किसी महिला के जीवन की हर छोटी-बड़ी घटना को उसके चरित्र से जोड़कर देखने, चटखारे लेने और उसकी शेमिंग कर आनंद ढूंढने की भारतीय समाज की आदत बहुत पुरानी है। यहां के नेताओं और मीडिया का व्यवहार इससे बहुत अलग या बेहतर नहीं है। हाल ही में अभिनेत्री और तृणमूल कांग्रेस की सांसद नुसरत जहान को इसी पितृसत्तात्मक सोच का सामना करना पड़ा। चूंकि नुसरत एक आम महिला नहीं हैं यानि कि अपने प्रोफेशन के कारण वह एक नामी चेहरा हैं, उन को लेकर अपमानजनक बातें बनाने वाले लोगों की संख्या तक सीमित नहीं है। मामला आख़िर था क्या ? नुसरत जहान ने साल 2019 में एक बड़े व्यापारी निखिल जैन से शादी की। यह शादी तुर्की में हुई थी। नुसरत ने दोनों की तस्वीरें साझा की। हालांकि दोनों के भारत वापस आने के बाद यह शादी भारतीय क़ानून के हिसाब से पंजीकृत नहीं की गई क्योंकि ये शादी अंतर्धार्मिक थी इसलिए इसे विशेष विवाह अधिनियम के तरह पंजीकृत किया जा सकता था। बताते चलें विशेष विवाह अधिनियम 1954 भारत के लोगों और बाहरी देशों में सभी भारतीय नागरिकों के लिए विवाह को विशेष रूप प्रदान करता है, भले ही दोनों किसी भी धर्म या विश्वास को मानने वाले हो। नुसरत का बयान है, ‘क्योंकि ये एक इंटरफेथ मैरित है, इसे भारत में मान्यता विशेष विवाह अधिनियम के तहत ही मिल सकती थी जो हुआ नहीं। इसलिए कानूनी तौर पर यह शादी नहीं मानी जाएगी पर इसे एक संबंध या लिवइन संबंध कहा जाएगा।’
नुसरत गर्भवती थीं और बीते महीने उन्होंने एक बच्चे को जन्म दिया। निखिल ने उन्हें बधाई संदेश भेजा लेकिन दुनिया यह जानने के लिए बेचैन थी कि बच्चे का पिता कौन है, इसलिए नुसरत फिर से चर्चा में आ गईं। उन्होंने पिता की पहचान को लेकर पूछे गए सवाल के जवाब में कुछ बोलने से मना किया। उन्होंने कहा कि मां बनने का सुख उन्हें रास आ रहा है और वह बच्चे को बड़ा करने का सुख अनुभव करना चाहती हैं। हाल ही में हुए एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में उन्होंने कहा, ‘किसी के चरित्र पर दाग लगाना और फ़ालतू के सवाल पूछना कि पिता कौन हैं बहुत ही हल्का काम है।’ नुसरत का नाम कुछ महीनों से बंगाली अभिनेता और बीजेपी के सदस्य यश दासगुप्ता के साथ जोड़ा जाता रहा है, यश उनके साथ अस्पताल में मौजूद थे। लेकिन नुसरत किसी पुरुष का नाम बच्चे के साथ फिलहाल जोड़ने में सहज नहीं हैं। यह बात साफ़ पता चल रही है। वह अपने माँ बनने के सफ़र को महसूस करना और उसे जीना चाहती हैं। इस बात से मर्दवादी लोग उनसे खासे नाराज़ हैं।
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नुसरत जहान के केस में मीडिया और नेताओं को दिक़्क़त इसलिए ज़्यादा थी क्योंकि उन्हें एक पुरुष का नाम चाहिए था। वह उनके निज़ी जीवन, शादी, शादी का टूटना, प्रेम को उनके मातृत्व के साथ जोड़कर देखते हैं। वे समझने में नाकामयाब रहे कि एक महिला अपने हिसाब से, अपने समय से चाहे तो अपनी निज़ी जानकारी साझा करे या न करे।
पिता के नाम और फिर सरनेम से क्या है समाज का विशेष लगाव
डॉक्टर बीआर आंबेडकर लिखते हैं, ‘ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ऐसे नाम हैं जो नाम के साथ जोड़े जाते हैं एक निर्धारित और सीमित सोच के साथ, जो है जन्म के आधार पर बनाए गए सामाजिक अनुक्रम के लिए होता है। इसलिए जब तक ये नाम हैं, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का उपयोग सामाजिक रूप से बड़े-छोटे में अनुक्रमिक बंटवारा करने में लाए जाएंगे, जो जन्म और कर्म के आधार पर होगा।’ ये ब्राह्मणवादी पितृसत्ता की नींव है जिसे डॉक्टर आंबेडकर रेखांकित कर रहे हैं। उनके इस कथन में स्त्रियों द्वारा अपने पिता और पति के सरनेम अपनाने और फिर वही सरनेम बच्चे को देने की परंपरा का एक ठोस कारण छिपा है। यह परंपरा न केवल स्त्री की पहचान को उसके सरनेम से जोड़कर रातों रात बदलती है बल्कि इस सोच को भी बढ़ावा देती है कि बच्चे का अस्तित्व पिता के अस्तित्व, पिता के नाम के बिना अधूरा है। बच्चे को समाज में एक दर्ज़ा तभी मिलेगा जब उसके साथ उसके पिता का नाम और उसकी पहचान शामिल हो। भारत में जातिगत पहचान सरनेम से की जाती है और समाज में मिला दर्ज़ा अन्य कई पहचानों के बीच जातिगत पहचान पर विशेष रूप से निर्भर करता है।
हालांकि नुसरत जहान के केस में मीडिया और नेताओं को दिक़्क़त इसलिए ज़्यादा थी क्योंकि उन्हें एक पुरुष का नाम चाहिए था। वह उनके निज़ी जीवन, शादी, शादी का टूटना, प्रेम को उनके मातृत्व के साथ जोड़कर देखते हैं। वे समझने में नाकामयाब रहे कि एक महिला अपने हिसाब से, अपने समय से चाहे तो अपनी निज़ी जानकारी साझा करे या न करे। जैसे उन्होंने अपनी एक तस्वीर साझा करते हुए हैस्टेग में लिखा, ‘#newmommylife #newrole… pic courtesy: Daddy’, यहां वे अपनी नई यात्रा और नई भूमिका के बारे में हैस्टेग कर रही हैं, तस्वीर साभार में डैडी लिख रही हैं लेकिन वह एक नाम लेना नहीं चाहती हैं। बात इतनी सी है और काफ़ी साफ़ है। एक महिला को अपने शरीर पर अपनी जीवन पर इस तरह का स्वाधिकार जताते देखना लोगों के लिए आम बात नहीं है। इसलिए वह इसे स्वीकार करने में असमर्थ हैं।
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पति के सरनेम की यह परंपरा न केवल स्त्री की पहचान को उसके सरनेम से जोड़कर रातों-रात बदलती है बल्कि इस सोच को भी बढ़ावा देती है कि बच्चे का अस्तित्व पिता के अस्तित्व, पिता के नाम के बिना अधूरा है। बच्चे को समाज में एक दर्ज़ा तभी मिलेगा जब उसके साथ उसके पिता का नाम और उसकी पहचान शामिल हो। भारत में जातिगत पहचान सरनेम से की जाती है और समाज में मिला दर्ज़ा अन्य कई पहचानों के बीच जातिगत पहचान पर विशेष रूप से निर्भर करता है।
निवेदिता मेनन अपनी क़िताब ‘Seeing like a feminist‘ में लिखती हैं कि किसी को कभी मालूम ही नहीं चल सकता कि बच्चे का पिता कौन है। एक महिला को मालूम होता है कि बच्चा उसी का है पर पुरुष को यह बात मालूम चलना असम्भव है, डीएनए टेस्ट से भी| डीएनए टेस्ट सिर्फ़ ये पता सकता है कि बच्चा आपका नहीं है। डीएनए टेस्ट के परिणाम मिल जाने से भी ‘अधिकतम सांख्यिकी सम्भवनाएं'(‘high stastistical probability’) ही होती है कि बच्चा उस पुरुष का है। वह यही जानकारी है जो पितृसत्ता को हमेशा की चिंता दे देती है, इसी चिंता में वह महिला की यौनिकता पर नियंत्रण रखते हैं। इसी सोच से समाज में एक तरह की असहजता पैदा होती है जब महिला अपने मातृत्व के साथ किसी पुरुष का नाम नहीं जोड़ती।
क़ानून की नज़र से देखें तो भारत में शादी से बाहर जन्मे बच्चे को मां का नाम मिलता है, अगर जैविक पिता बच्चे के जन्म के बाद उसके साथ क़ानूनी तौर पर पितृत्व का रिश्ता बनाना चाहता हो, जिसका एक ज़रिया महिला से विवाह कर के भी हो सकता है, दोनों को कुछ कानूनी दस्तावेज पर सहमति हस्ताक्षर करना होता है और बच्चे पर दोनों अभिभावकों का बराबर का हक़ क़ानून द्वारा स्थापित होता है। जन्म प्रमाणपत्र पर पिता का नाम दर्ज़ होने पर ही बच्चे को पिता की संपत्ति या अन्य जुड़े लाभ प्राप्त होते हैं। नुसरत जहान ने बताया कि वह निखिल से काफ़ी पहले अलग हो चुकी थीं और ये बात सार्वजनिक नहीं करना चाह रही थीं। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक़ जन्म प्रमाणपत्र पर यश दासगुप्ता का नाम दर्ज़ है।
अगर निजी भावनात्मक या अन्य किसी कारण से महिला पिता का नाम सार्वजनिक नहीं करना चाहती हो तो सोचिए कि उसे नीचा दिखाने में समाज क्या कोई कसर छोड़ेगा। उस बच्चे के बड़े होने की प्रक्रिया तक को ट्रामा से भर दिया जाता है।
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भारतीय राजनीति और महिला नेताएं
‘लव चाइल्ड’ यानी प्रेम संबंध से हुई संतान के लिए पितृसत्तात्मक समाज एक स्वस्थ वातावरण नहीं दे सकता है। भले ही प्रेमी जोड़े के बीच बच्चे की परवरिश को लेकर आपसी सहमति हो। ऐसे में अगर निजी भावनात्मक या अन्य किसी कारण से महिला पिता का नाम सार्वजनिक नहीं करना चाहती हो तो सोचिए कि उसे नीचा दिखाने में समाज क्या कोई कसर छोड़ेगा। उस बच्चे के बड़े होने की प्रक्रिया तक को ट्रामा से भर दिया जाता है। स्कूल-कॉलेजों में पिता का नाम भरना फॉर्म्स में एक ज़रूरी कॉलम होता है। माँ के नाम का कॉलम फॉर्म्स में हो इसे लेकर पिछले कुछ सालों में कुछ प्रगतिशील स्पेस में एक चेतना जगी है। स्कूल-कॉलेज स्तर पर इसे केवल अभिभावक के नाम से फॉर्म में लिखा जा सकता है। इस तरह से सिंगल मां/पिता/ तलाकशुदा लोगों या अलग हो चुके जोड़ों, नॉन बाइनरी जोड़ों/परिवार के लिए और उनके बच्चों के लिए यह प्रक्रिया कम तकलीफ़देह होगी।
‘लव चाइल्ड’ को मान्यता देने की मानसिकता तो दूर यहां तो नुसरत जहान के पीछे बीजेपी के नेता हाथ धोकर पड़े हैं। उनका कहना है कि नुसरत ने लोकसभा में अपने आप को शादीशुदा बताया है जबकि वह “अनैतिक, गैरकानूनी और दुराचारी” का काम कर रही हैं। एक तो भारत की राजनीति में महिला को हमेशा ‘माँ’/’दीदी’/’ताई’/’बहन’ जैसे नाम दिए गए हैं, और ज्यादातर समय महिलाओं ने इसका विरोध नहीं किया है। ऐसे नाम जो महिला को परिवार के किसी सदस्य की तरह बताते हैं एक तरह से जनता को नेत्री के करीब लाने का राजनीतिक कदम कहा जा सकता है। लेकिन इसका दूसरा पक्ष भी है, ये नये जमाने की उन नेत्रियों को लेकर बहुत ही क्रूर हैं जो माँ/बहन/दीदी की एक ‘नैतिक इमेज़’ से ख़ुद को जोड़ती नहीं हैं, या अपने निज़ी जीवन के कुछ हिस्से सार्वजनिक करने में असहज नहीं हैं। जैसे प्रधानमंत्री मोदी ने साल 2014 में अपने फॉर्म में अपनी पत्नी यशोदा बेन का नाम लिखा, लेकिन सभी को मालूम है कि वह उनके साथ नहीं रहते| बीजेपी के पीआर ने इसे “देश के लिए दाम्पत्य जीवन का त्याग” जैसी एक ‘शुद्धतावादी’ ऐंगल दे दिया। वहीं, एक महिला सांसद अगर अपने निजी जीवन में कुछ हलचल देख रही हो, उसे समझने, उसे पार पाने की कोशिश कर रही हो, और इन सब को किसी ‘नैतिकता की चादर’ में ढंके बिना सामान्य रूप से घटने देना चाहती हो तो उसके ऊपर सभी राजनीतिक दांव पेंच होने लगते हैं।
भारत में अधिकतर सिंगल मदर की यही परेशानी है कि उन्हें एक गैर-ज़िम्मेदार मां का तमगा तुरंत मिल जाता है। समाज एकदम से असंवेदनशील होकर उन्हें ‘कमज़ोर’, ‘रिश्तों में डगमगाई हुई महिला’, ‘बेचारी’ और कितने शब्द दे देता है। जबकि कोई अभिभावक परफेक्ट नहीं है, बच्चे पालने की प्रक्रिया बहुत तरह के उतार- चढ़ाव, भावनात्मक, आर्थिक, मानसिक अस्थिरता से भरी होती है| फिर भी सिंगल मांएं हमेशा निशाने पर ऐसे रखी जाती हैं जैसे समाज के सभी हेट्रोसेक्शुअल पारंपरिक परिवार बच्चों के लिए एकदम स्वस्थ माहौल देने में सौ प्रतिशत क़ामयाब हो रहे हो।
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तस्वीर साभार: NDTV