह क्या है लेकिन प्यास और थकान की मारी उषा ने वह ड्रिंक पी ली। मगर उस ड्रिंक ने उनकी तबियत कुछ सुधारने की बजाय और बिगाड़ दी और इस तरह यह वाकया उनका मॉस्को में पहला यादगार किस्सा बना।

जब 21वीं सदी में एक पिता को अपनी लड़की का खेलना मंज़ूर नहीं था तो उन्होंने किस तरह की मुश्किलों का सामना किया होगा। मैं जानती हूंं कि मेरे पिता को मेरे खेल से क्यों दिक्कत थी। उन्हें मेरे ठोस होती हथेलियों और मेरे काले होते चेहरे से दिक्कत थी।

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साल 1984 में संपन्न हुए लॉस एंजेलिस ओलंपिक्स में उषा का प्रदर्शन उनके सबसे बेहतरीन प्रदर्शनों में से एक है। मॉस्को ओलंपिक्स में 100 और 200 मीटर रेस में निराशाजनक प्रदर्शन के बाद उन्होंने 400 मीटर की बाधा दौड़ पर ध्यान देना शुरू कर दिया था। लॉस एंजेलिस ओलंपिक्स में उनके हाथ कोई मेडल नहीं लगा लेकिन उसके पहले की कहानी दिलचस्प है। उषा लॉस एंजेलिस बिना किसी एक्सपोज़र के आई थी। लिहाज़ा, उनके कोच ने उनका नाम प्री-ओलंपिक्स में डलवा दिया। वहां पर उनका सामना अमेरिका की स्टार धाविका जूडी ब्राऊन से हुआ जिन्हें उषा ने हरा दिया। इस प्री-ओलंपिक्स की जीत ने उषा का हौसला तो बढ़ाया लेकिन होनी को शायद उनकी ओलंपिक्स में जीत मंज़ूर नहीं थी। उन्होंने हीट्स में 56.81 सेकंड्स और सेमी फाइनल में 55.54 सेकंड्स में रेस खत्म कर नए कॉमनवेल्थ रिकार्ड्स स्थापित किए मगर फाइनल्स में वे 0.01 सेकंड्स से ओलंपिक्स पोडियम पर चढ़ने से चूक गयई।

लेकिन वह साल 1984 था जिसके बाद उषा ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। फिर वह चाहे 1985 की जाकार्ता एशियाई चैम्पियनशिप रही हो या 1986 के सियोल में संपन्न एशियाई खेल, उषा ने लगभग सभी प्रतियोगिताओं में मेडेल्स की झड़ी लगा दी। उन्होंने जाकार्ता एशियाई चैम्पियनशिप में पांच गोल्ड मेडल्स और एक ब्रॉन्ज़ मेडल और सियोल एशियाई खेल में चार गोल्ड मेडल्स और एक सिल्वर मेडल अपने नाम किया। ‘पय्योली एक्सप्रेस’ नाम से मशहूर पी टी उषा ने खेल के मैदान के बाहर भी कई इनाम अपने नाम किए। भारत सरकार ने उन्हें अर्जुन अवार्ड और 1985 में पद्मश्री से सम्मानित किया। फिलहाल वे कोइलांदी, केरल में एक एथलेटिक्स स्कूल चलाती हैं और उनका सपना भारत को अपने स्कूल से एक और ओलंपिक चैंपियन देने का है।

मैं जब भी पीटी उषा को देखती हूं मुझे उनमें समाज की बंदिशों को ठेंगा दिखाती एक बेहद ताकतवर महिला नज़र आती है। आप सोचिए जब 21वीं सदी में एक पिता को अपनी लड़की का खेलना मंज़ूर नहीं था तो उन्होंने किस तरह की मुश्किलों का सामना किया होगा। मैं जानती हूंं कि मेरे पिता को मेरे खेल से क्यों दिक्कत थी। उन्हें मेरे ठोस होती हथेलियों और मेरे काले होते चेहरे से दिक्कत थी। उन्हें दिक्कत थी क्योंकि जिन पैरों में वे पायल पहनाना चाहते थे वे पैर खेल के जूते पहनना चाहते थे। उन्हें दिक्कत थी क्योंकि जिस शरीर पर वह एक ‘आदर्श लड़की’ की माफ़िक सलवार सूट देखना चाहते थे, उसे जर्सी पहनने की खुमारी छाई रहती थी।

हम आज जिस समाज में रह रहे हैं उस समाज के लोगों के लिए महिलाओं का अपने देश का प्रतिनिधित्व करना भी कोई बड़ी बात नहीं है। ऐसा शायद इसीलिए है क्योंकि इस समाज के लोग आज भी महिलाओं के रसोई से बाहर झांक भर लेने से आवेश में आ जाते हैं। उन्हें आज भी उनका सपने देखना मंज़ूर नहीं होता। जहां लोग लड़कियों की शादी हो जाना उनकी ज़िन्दगी का एकमात्र लक्ष्य मानते हैं वहां पीटी उषा ने शादी के बाद न सिर्फ अपना खेल जारी रखा बल्कि अपना खुद का ट्रेनिंग स्कूल खोला और अपने जुनून को वो आज भी उसी जिंदा दिली से जी रही हैं। यकीनन पी टी उषा महिलाओं के लिए एक प्रेरक व्यक्तित्व हैं।

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तस्वीर साभार : Scroll

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