इंटरसेक्शनलहिंसा आज़ादी और समानता की बात करने वाली महिलाओं के साथ हिंसा को सामान्य क्यों माना जाता है

आज़ादी और समानता की बात करने वाली महिलाओं के साथ हिंसा को सामान्य क्यों माना जाता है

यह अपने समाज की बहुत बड़ी विडंबना है, जहां हमेशा पितृसत्ता के बताई 'अच्छी महिला' की परिभाषा में बने रहना और उनके मानकों के हिसाब से व्यवहार करना सही माना जाता है। लेकिन जैसे ही कोई महिला इन परिभाषाओं और मानकों से हटकर महिला अधिकार, आज़ादी और समानता की बात करती है तो पूरा समाज उसके ख़िलाफ़ खड़ा होने लगता है।

खड़ौरा गाँव की रहने वाली आशा कार्यकर्ता सुषमा (बदला हुआ नाम) हमेशा गाँव की महिलाओं के लिए बेहतर काम करने के लिए आगे रहती थी। गाँव में अगर किसी भी महिला के साथ घरेलू हिंसा हो या फिर लड़कियों की पढ़ाई छुड़वाकर उनकी शादी का दबाव देने की बात हो, सुषमा हमेशा आवाज़ उठाती थी। लेकिन जब एक बार उसके शराबी पति ने उसके साथ बुरे तरीक़े से मारपीट की तो गाँव के लोग मिलकर सुषमा के साथ होने वाली हिंसा को सही ठहराने लगे। वे कहने लगे कि उसके साथ ठीक हुआ, वह बहुत महिलाओं को उनके अधिकार बताकर भड़काने का काम करती थी।

यह अपने समाज की बहुत बड़ी विडंबना है, जहां हमेशा पितृसत्ता की बताई ‘अच्छी महिला’ की परिभाषा में बने रहना और उनके मानकों के हिसाब से व्यवहार करना सही माना जाता है। लेकिन जैसे ही कोई महिला इन परिभाषाओं और मानकों से हटकर महिला अधिकार, आज़ादी और समानता की बात करती है तो पूरा समाज उसके ख़िलाफ़ खड़ा होने लगता है। सुषमा कोई पहली महिला नहीं बल्कि ऐसी ढ़ेरों महिलाएं हैं जो महिला अधिकार, समानता, जागरूकता और सशक्तिकरण की पैरोकार हैं और जिसका ख़ामियाज़ा उन्हें कई बार भुगतना पड़ता है।

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मैं खुद भी जब गांव की लड़कियों को पढ़ना-लिखना सीखाती हूं, समय-समय पर वहां की महिलाओं के साथ बैठक करती हूं तो यह बात उस बस्ती के हर उस इंसान को पसंद नहीं आती जो पितृसत्तात्मक विचारों को सही मानते हैं। इसकी ख़िलाफ़त करनेवाली हर महिला या हर इंसान को सूली पर चढ़ाने के काबिल समझते हैं। हम लोग जब भी महिलाओं को महिला हिंसा, उनके आर्थिक और सामाजिक अधिकारों के बारे में उन्हें जागरूक करते है या उन्हें उनके आत्मसम्मान के प्रति जागरूक करते हैं तो पूरा समुदाय, पूरा समाज हमें ‘बुरी महिला या घर तोड़नेवाली’ महिलाओं के वर्ग में रखता है और उनके साथ क्रूर व्यवहार करने लगता है। यह सच बात है कि सत्ता चाहे जो भी हो वह कभी भी अपने ख़िलाफ़ कोई चुनौती को बर्दाश्त नहीं कर सकती है। ठीक उसी तरह पितृसत्ता भी अपने ख़िलाफ़ किसी भी तरह की कोई चुनौती स्वीकार नहीं कर सकती है।

यह अपने समाज की बहुत बड़ी विडंबना है, जहां हमेशा पितृसत्ता के बताई ‘अच्छी महिला’ की परिभाषा में बने रहना और उनके मानकों के हिसाब से व्यवहार करना सही माना जाता है। लेकिन जैसे ही कोई महिला इन परिभाषाओं और मानकों से हटकर महिला अधिकार, आज़ादी और समानता की बात करती है तो पूरा समाज उसके ख़िलाफ़ खड़ा होने लगता है।

पितृसत्ता हमेशा से ही महिला एकता, समानता और अधिकारों के ख़िलाफ़ रही है। वहीं, दूसरी तरफ़ पितृसत्ता ने महिलाओं के लिए भेदभाव, ग़ैर-बराबरी और हिंसा की परतों को इतना मोटा और समय के हिसाब से बदला है कि उसे समझना बेहद मुश्किल है। यह बचपन से ही महिलाओं को अपने अनुसार तैयार करती है, जिसके चलते महिलाएं ख़ुद भी कहीं न कहीं हिंसा और भेदभाव की अभ्यस्त हो जाती हैं। इसका उदाहरण ये भी है कि कई बार महिलाएं घरेलू हिंसा के खिलाफ अपनी आवाज़ नहीं उठा पाती हैं क्योंकि वे पति का उन पर हाथ उठाना, उनके साथ हिंसा करना पति का हक़ समझती हैं। वे अपने साथ हो रही हिंसा की पहचान ही नहीं कर पाती हैं।

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पितृसत्ता के अनुसार तैयार की गई महिलाओं को जब उन्हें अपने आत्मसम्मान और महिला अधिकार के बारे में जागरूक करके उन्हें उनके बुनियादी अधिकारों के बारे में बताया जाता है तो यह समाज को खलने लगता है। यह खलल इतनी ज़्यादा होती है है कि आज़ादी और समानता को महिलाओं के जीवन से जोड़ने की दिशा में जब अन्य महिलाएं खुद आगे आती हैं तो उनके साथ बुरा व्यवहार किया जाने लगता है।

हम लोग जब भी महिलाओं को महिला हिंसा, उनके आर्थिक और सामाजिक अधिकारों के बारे में उन्हें जागरूक करते है या उन्हें उनके आत्मसम्मान के प्रति जागरूक करते हैं तो पूरा समुदाय, पूरा समाज हमें ‘बुरी महिला या घर तोड़नेवाली’ महिलाओं के वर्ग में रखता है।

हम लोगों को यह समझना होगा कि जब हमारे घरों में ही महिला हिंसा होती है तो ऐसे में महिला हिंसा को उजागर करनेवाले इसको तोड़ने वाले नहीं बल्कि इसको बचाने वाले हैं, जो सामाजिक कमियों को उजागर करके उन्हें दूर करने का काम कर रहे हैं। जिस तरह जब हम डॉक्टर के पास जाते है और वह हमें हमारी बीमारी के बारे में बताता है तो इसका मतलब ये नहीं है कि वह हमें मारना या नुक़सान पहुंचाना चाहता। बल्कि वह हमें हमारी बीमारी की पहचान करवाता है, जिससे हमें सही इलाज मिल सके और हमारी जान बच सके। ठीक इसी तरह समाज में सामाजिक बुराइयों पर आवाज़ उठानेवाले या महिलाओं को उनके अधिकारों के बारे में जागरूक करने वाले उनका नुक़सान नहीं बल्कि सामाजिक बुराइयों को दूर करना चाहते हैं। पितृसत्तामक समाज में यह बहुत चुनौती का काम है।

गाँव में कई बार सामाजिक कार्य से जुड़ी या फिर महिलाओं के हक़ में बात करने वाली महिलाओं को समाज इतनी बुरी नज़र से देखता या उनके साथ इतना क्रूर व्यवहार करता है कि अक्सर दूसरी महिलाओं को जागरूक करनेवाली या सशक्त करने वाली महिलाओं को लेकर समाज की धारणा नकारात्मक बन जाती है, जिसे दूर करना मौजूदा समय में बेहद ज़रूरी है। 

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तस्वीर साभार : अर्पिता विश्वास फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए

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