विश्वविद्यालय एक ऐसी जगह है जहां पर अलग-अलग राज्यों से लोग शिक्षा ग्रहण करने आते हैं। यह वही जगह है जहां आकर हमारी सोच विकसित होती है। जिनके साथ मिलकर हम हर विषय पर चर्चा करते हैं। हम एक-दूसरे के त्योहार में शामिल होते हैं। एक-दूसरे की धर्म और रीति-रिवाज को सुनते और जानते हैं। हर राज्य की अपनी बोली होती है जिसे हम सीखने की कोशिश करते हैं। हम कुछ भी कहने-सुनने के लिए एक-दूसरे से बिल्कुल आज़ाद होते हैं। लेकिन क्या अब कॉलेज और विश्वविद्यालयों का माहौल बदल रहा है? 22 जनवरी की ही बात करें, तो जब अयोध्या में राम मंदिर का प्राण प्रतिष्ठा किया गया, उस दिन दिल्ली के कुछ विश्वविद्यालयों में हजारों की संख्या में विद्यार्थी इकट्ठा हुए थे। हाथों में भगवा झण्डा लिए लहराया जा रहा था। कैंपस में लगभग सभी विद्यार्थी गेरुए रंग के कपड़ों में नज़र आए।
देश के मौजूदा राजनीतिक स्थिति के कारण राम मंदिर के उद्घाटन को लगभग सभी युवाओं से ऐसे मनाया जैसे कोई राष्टीय पर्व हो। लोगों के बीच धार्मिक उग्रता देखकर वह दृश्य बहुत भयावह प्रतीत हुआ। पहले भी स्कूलों, कॉलेजों में धार्मिक कार्यक्रम होते आए हैं। स्कूलों और कॉलेजों में खास कर सरस्वती पूजा जैसे आयोजन पहले भी हुआ करते थे। लेकिन यह धार्मिक कम और उत्सव, खान-पान और एक-दूसरे से मिलने का विषय ज्यादा रहा है। कैंपस के अंदर विद्यार्थियों का इतना उग्र रूप कभी नहीं दिखा और न महसूस हुआ। कैंपस के बाहर और भीतर हर जगह विद्यार्थी दीप जलाकर ‘राम राज्य’ लिख रहे थे। क्या खुद को विश्व गुरु कहने वाला भारत का मूल मंत्र यही है कि धर्म को सार्वजनिक और राजनीतिक मुद्दा बनाकर विद्यार्थियों के भविष्य से खेला जाए। क्या आज कॉलेज और विश्वविद्यालयों में शिक्षा के मूल्यों के बजाय धार्मिक मूल्यों को बढ़ावा दिया जाएगा?
“पहले कैंपस में इतने धार्मिक कार्यक्रम नहीं होते थे। एडमिन भी सपोर्ट नहीं करते थे। लेकिन अब यहां पर धार्मिक कार्यक्रम खूब हो रहा है जिसमें एडमिन का भी साथ रहता है। कैंपस में अब स्टडी सर्कल, अकेडमी इवेंट, स्पीकर डिस्कशन पर बिल्कुल रोक लग गया है।”
कैंपस में ऐकडेमिक स्पेस की कमी
धर्म एक निजी विषय है। इसे सार्वजनिक रूप से मनाना कितना सही है? छात्रों का कहना है कि पहले कैपस में इतने धार्मिक कार्यक्रम नहीं होते थे। लेकिन कुछ समय से कैंपस का माहौल बदल रहा है। यहां अब सांस्कृतिक कार्यक्रम कम होते हैं। इसे लेकर नेवीले जो दिल्ली विश्वविद्यालय से लॉ की पढ़ाई कर रहे हैं वह बताते हैं, “पहले कैंपस में इतने धार्मिक कार्यक्रम नहीं होते थे। एडमिन भी सपोर्ट नहीं करते थे। लेकिन अब यहां पर धार्मिक कार्यक्रम खूब हो रहा है जिसमें एडमिन का भी साथ रहता है। कैंपस में अब स्टडी सर्कल, अकेडमी इवेंट, स्पीकर डिस्कशन पर बिल्कुल रोक लग गया है। एडमिन इसके लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं होते हैं। एक तरह देखा जाए तो कैंपस का माहौल अब ठीक नहीं लगता है। यूनिवर्सिटी आने क्या फायदा है?”
कैम्पस हमेशा पढ़ने, समझने और चर्चा करने के लिए एक आज़ाद जगह देता है, जहां पर हमें भाषा,विज्ञान, कला और साहित्यिक समझ को बढ़ाने का मौका और संसाधन मिलता है। यह केवल धरना, प्रदर्शन या विरोध के विषय में नहीं है। लेकिन यह अपने विचार रखने के विषय में भी है। आज छात्रों का कहना है कि अकेडमी माहौल कैंपस से खत्म हो रहा है। इस विषय पर दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र मानिक कहते हैं, “कैंपस में अब ऐकडेमिक स्पेस नहीं है। यूनिवर्सिटी के माहौल को देख के ऐसा लगता है जैसे किसी धर्म से जुड़े लोगों का कोई शाखा हो। ऐसा महसूस होता है कि इसे किसी एक धर्म में बदला जा रहा है।”
“कैंपस में अब ऐकडेमिक स्पेस नहीं है। यूनिवर्सिटी के माहौल को देख के ऐसा लगता है जैसे किसी धर्म से जुड़े लोगों का कोई शाखा हो। ऐसा महसूस होता है कि इसे किसी एक धर्म में बदला जा रहा है।”
कैंपस में असुरक्षा का माहौल
वह आगे बताते हैं, “आज कैंपस का माहौल पहले की तुलना में संकुचित हो गया है। ये जगहें अब हाशिये से समुदायों के लिए असुरक्षित बनता जा रहा है। एक-दूसरे के धर्म के प्रति असंवेदनशीलता फैलाई जा रही है जोकि एक लोकतान्त्रिक देश ले लिए सही नहीं। यह बदलाव कोई एक दिन के कार्यक्रम से नहीं, बल्कि धीरे-धीरे सोची समझी नीति के तहत किया गया है। आज कॉलेजों का माहौल ऐसा हो चुका है कि हर शाम आर्ट फैकेल्टी में धार्मिक और राजनीतिक संघ के लोगों की सभा होती है। यह किसी के लिए भी सही नहीं। इससे खुदपर और दूसरों पर भी खराब प्रभाव पड़ता है।”
वैज्ञानिक दृष्टिकोण के बजाय धार्मिक चर्चाएं
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के शोधार्थी चंदन कहते हैं, “कैंपस अब एक तरह से सभी छात्रों के लिए नहीं है। यह अब किसी विशेष धर्म के साथ जुड़ के रह रहा है। यहां अब धार्मिक कार्यक्रम ज्यादा हो रहे हैं। एक तरह से देखा जाए तो अब हिन्दू धर्म से संबंधित सारे कार्यक्रम होते हैं। वहीं दूसरे समुदाय के लोगों को ‘पोंगल’ जैसे त्योहार भी मनाने से रोक दिया जाता है। एडमिन माना कर देते हैं। यूनिवर्सिटी के तरफ से जो सेमिनार होते थे, जिसमें अलग-अलग विषयों पर बात होती थी, लेकिन कुछ समय से ऐसे सेमिनार में लगातार धार्मिक मुद्दों पर चर्चा हो रही है।” वहीं शोधार्थी धनंजय कहते हैं, “हमारा देश एक सेक्युलर देश है। तो सेक्युलर देश का यह काम होना चाहिए कि हम हर धर्म को एक समान तरजीह दें। लेकिन कुछ समय से कैंपस में किसी खास धर्म को लेकर कार्यक्रम होना, धार्मिक मुद्दों पर एकतरफा बातचीत या चर्चा होना ये कितना सही है। यूनिवर्सिटी को हमेशा वैज्ञानिक चेतना का प्रवाह करना चाहिए जिससे स्टूडेंट्स के अंदर तार्किकता का बोध बढ़े।”
“सेक्युलर देश का यह काम होना चाहिए कि हम हर धर्म को एक समान तरजीह दें। लेकिन कुछ समय से कैंपस में किसी खास धर्म को लेकर कार्यक्रम होना, धार्मिक मुद्दों पर एकतरफा बातचीत या चर्चा होना ये कितना सही है। यूनिवर्सिटी को हमेशा वैज्ञानिक चेतना का प्रवाह करना चाहिए जिससे स्टूडेंट्स के अंदर तार्किकता का बोध बढ़े।”
कैंपस में आखिर धार्मिक कट्टरता क्यों
इसी तरह मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली के अंबेडकर विश्वविद्यालय, जेएनयू के बाद जामिया मिल्लिया इस्लामिया का विश्लेषण किया, जोकि एक मुस्लिम बहुल यूनिवर्सिटी है और यहां पर अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक दोनों विद्यार्थी आते हैं। छात्रों का कहना है कि पिछले ही साल जब होली मनाया जा रहा था तब कुछ छात्रों ने एक समूह के साथ आकर अभद्र भाषा का इस्तेमाल किया। वहीं इस बार दीवाली में भी कुछ ऐसी ही घटना हुई जहां कुछ मुस्लिम छात्रों ने आकर दिवाली के समारोह में दखल डाली। जामिया मिल्लिया इस्लामिया से पत्रकारिता की छात्रा प्रकृति (बदला हुआ नाम) कहती हैं, “जामिया में कहीं भी धर्मनिरपेक्षता नहीं दिखता है। मैं एक धार्मिक तौर से उदारवादी लड़की हूँ। जिस हिसाब से मैं अपने घर में होली, दीवाली मनाते आई हूँ, उसी हिसाब से यहां भी मनाती हूँ। मेरे सारे दोस्त मुस्लिम हैं और मुझे कोई परेशानी महसूस नहीं होती। पर यहां आकर मैंने एक चीज़ महसूस किया है। मैं हमेशा अपने मुस्लिम दोस्तों के त्योहार में शामिल होती हूँ। लेकिन वे कभी भी मेरे त्योहार में शामिल नहीं होते हैं। इसलिए, कभी-कभी मुझे यह महसूस होता है कि कैंपस एकतरफा है।”
“मेरे सारे दोस्त मुस्लिम हैं और मुझे कोई परेशानी महसूस नहीं होती। पर यहां आकर मैंने एक चीज़ महसूस किया है। मैं हमेशा अपने मुस्लिम दोस्तों के त्योहार में शामिल होती हूँ। लेकिन वे कभी भी मेरे त्योहार में शामिल नहीं होते हैं। इसलिए, कभी-कभी मुझे यह महसूस होता है कि कैंपस एकतरफा है।”
धर्म और भाषा या व्यक्ति का चुनाव
वह आगे बताती है, “मेरा जो बोलने का तरीका है, उसमें उर्दू के शब्द ज्यादा प्रयोग करती हूं। मैंने इसे सीखा भी है तो वह आज बेहतर उर्दू है। लेकिन मेरे एक मुस्लिम दोस्त तारीफ करते हुए कहते हैं कि इतनी अच्छी तरह उर्दू बोलने वाले को मुस्लिम धर्म के अलावा किसी और धर्म में नहीं होना चाहिए। हालांकि उन्होंने ये मजाक में ही कहा लेकिन इससे हमारा धर्म से भाषा को जोड़ने और विचारों की संकीर्णता देखती है। हम कैंपस में कोई भी नई चीज सीखने की कोशिश करते हैं। हम किसी भाषा को धर्म से क्यों जोड़ रहे हैं। ऐसे कमेन्ट सिर्फ मुस्लिम विद्यार्थी ही नहीं करते बल्कि कई बार हिन्दू विद्यार्थी भी करते हैं कि आखिर ऐसी भाषा का प्रयोग क्यों। जामिया मिल्लिया इस्लामिया भाषा, साहित्य के अलावा बेहतर माहौल और अपनेपन के लिए जाना जाता है। यहां पर लगभग हर कोर्स में एक साल के लिए उर्दू पढ़ाया जाता है क्योंकि जब हिंदी-उर्दू का मिश्रण होता है, तो भाषा और सुंदर दिखने लगती है। आज भी ये नियम हैं। लेकिन कुछ विद्यार्थी यह मानते भी कि उर्दू को विकल्प में क्यों नहीं रखा जाता है। इन सभी मुद्दों को लेकर लगता है कि भाषा की लड़ाई कैंपस तक दिखने लगी है।
देश में धर्म हमेशा से मौजूद था और आगे भी रहेगा। लेकिन शैक्षिक संस्थानों में लोग ज्ञान अर्जन करने जाते हैं। वहीं अध्यात्म, किसी धर्म या भाषा पर भी अनेकों कोर्स मौजूद हैं। लोग चाहे तो खास कर इनकी शिक्षा ले सकते हैं। इसलिए, राजनीतिक कारणों से हमें कैंपस को धर्म और भाषा के लड़ाई की जगह या अपना वर्चस्व दिखाने की जगह बनने से रोकने की जरूरत है।