इंटरसेक्शनलधर्म हरतालिका तीज : अच्छे पति की आस और महिलाओं को दो खेमों में बांटती पितृसत्ता

हरतालिका तीज : अच्छे पति की आस और महिलाओं को दो खेमों में बांटती पितृसत्ता

अगर पर्व-त्योहार का विचार लोगों को एक-दूसरे से बाँटने या किसी को योग्य-अयोग्य बताने वाला होगा तो ये सीधेतौर पर समाज को हिंसा और भेदभाव को बढ़ावा देते है।

आज हरतालिका व्रत है, जिसे हरतालिका तीज या फिर तीजा भी कहते हैं। उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल और बिहार में ये त्योहार महिलाएं बहुत धूमधाम से मनाती हैं। इस व्रत को करवाचौथ से भी कठिन माना जाता है। भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को मनाया जाता है। इसदिन सुहागिन और कुंवारी लड़कियां भी अच्छे पति के लिए व्रत करती हैं। बिना कुछ खाए, बिना पानी के महिलाएं ये व्रत करती हं। पति की सलामती और अच्छे पति की आस में कुवारी लड़कियों को ये व्रत करने के लिए कहा जाता है।

जब हम इस पर्व को महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव के संदर्भ में देखते हैं तो इसमें पितृसत्ता की जड़ साफ़ दिखाई पड़ती हैं। यह व्रत सिर्फ़ शादीशुदा और कुंवारी लड़कियों के लिए है, अब सवाल यह है कि उन महिलाओं का क्या जो विधवा हैं या जो तलाक़शुदा हैं और उन महिलाओं का क्या जिन्हें हर रोज़ अपने पति की हिंसा का सामना करना पड़ता है। आखिर ये भी तो हमारे ही समाज की महिलाएं हैं जो शादीशुदा महिलाओं ही तरह समान अवसर की हकदार हैं पर किसी न किसी वजह से वे तीज व्रत को मनाने के लिए तय की गई शर्तों पर खरी नहीं उतरती तो ऐसे में इन महिलाओं को तीज, करवाचौथ जैसे त्यौहार के दिन क्या करना चाहिए? हमें ऐसी तमाम समस्याओं से जूझ रही महिलाओं के लिए क्या करना चाहिए? ये अपने आप में एक बड़ा सवाल बन जाता है|

भारतीय समाज में धर्म का काफ़ी ज़्यादा बोलबाला है और पितृसत्तात्मक विचार के साथ मज़बूती से जुड़ी धर्म की ज़ंजीरें महिलाओं को अलग-अलग वर्गों में बांटने में अहम भूमिका अदा करती हैं। कभी धर्म के नाम पर तो कभी तीज-त्योहार के नाम पर लगातार इन विचारों को मज़बूत किया जाता है। बदलते समय के साथ हम अपने रहन-सहन, समाज और परिवार में कई बदलाव देख रहे हैं, लेकिन इन सबके बावजूद अभी भी भेदभावपूर्ण विचारों और कहानियों वाले ये पर्व पितृसत्ता की जड़ों को और मज़बूत करने का काम करते हैं।

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अगर पर्व-त्योहार का विचार लोगों को एक-दूसरे से बाँटने या किसी को योग्य-अयोग्य बताने वाला होगा तो ये सीधेतौर पर समाज को हिंसा और भेदभाव को बढ़ावा देते है

ये व्रत पति की लंबी उम्र और सुख-समृद्धि के लिए रखा जाता है। इस दिन महिलाएं सोलह श्रृंगार आदि करके शिव और पार्वती की अराधना करती हैं। कहते हैं कि हरतालिका तीज के दिन शिव ने पार्वती को पत्नी के रूप में स्वीकार किया था। पार्वती ने भगवान शिव को पाने के लिए कठिन तपस्या की थी, इसके बाद ही भोलेशंकर उन्हें मिल पाए थे। तभी से मन चाहे पति की इच्छा और लंबी आयु के लिए हरतालिका तीज का व्रत रखा जाता है। इस दिन शिव और पार्वती और भगवान गणेश की बालू, रेत या काली मिट्टी से प्रतिमा बनाकर पूजी जाती है। अच्छे पति पाने और पति की सलामती के नाम पर रखे जाने वाले ऐसे कई व्रत है, जो महिलाओं के अस्तित्व को पुरुषों तक समेटने का काम करते हैं।

मेरा मानना है कि ऐसे पर्व-त्योहार के पीछे के विचारों पर विचार कर उन्हें सुधारने की ज़रूरत है क्योंकि जाने-अनजाने में ये पर्व-त्योहार हमारे समाज में महिलाओं को अलग-अलग वर्ग में बांटने में अहम भूमिका निभाते हैं और जिसमें पुरुषों की जगह टस से मस नहीं होती। महिलाएं ही पति की सलामती और अच्छे पति की आस में ये कठिन व्रत रखती हैं। ऐसा करने वाली महिलाओं को समाज अच्छी औरतों के ख़ेमे में रखता है, लेकिन दूसरे ही पल जो औरतें ये व्रत-पर्व में विश्वास नहीं करती या इनके नियमों के अनुसार इन्हें मनाने के योग्य नहीं, उन्हें समाज हर पल हेय दृष्टि से देखता है। कई बार ऐसा भी देखा है कि जब घर में महिलाएं ऐसी कोई पूजा-व्रत करती हैं तो विधवा या तलाक़शुदा महिलाओं के साथ बेहद भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जाता है और इससे भी ज़्यादा बुरा ये है कि इस व्यवहार को हमारे परिवार-समाज में कही करार दिया जाता है।

किसी भी सभ्य समाज में कोई भी पर्व-त्योहार लोगों के उत्साह को बढ़ाने और समाज और संस्कृति को नयी दिशा देने के लिए ज़रूरी होते हैं, लेकिन अगर पर्व-त्योहार का विचार लोगों को एक-दूसरे से बांटने या किसी को योग्य-अयोग्य बताने वाला होगा तो ये सीधे तौर पर समाज को हिंसा और भेदभाव को बढ़ावा देते हैं। इसलिए पर्व मनाइए, लेकिन पर्व के बहाने महिलाओं को बांटने वाले विचारों को दूर किया जाना चाहिए।  

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तस्वीर साभार : haratkhabar

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