इंटरसेक्शनलजाति आखिर क्यों होती है प्रेम संबंधों पर राजनीति?

आखिर क्यों होती है प्रेम संबंधों पर राजनीति?

सामाजिक कारणों से अक्सर प्रेम में पड़े लोगों का साथ देने वालों सामाजिक बहिष्कार झेलना पड़ता है। हालांकि कई मामलों में देर सवेर शादी को परिवार स्वीकार कर लेता है। लेकिन साथ में चल रहे लोगों को की बात नहीं होती।

अंतरजातीय विवाह पर होने वाले विवादों पर अपनी बात रखते हुए हाल ही में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा कि यह समाज का ‘काला चेहरा’ है जहां माता-पिता, अपने बच्चों के प्रेम विवाह को अस्वीकार करते हुए, पारिवारिक और सामाजिक दबाव में लड़के के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने का सहारा लेते हैं, जो एक परेशान करने वाली प्रवृत्ति को दर्शाता है। अदालत एक महिला और कथित आरोपी पति (जो अनुसूचित जाति से था) द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई कर रही थी। अंतरधार्मिक विवाह पर विवाद आज समाज में किसी से छुपे नहीं हैं। 

घरेलू झगड़ों से लेकर ऑनर क्राइम या प्रेम और सफल शादी; अंतरजातीय और अंतरधार्मिक रिश्तों के कई पहलू हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि हमारे समाज में आज भी जातिगत और धार्मिक भेदभाव जड़ तक मौजूद है। पिछले कई दशकों के दौरान समाज सुधार के बड़े प्रयासों के बावजूद भारत में धर्म और जाति के नाम पर होने वाले विवादों में कमी नहीं आई है। प्रेम रिश्ते और विवाह जैसी संस्थान पर इसका पूरा प्रभाव देखा जा सकता है। शिक्षा के बढ़ते दायरे और जागरूकता के बावजूद भी अनेकों बार घर और समाज में अंतरजातीय और अंतरअधार्मिक प्रेम को पूरी स्वीकृति नहीं मिल पाई है।

इस बीच ऋतु और अकरम की दोस्ती प्रेम में बदल गई। ऋतु के घर वालों ने इसका विरोध किया और उन्हें घर में कैद कर दिया। लेकिन ऋतु अपने घर वालों की नज़रों से बचकर अकरम के पास आई और दोनों घर से भागकर शादी कर ली। इसके बाद ऋतु के घर वालों ने अकरम के साथ-साथ शादाब, मुझे और उनके कई दोस्तों के ख़िलाफ़ केस कर दिया।”

अंतरजातीय या अंतरधार्मिक संबंधों का साथ देने वालों की समस्या

वर्षों से भारतीयों की मानसिकता रुढ़िवादी रही है। वो अपनी जाति से बाहर प्रेम या विवाह को मान्यता नहीं देते। रूढ़िवाद पितृसत्तात्मक समाज की धारणा रही है कि प्रेम या विवाह केवल एक ही समुदाय और जाति में संभव है। जिन लोगों ने सामाजिक मानदंडों का उल्लंघन करके अंतरजातीय या अंतरधार्मिक विवाह का साहस किया, उन्हें हिंसा, सामाजिक और पारिवारिक बहिष्कार झेलना पड़ा और लड़के-लड़कियों को ऑनर क्राइम के रूप में मौत तक का परिणाम भुगतना पड़ा। भारत के खाप पंचायतों के कठोर नियमों से आज लगभग हर कोई परिचित है। लेकिन अंतरजातीय और अंतरधार्मिक प्रेम और विवाह का एक पहलू और भी है, जिसपर शायद ही बातें होती हैं। अक्सर ऐसे जोड़ों को मिलाने वाले या सहायता देने वाले लोगों को जिनमें उनके परिवार या दोस्त शामिल होते हैं और समाज की तरफ से बहिष्कार या सज़ा का सामना करना पड़ता है।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

ऐसी ही एक अंतरधार्मिक प्रेम और उसके विवाह से जुड़े मामले में साज़िया बताती हैं कि कैसे एक ऐसी एक शादी के कारण समाज ने उनका जीवन में परेशानियों का सबब ला दिया। साज़िया (नाम बदला हुआ) कहती हैं, “जब मैं दसवीं क्लास में पढ़ती थीं, तो मेरे ही साथ पढ़ने वाली सहेली ऋतु (नाम बदला हुआ) की दोस्ती अकरम (नाम बदला हुआ) से हो गई। शादाब मेरे बड़े भाई और अकरम के दोस्त थे और अकरम अक्सर शादाब (नाम बदला हुआ) के घर आता था। इस बीच ऋतु और अकरम की दोस्ती प्रेम में बदल गई। ऋतु के घर वालों ने इसका विरोध किया और उन्हें घर में कैद कर दिया। लेकिन ऋतु अपने घर वालों की नज़रों से बचकर अकरम के पास आई और दोनों घर से अपनी मर्जी से शादी कर ली। इसके बाद ऋतु के घर वालों ने अकरम के साथ-साथ शादाब, मुझे और उनके कई दोस्तों के ख़िलाफ़ केस कर दिया।”

लेकिन घरवालों के विरोध के बाद भी भाई ने ये शादी कर ली। इसके बाद मेरे घरवालों ने उनसे सारे रिश्ते ख़त्म कर लिए। लेकिन असल परेशानी का सामना मुझे और मेरी दो चचेरी बहनों को करना पड़ा। जब इन लड़कियों की शादी के लिए लड़के की तलाश शुरू हुई, तो मेरे बिरादरी का कोई भी व्यक्ति मेरे घर पर रिश्ता करने को तैयार नहीं था।

दकियानूसी समाज की समस्या

साज़िया बताती हैं कि वो इस घटना में कहीं भी शामिल नही थीं। बस उनके भाई की दोस्ती और अकरम के उनके घर पर आने-जाने की वजह से उन्हें समाज की रूढ़िवादी सोच का सामना करना पड़ा। केस के बाद उन्हें बहुत मुश्किल हुई। उनकी पढ़ाई-लिखाई छूट गई। बहुत मुश्किल से उनका नाम केस से निकल पाया। लेकिन तब तक बहुत हदतक उनका जीवन भी प्रभावित हो चुका था। केस और मुक़दमे में किसी महिला का नाम आ जाने पर आम तौर पर समाज में महिला को ही दोषी समझा जाता है।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

मानसिक रूप से भी परेशान होने के कारण वो लोगों से दूर घर में रहने लगीं और कथित रूप से इन कारणों से से अबतक उनकी शादी भी नहीं हुई है। वहीं दूसरी ओर, ऋतु और शादाब आज एक खुशहाल वैवाहिक जीवन बिता रहे हैं और उनके घर वालों ने भी इस रिश्ते को स्वीकृति दे दी है। यह सोचने वाली बात है कि दकियानूसी समाज एक ओर परिवार के प्यार और रिश्तों के लिए किसी रिश्ते को सालों बाद अपनाता है लेकिन वहीं किसी और को कटघरे में खड़ा कर देता है।

साज़िया बताती हैं कि वो इस घटना में कहीं भी शामिल नही थीं। बस उनके भाई की दोस्ती और अकरम के उनके घर पर आने-जाने की वजह से उन्हें समाज के रूढ़िवादी सोच का सामना करना पड़ा। केस के बाद उन्हें बहुत मुश्किल हुई। उनकी पढ़ाई-लिखाई छूट गई। बहुत मुश्किल से उनका नाम केस से निकल पाया।

एक और अंतरजातीय प्रेम और विवाह से जुड़े मामले में आशा बताती हैं, “मैं कथित उच्च जाति और एक सम्पन्न परिवार से आती हूं। मेरे बड़े भाई एक डॉक्टर हैं। वो अपने ही एक सहपाठी जोकि अनुसूचित जाति से हैं, उनसे प्रेम करने लगे। घरवालों को जब उनके इस संबंध का पता चला तो उन्होंने इस पर ख़ूब विरोध किया और रिश्ता ख़त्म करने को कहा। लेकिन घरवालों के विरोध के बाद भी भाई ने ये शादी कर ली। इसके बाद मेरे घरवालों ने उनसे सारे रिश्ते ख़त्म कर लिए। लेकिन असल परेशानी का सामना मुझे और मेरी दो चचेरी बहनों को करना पड़ा।”

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

वह बताती है, “जब इन लड़कियों की शादी के लिए लड़के की तलाश शुरू हुई, तो मेरे बिरादरी का कोई भी व्यक्ति मेरे घर पर रिश्ता करने को तैयार नहीं था। बहुत कोशिशों के बाद जब चाचा की बड़ी लड़की का रिश्ता तय हुआ तो लड़के वालों ने भारी-भरकम दहेज़ की मांग की और इसकी वजह आशा के भाई के अंतरजातीय विवाह को बताया गया।” आशा आगे बताती हैं, “वो वक़्त मेरे परिवार के लिए बहुत मुश्किल था। घरवाले घर से निकलने में भी हिचकिचाते थे। समाज और रिश्तेदार भी उन्हें नीचा दिखाने का कोई मौक़ा नहीं जाने देते थे।”

सामाजिक बहिष्कार का सामना

सामाजिक कारणों से अक्सर प्रेम में पड़े लोगों का साथ देने वालों सामाजिक बहिष्कार झेलना पड़ता है। हालांकि कई मामलों में देर सवेर शादी को परिवार स्वीकार कर लेता है। लेकिन साथ में चल रहे लोगों को की बात नहीं होती। वैसे अगर पड़ताल करने बैठें, तो हमारे आस-पास ऐसे कई मामले मिलेंगे जिसमें कभी प्रेमी जोड़े तो कभी उनके अपनों को निशाना बनाया जाता रहा है। लेकिन पिछले एक दशक से इन घटनाओं में अलग ही रूप देखने को मिला है। धर्म की रक्षा के नाम पर धर्मिक धुर्वीकरण ने समाज में अंतरजातीय और अंतरर्धार्मिक प्रेम और विवाह के जो छिट-पुट मामले थे, उनपर भी शिकंजा कसा है।  राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2005-06 के आंकड़ों पर आधारित 2011 के एक अध्ययन में पाया गया कि भारत में सिर्फ़ दो प्रतिशत विवाह अंतरधार्मिक और अंतरजातीय विवाह दर छह प्रतिशत से भी कम थे। यह दर पिछले चार दशकों से समान ही रही है।

वो वक़्त मेरे परिवार के लिए बहुत मुश्किल था। घरवाले घर से निकलने में भी हिचकिचाते थे। समाज और रिश्तेदार भी उन्हें नीचा दिखाने का कोई मौक़ा नहीं जाने देते थे।

लोगों को नहीं राजनीति को है समस्या

लेकिन मौजूदा समय में इसे किसी भी अन्य सामाजिक मुद्दों जैसे गरीबी या बेरोज़गारी की तुलना में अधिक महत्व दिया जाता है। चूंकि भारतीय समाज में प्रेम को ही नहीं संस्कृति, शर्म और लोकलाज को भी महत्व दिया गया है, धर्म और जाति की सीमा को तोड़ते हुए प्रेम को स्वीकारना समाज के लिए कई बार मुश्किल होता है। बीबीसी में छपे एक खबर के अनुसार इंस्टाग्राम पर चलाए गए ‘इंडिया लव प्रोजेक्ट’ में अंतरजातीय और अंतरधार्मिक विवाहों में कठिनाई और सफलता के बारे में दिखाया गया था। उन्होंने बताया कि नफ़रत भरे माहौल में अंतरधार्मिक और अंतरजातीय प्यार और शादियों को सेलिब्रेट करने के लिए इस प्रोजेक्ट को बनाया था और इसमें उन्हें गज़ब की प्रतिक्रिया मिली।

अंतरजातीय और अंतरधार्मिक शादियां भारत में नई नहीं हैं। ये बहुत पहले से होती आ रहीं हैं। हर भेदभाव और रुकावटों का सामना करती हुई हर ज़माने में अपनी जगह बनाती रही है। लेकिन आज के सामाजिक और राजनीतिक माहौल में ये थोड़ा कठिन ज़रूर हो गया है। ये ज़रूरी है कि इस विषय पर बात की जाए और हर किसी को बिना किसी दबाव के प्यार और जीवनसाथी चुनने का करने वालों को प्यार करने और अपने इच्छा अनुसार ज़िंदगी बिताने की पूरी आज़दी मिले।

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