आज से लगभग 80 साल पहले के पूर्वात्तर भारत में प्रशासन की पहुंच न के बराबर थी। उस दौर में सिल्वरीन स्वेर ने इस इलाके में जो काम किया वह एक मिसाल है। सिल्वरीन स्वेर ने अपने लंबे जीवन में देश और समुदाय के लिए बहुत कुछ ऐसा किया जिसके कारण आज भी उनका नाम लोगों की जुबान पर बना हुआ है। खासी समुदाय में जन्मी सिल्वरीन स्वेर एक सामाजिक कार्यकर्ता और अकादमिक सिविल सेवक थीं, जिन्होंने अपने जीवन में लोगों की सेवा को ही अपना काम माना। उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में लड़कियों को आगे बढ़ाया। स्वंय अनेक सरकारी आधिकारिक पदों पर काम किया, जो उस दौर में उनके समुदाय से आने वाली महिलाओं के लिए असंभव माना जाता था। वह अपने जीवन के कई वर्षों तक शिलॉन्ग में रहकर समाज के लिए काम करती रही। उन्हें प्यार से लोग ‘कोंग सील’ यानि बड़ी बहन बुलाया करते थे।
प्रांरभिक जीवन
सिल्वरीन स्वेर का जन्म 12 नंवबर 1910 में शिलॉन्ग के खासी समुदाय के एक ईसाई परिवार में हुआ था। शिलॉन्ग के वेल्श मिशन गर्ल स्कूल से स्कूली पढ़ाई के बाद वह आगे की पढ़ाई के लिए कलकत्ता चली गई। उन्होंने साल 1932 में कलकत्ता विश्वविघालय के, स्कॉटिश चर्च कॉलेज से स्नातक की डिग्री प्राप्त की। स्नातक से आगे की पढ़ाई जारी रखते हुए साल 1936 में उन्होंने शिक्षण में डिग्री हासिल की। उन्होंने अपने करियर की शुरुआत साल 1937 में एक अध्यापक के तौर पर की। इसके बाद वह गर्ल गाइड्स मूवमेंट से जुड़ी। साल 1938 में उन्हें गर्ल गाइड मिशन में ट्रेनर के रूप मे नियुक्त किया गया। यहां उन्होंने युवा लड़कियों को शिक्षा, प्रशिक्षण के माध्यम से सशक्त बनाने पर जोर दिया। मेघालय में स्कॉउट्स गाइड की नींव रखने का श्रेय इन्हीं को जाता है। इस दौरान उन्हें ब्रिटिश भारत के असम, मिजोरम और पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान में बांग्लादेश) क्षेत्र में स्थित अनेक स्कूलों का इन्चार्ज बनाया गया।
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साल 1944 में द्धितीय विश्वयुद्ध के दौरान स्वेर को ब्रिटिश भारत सरकार के द्वारा सहायक राशनिंग कंट्रोलर के रूप में नियुक्त किया गया। इस पद पर वह साल 1949 तक बनी रहीं। सरकारी नौकरी से इस्तीफा देने के बाद वह दोबारा अपने गृहनगर शिलॉन्ग लौट आईं। सिल्वरीन हमेशा से सामाजिक परिवर्तन की शक्ति में विश्वास रखती थी। बदलाव की इस कड़ी में उनका शिक्षा पर विशेष जोर था। उन्होंने शिलॉन्ग के पाइन मॉउट स्कूल में अध्यापन का काम शुरू कर दिया। इस स्कूल में उन्होंने लगातार तीन साल तक अपनी सेवाएं दी। इसके बाद उनकी मुलाकात एन.के. रस्तुमजी से हुई। वह नॉर्थ ईस्टर्न फ्रंटियर एजेंसी यानि नेफ़ा के असम गवर्नर के सलाहकार थे। इसके बाद सिल्वरीन स्वेर को नेफा स्थित पासीघाट ऑफिस में चीफ सोशल एजुकेशन ऑफिसर का पद दिया। उस वक्त में यह काम बहुत अधिक चुनौतीपूर्ण था, जिसे उन्होंने न केवल स्वीकार किया बल्कि बखूबी निभाया भी था। उन्होंने नेफा के साथ साल 1952 से लेकर साल 1968 तक काम किया।
सिल्वरीन हमेशा से सामाजिक परिवर्तन की शक्ति में विश्वास रखती थी। बदलाव की इस कड़ी में उनका शिक्षा पर विशेष जोर था।
इसके बाद वह दोबारा शिलॉन्ग वापस लौट आई। इस दौरान वह मॉरल रीआर्मानेंट के गुलविल मूवमेंट के साथ जुड़ गईं। गुलविल मूवमेंट फ्रैंक बुकानन के नेतृत्व में एक अंतरराष्ट्रीय आध्यात्मिक आंदोलन था, जिसने यूरोप में होलोकॉस्ट से उबरने वाले सैन्य हथियारों का विरोध किया था। इसी मूवमेंट की गतिविधियों के कारण वह साल 1970 में स्वीडन जाने वाले भारतीय दल का हिस्सा बनीं। स्वेर लगातार समाज के कल्याण के लिए लागू योजनाओं और संस्थाओं से जुड़ती रही और काम करती रहीं। समाज में शांति और सद्भाव स्थापित करने के लिए सिल्वरीन स्वेर ने अपने प्रयत्न जारी रखें। उत्तर पूर्व में आध्यात्मिक पुननिर्माण के सिद्धांतों को लागू करने के लिए स्वेर ने अपने समुदाय से नयी पहचान बनाने की मांग की। युद्ध-विवाद से परे सुंदर आजाद दुनिया बनाने के लिए काम किया। वह अपने काम के ज़रिये दुनिया को घृणा, भय और लालच से हमेशा के लिए मुक्त कराना चाहती थी।
सिल्वरीन स्वेर का बढ़ता प्रभाव
स्वेर अपने पूरे जीवन में भारतीय समाज को अधिक समतावादी बनाने के लिए हमेशा प्रयत्नशील रहीं। जब इसी कड़ी में उन्हें साल 1975 में अंतरराष्ट्रीय महिला वर्ष का अध्यक्ष चुना गया, तो किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि जिस अभियान का वह आगाज़ कर रही हैं इक्कीसवीं सदी के भारत को इसकी बहुत आवश्यकता पड़ेगी। उन्होंने अपने पूरे जीवन में महिला व लड़कियों के जीवन स्तर सुधार के लिए अनके काम किए। उन्होंने आदिवासी समाज की महिलाओं को मुख्यधारा में लाने के लिए काम किया। इसके अलावा वह स्टेट गाइड्स मूवमेंट की प्रमुख और नार्थ इस्टर्न हिल यूनिवर्सिटी की कार्यकारी परिषद की सदस्य भी चुनी गईं।
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सिल्वरीन स्वेर ने जीवनभर समाज के उत्थान के लिए अनेक काम किए। उन्होंने महिलाओं और लड़कियों को शिक्षा का महत्व समझाया। दूसरी ओर युद्ध और भय से पीड़ित समाज को जोड़ने के लिए अपनी आवाज को बुलंद किया।
सम्मान और पुरस्कार
अपने जीवन में सामाजिक उत्थान और सेवा के लिए सिल्वरीन स्वेर को अनेक पुरस्कारों से नवाजा गया। साल 1940 में भारत की आजादी से पहले ब्रिटिश सरकार ने सहायक राशनिंग कंट्रोलर में सेवा प्रदान करने के लिए उन्हें कैसर-ए-हिंद की उपाधि से नवाजा। सिल्वरीन स्वेर खासी समुदाय में यह मुकाम पाने वाली पहली महिला थीं। साल 1976 में भारत स्काउट और गाइड्स नें उन्हें सिल्वर एलीफैंट मेडल दिया। समाज सेवा के लिए उन्हें पाटोगन संगमा पुरस्कार और आरजी बुरुआ स्मृति रक्षा समिति पुरस्कार भी मिला। साल 2010 में भारत सरकार ने उन्हें नागरिक पुरस्कार पदमश्री प्रदान किया था। साल 2010 में सिल्वरीन स्वेर के सौवें जन्मदिवस पर मेघालय राज्य के राज्यपाल ने राजभवन में एक विशेष भोज का आयोजन किया था।
जीवन का आखिरी पड़ाव
पूरे जीवन काम करने वाली सिल्वरीन स्वेर अपने आखिर क्षणों तक भी सामाजिक जीवन में काफी सक्रिय रहीं। 1 फरवरी 2014 को उन्होंने 103 साल की उम्र में शिलॉन्ग के रियात्समथिया में अपने आवास पर इस दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया। मावखर प्रेस्बिटेरियन चर्च के कब्रिस्तान में उनको दफनाया गया। सिल्वरीन स्वेर ने जीवनभर समाज के उत्थान के लिए अनेक काम किए। उन्होंने महिलाओं और लड़कियों को शिक्षा का महत्व समझाया। दूसरी ओर युद्ध और भय से पीड़ित समाज को जोड़ने के लिए अपनी आवाज को बुलंद किया।
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