भारतीय सिनेमा के दो चेहरे हैं- पहला, बॉक्स ऑफिस पर धूम मचाती, कमाई करती मार-धाड़, एक्शन और मेलोड्रामा से भरपूर नायकत्व की छवि पेश करती मसाला फिल्में और दूसरी असल जीवन की कुंठा, चिढ़, संघर्ष और विरोधाभाषों में लिपटे भावों को समेटती पैरेलल फिल्में। स्मिता पाटिल इन्हीं पैरेलल फिल्मों या न्यू वेव के दौर की अभिनेत्री थीं जिन्होंने अपने अभिनय और सामाजिक-वैचारिक समझ के बल पर 80 और 90 के दौर में बेहतरीन फिल्में की और लोगों के बीच अपनी स्वतंत्र पहचान बनाई। यूं तो सिनेमा जगत में उनकी मौजूदगी बहुत कम समय तक रही, बावजूद इसके आज उन्हें भारत की ‘ग्रेटेस्ट फ़िल्म एक्ट्रेसेस ऑफ ऑल टाइम्स’ में से एक माना जाता है। आइए जानते हैं उनके बारे में।
जीवन, व्यक्तित्व और विचार
स्मिता पाटिल का जन्म 17 अक्टूबर, 1955 में महाराष्ट्र के एक सामान्य मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था। उनके पिता शिवराज गिरधर पाटिल महाराष्ट्र के नेता थे जो बाद में कैबिनेट मंत्री भी बने। बचपन से ही वह राष्ट्र सेवा दल नामक संगठन से जुड़ी हुई थीं जो ज़मीनी स्तर पर समताधारी समाज निर्माण के लिए आवाज़ उठाता था। यह संगठन लोकतंत्र, समाजवाद, पंथ निरपेक्षता, वैज्ञानिक प्रवृत्ति और वैश्विक बंधुता का पक्षधर था। स्मिता गांधी के सर्व धर्म सम भाव सिद्धांत से प्रभावित रहीं। बचपन से ही इन गंभीर वैचारिक घेरों में रहने का परिणाम ही था कि उनका व्यक्तित्व इतना प्रखर होकर निखरा। उनके पिता स्वतंत्रता सेनानी थे और कम उम्र में ही जेल जा चुके थे। उनकी माता नर्स थीं और परिवार की गांधीवादी- सेवाधर्मी प्रवृत्ति से उपजे सामाजिक सेवा को रोग कहती थीं।
इस बारे में आगे बात करते हुए फ़िल्म क्रिटिक मैथिली राव अपनी किताब ‘स्मिता पाटिल : अ ब्रीफ़ इंकैंडेसेंस’ में बताती हैं “असल में, मैं स्मिता को समाज सेवा के क्षेत्र में अग्रदूत के रूप में देखती हूं क्योंकि वह उस समय भी सक्रियता से इस दिशा में काम करती रहीं, जब अपने करियर के शीर्ष पर रहीं, न कि नरगिस जैसी अदाकाराओं की तरह जो रिटायरमेंट के बाद सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय हुईं।” पाटिल के बारे में बात करते हुए लेखक-निर्देशक महेश भट्ट भी बताते हैं कि वह रूढ़ विचार की नहीं थीं, बल्कि उनकी प्रवृत्ति खोजी थी। उनके विचारों में ज़मीनी हकीकत की समझ साफ़ नज़र आती थी।
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फ़िल्मी करियर
स्मिता पाटिल पढ़ी-लिखी और सुलझी हुई कलाकार थीं। वह अपने पात्रों और उनकी सच्चाई को ईमानदारी से पर्दे पर उतार पाती थीं क्योंकि उनकी वैचारिकी में उस सच्चाई को आत्मसात करने का सामर्थ्य मौजूद होता था। उनका डेब्यू श्याम बेनेगल द्वारा 1975 में निर्देशित फ़िल्म चरणदास चोर से हुआ था। अपने तक़रीबन एक दशक के फिल्मी करियर में उन्होंने हिंदी सहित बंगाली, कन्नड़, मराठी, गुजराती और मलयालम सिनेमा में भी काम किया। सिनेमा को लेकर उनकी दृष्टि और समझ पारंपरिक न होकर व्यवहारिक और प्रगतिशील थी। वह इसे एक टूल की तरह देखती थीं जिसके तहत समाज से सीधे मुख़ातिब होकर उसमें वृहत्तर बदलावों की नींव रखी जा सकती थी। वह फिल्मों और उनमें निहित तत्वों पर विशेष ध्यान देती थीं और यही कारण था कि उस दौर में जब न्यू वेव सिनेमा शुरू हो रहा था और कॉमर्शियल सिनेमा की तुलना में उनका बजट बहुत कम होता था, स्मिता ने सिनेमेटिक एसेंस देखकर कई बार फ़्री में ही काम किया।
शबाना आज़मी बताती हैं कि एक बार स्मिता बंबई से दिल्ली जीप में अपनी एक सहेली के साथ निकल गई थीं और सूनसान जगहों पर कैम्प लगाने से लेकर टायर बदलने तक सभी काम उन्होंने ख़ुद ही किए। वह एक प्रोफ़ेशनल की तरह मोटरबाइक चलाती थीं और विजेता की तरह वॉलीबॉल खेलती थीं। इससे हमें स्मिता पाटिल के स्वभाव के बारे में पता चलता है जो न केवल पर्दे पर स्वतंत्र जीवन और औरतों की स्वच्छंदता की वक़ालत करने वाली नायिका थीं, बल्कि असल जीवन में भी बंधनों और रोकटोक के ख़िलाफ़ थीं।
इस संदर्भ में बात करते हुए लेखक-डायरेक्टर महेश भट्ट एक वाकया बताते हैं कि जब वह अर्थ (1947) लेकर स्मिता के पास गए और चेक पकड़ाया तो वह बोलीं, “एक तो आप मुझे इतनी अच्छी स्क्रिप्ट सुना रहे हैं और उसके लिए पैसे भी दे रहे हैं।” उनकी कुछ बेहतरीन फिल्मों में मंथन, भूमिका, आक्रोश, बाज़ार, अर्थ, शक्ति, मंडी और आज की आवाज़ जैसी फिल्मों का नाम आता है। वह सिनेमा में लगातार काम करती रहीं और यही कारण था कि 31 साल की छोटी उम्र में मौत होने पर भी तीन दर्जन से अधिक फ़िल्में उनके नाम दर्ज हैं।
कॉमन एट अनकॉमन स्मिता पाटिल
स्मिता पाटिल ने अपने छोटे जीवनकाल में पर्दे पर बेहतरीन भूमिकाएं अदा की ही, साथ ही, उनका व्यक्तिगत जीवन भी लीक से हटकर था। उनके बारे में बात करते हुए उनकी समकालीन और प्रतिद्वंद्वी समझी जाने वालीं शबाना आज़मी कहती हैं, ” स्मिता अपने आप में एक छोटी दुनिया थीं, पारंपरिक और आधुनिक, मज़बूत और नाज़ुक भी, आत्मविश्वास से लबरेज़ तो कभी वल्नरेबल भी।”
स्मिता ने लैंगिक आधार पर काम के बंटवारे और औरतों को लेकर बनाए गए रूढ़ विचारों जैसे ‘वह भीरू स्वभाव की होती हैं, उनसे भारी काम नहीं हो सकते, वह अच्छी ड्राइवर नहीं होती हैं या वह अकेले मैनेज नहीं कर सकतीं’ जैसे विचारों को भी खंडित किया। इस बारे में शबाना आज़मी बताती हैं कि एक बार स्मिता बंबई से दिल्ली जीप में अपनी एक सहेली के साथ निकल गई थीं और सूनसान जगहों पर कैम्प लगाने से लेकर टायर बदलने तक सभी काम उन्होंने ख़ुद ही किए। वह एक प्रोफ़ेशनल की तरह मोटरबाइक चलाती थीं और विजेता की तरह वॉलीबॉल खेलती थीं। इससे हमें स्मिता पाटिल के स्वभाव के बारे में पता चलता है जो न केवल पर्दे पर स्वतंत्र जीवन और औरतों की स्वच्छंदता की वक़ालत करने वाली नायिका थीं, बल्कि असल जीवन में भी बंधनों और रोकटोक के ख़िलाफ़ थीं।
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स्मिता पाटिल ने सिनेमाई दुनिया में पारंपरिक रूप से मौजूद हायरार्की को भी तोड़ा। उन्होंने अपनी पहचान बनाई जहां दर्शक सिनेमाहाल से निकलने पर हीरो की फाइट्स नहीं बल्कि स्मिता के संवाद याद रखते थे। उन्होंने उस दौर में महिला केंद्रित फिल्मों को ‘पॉपुलर’ बनाया।
नारीवादी स्मिता पाटिल
स्मिता पाटिल ने न केवल ऐसी फिल्में की, जिसमें उन्होंने पारंपरिक भारतीय समाज द्वारा औरतों की तय भूमिका तोड़ी बल्कि उनके किरदारों ने औरतों की सेक्सुअलिटी, आर्थिक और सामाजिक स्वतंत्रता, अस्तित्व, दूसरी औरत या सौतन, सेक्सवर्कर्स और शहरी परिदृश्य में मध्य वर्गीय स्त्री के संघर्षों को पर्दे पर रखकर कॉमर्शियल सिनेमा जिसे वह फॉर्मूला फिल्में कहतीं थीं, द्वारा प्रतिपादित स्त्री की रूढ़ छवि जिसमें वह असहाय होकर पुरुष पर निर्भर होती है और पुरुष उसका रक्षक होता है, उसे खंडित किया। प्रसार भारती को दिए इंटरव्यू में वह बताती हैं कि फार्मूला फिल्में अपने एक अजेंडे के तहत काम करती हैं जिसमें वह सदियों से दमन-शोषण झेलती औरतों को सती और पतिव्रता होने का संदेश देती हैं और फ़िल्म का अंत कुछ इस तरह का होता है कि उनका पति आकर माफ़ी मांग लेता है, ऐसे में फ़िल्म देखकर औरतें सोचती हैं कि उनके साथ भी ऐसा हो सकता है और वह कमज़ोर कर दी जाती हैं। इसके बदले ज़रूरत ऐसी फिल्मों की है जिसमें महिलाओं को अपने लिए खड़े होने की, आर्थिक-सामाजिक स्वतंत्रता और आंतरिक मजबूती और सामर्थ्य की प्रेरणा मिले।
वह सक्रिय नारीवादी थीं और बंबई के वीमेन सेंटर की सदस्य भी थीं। स्मिता अपने अधिकारों को लेकर सजग थीं और अपना महत्व भी जानती थीं। यही कारण था कि जब न्यू वेव सिनेमा बड़ा होने लगा और स्मिता को कई प्रोजेक्ट्स में शामिल नहीं किया गया क्योंकि वह एक नया नाम ही थीं, तब उन्होंने अपने दम पर बहुत सी कॉमर्शियल फिल्मों में भी काम किया और आर्थिक रूप से मज़बूत बनी रहीं। वह कहती हैं , ”पैरेलल सिनेमा में काम करने के लिए बहुत सारे ऑफ़र ठुकराए और बदले में क्या मिला? अगर वह नाम चाहते हैं तो मैं अपना नाम ख़ुद से बना लूंगी।” इस तरह वह हार मानकर निराश होने वाली नहीं थीं बल्कि अपने किरदारों की ही तरह सशक्त और जागरूक थीं। स्मिता चैरिटी वर्क में भी सक्रिय थीं और अपने पहले राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने पर उन्होंने वह राशि दान कर दी थी।
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सिनेमाई जगत में मौजूद हायरार्की तोड़ती
स्मिता पाटिल ने सिनेमाई दुनिया में पारंपरिक रूप से मौजूद हायरार्की को भी तोड़ा। उन्होंने अपनी पहचान बनाई जहां दर्शक सिनेमाहाल से निकलने पर हीरो की फाइट्स नहीं बल्कि स्मिता के संवाद याद रखते थे। उन्होंने उस दौर में महिला केंद्रित फिल्मों को ‘पॉपुलर’ बनाया। अर्थ, मंडी, चक्र और भूमिका ऐसी फिल्में थीं, जहां स्त्री किरदार इतनी सशक्तता से मौजूद थे कि पहले की हीरो-केंद्रित हायरार्की टूटती चली गई। उसके साथ यह भी रहा कि इन फिल्मों को न केवल क्रिटिक द्वारा, बल्कि जनता द्वारा भी सराहा गया और ये आर्थिक रूप से भी सफ़ल फिल्में रहीं।
स्मिता पाटिल को अपने एक दशक लंबे करियर में दो राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार और भारत का चौथा सबसे बड़ा नागरिक सम्मान पद्मश्री दिए गए। उन्हें बंगाल फ़िल्म जर्नलिस्ट एसोसिएशन द्वारा ‘बेस्ट एक्ट्रेस’ अवार्ड दिया गया और मराठी फिल्मफेयर की ओर से भी दो बार सम्मान दिया गया। स्मिता का निधन 13 दिसम्बर, 1986 में ‘चाइल्ड बर्थ कॉम्पल्केशंस’ के चलते हो गया। भले ही वह आज हमारे बीच न हों, स्मिता का काम, उनके विचार और उनकी फिल्में हमेशा उनकी मौजूदगी दर्ज करते रहेंगे।
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तस्वीर साभार: 70 mm life