इंटरसेक्शनलजेंडर महिलाएं ही आखिर क्यों करें अपने नाम में बदलाव?

महिलाएं ही आखिर क्यों करें अपने नाम में बदलाव?

कई लोगों के लिए ये एक बेहद छोटा मुद्दा है मगर सभी को यह समझने की भी ज़रूरत है कि एक शख्स की पहचान उसके नाम से ही होती है।

नारीवादी आंदोलनों के बाद महिलाओं के अंदर चेतना जागृत होने लगी थी कि उन्हें अपनी पहचान से समझौता नहीं करना चाहिए। इस कड़ी में सबसे पहले उन महिलाओं ने स्वर छेड़ा जिनके पास शिक्षा का विषेशाधिकार था कि वे अपने नाम के साथ पति का उपनाम नहीं लगाएंगी और अपनी स्वतंत्र पहचान बनाएंगी। मन्नू भंडारी के पति का नाम राजेंद्र यादव था लेकिन उन्होंने अपने नाम में कोई परिवर्तन नहीं किया। कई लोगों को ये जानकारी भी नहीं होगी कि मन्नू भंडारी के पति का नाम क्या था क्योंकि उन्होंने पति के सरनेम को नहीं अपनाया था। ये दौर महिलाओं को उनकी अस्मिता और अस्तित्व से समझौता करना नहीं बल्कि अपनी पहचान को प्रगाढ़ करने की दिशा दे रहा था।

वहीं, अगर 90 के दशक की बात करें, तो इस दौर में महिलाओं ने अपने नाम को भले नहीं बदला लेकिन अपने नाम के अंत में अपने पति का सरनेम ज़रूर जोड़ लिया। हमारे आसपास ही ऐसे कई उदाहरण हैं। जैसे- प्रियंका गांधी वार्डा, ऐश्वर्या राय बच्चन आदि। अपने नाम को बरकरार रखने के साथ-साथ एक नई पहचान को बनाने की परंपरा 90 के दशक से शुरु हुई, जो आज भी चल रही है।

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भारत में बसे 29 राज्यों में कई विविधताएं हैं, जिसे हर तबका मानता है और संस्कृति मानकर उसका पालन करता है। उसी तरह बिहार समेत कई राज्य जैसे, उत्तर प्रदेश, राजस्थान आदि में महिलाओं को शादी के बाद कई उपनाम दिए जाते हैं। साथ ही कई जगह खासकर ग्रामीण इलाकों में शादी के बाद महिलाओं के नाम को बदलकर पति के नाम से जोड़कर बना दिया जाता है। जैसे, रवि की बहूरानी, फलाने की लुगाई आदि। मसलन, यहां कोई सरनेम नहीं लगाया जाता बल्कि असली पहचान को ही धूमिल कर दिया जाता है। 

“मुझे अपनी चौथे क्लास का वाकया याद आ रहा है, जब मदर्स डे कॉलम में हमें नाम लिखने से मना कर दिया गया था। तब मैंने अपनी बगल में बैठी दोस्त से पूछा कि क्यों नहीं लिखना है? तब उसने बताया कि मां का नाम सबको नहीं बताया जाता और वहां कुछ बच्चों को अपनी मां का असली नाम पता ही नहीं था।”

वहीं, कई जगहों पर असली नाम को तोड़-मरोड़कर कोई एक घरेलू नाम रख दिया जाता है। जैसे- नीलिमा का नीलू, विनीता का विनू आदि। हालांकि यहां लोगों का तर्क होता है कि यह नाम प्यार से बुलाने के लिए रखे गए हैं मगर इनकी असलियत कुछ और होती है। औरतों के नाम बदलने की प्रथा बरसों से चली आ रही है, जिसे पितृसत्तामक समाज का एक भाग कहना गलत नहीं होगा। मुझे अपनी चौथे क्लास का वाकया याद आ रहा है, जब मदर्स डे कॉलम में हमें नाम लिखने से मना कर दिया गया था। तब मैंने अपनी बगल में बैठी दोस्त से पूछा कि क्यों नहीं लिखना है? तब उसने बताया कि मां का नाम सबको नहीं बताया जाता और वहां कुछ बच्चों को अपनी मां का असली नाम पता ही नहीं था।

शादी के पहले लड़कियों के साथ उनके पिता का नाम जुट जाता है। यहां तक की स्कूल में फॉर्म भरने के दौरान भी फादर्स नेम का कॉलम मौजूद होता है और केयर ऑफ में पिता का नाम लिखा जाता है कि आप जिनके संरक्षण में हैं, उनका नाम होना चाहिए। यहां जब बात संरक्षण की आ गई है इसलिए पिता का नाम होना अनिवार्य है क्योंकि पैतृक ढ़ांचा शुरू से यही चला आ रहा है। शादी के बाद लड़कियों को अपने पति का संरक्षण प्राप्त हो जाता है, जिसके बाद उन्हें अपने नाम को बदलकर उसके साथ अपने पति का नाम या सरनेम जोड़ना पड़ता है। हालांकि, प्यार में नाम बदलने वाले पुरुषों की संख्या बहुत कम है क्योंकि सामाजिक ढ़ांचे के अनुसार पुरुषों को संरक्षण की आवश्यकता नहीं होती और वे वंश चलाने वाले होते हैं इसलिए उनके नाम के साथ छेड़छाड़ नहीं किया जाता। हालांकि अब महिलाएं स्वयं अपने नाम के साथ अपने पति या पार्टनर का सरनेम जोड़ना पसंद कर रही हैं, जिसके पीछे फिल्मी हस्तियों द्वारा नाम बदलने का ट्रेंड शामिल होता है मगर अपनी पहचान से समझौता कर लेना कहीं से तार्किक नहीं होता है। 

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हाल ही में बिहार के विपक्ष नेता तेजस्वी प्रसाद यादव ने रशेल गोडिन्हो (Rachel Godinho) के साथ विवाह के बंधन में बंधे हैं। देखा जाए तो यह बिहार की संस्कृति को बदलने वाला कदम है क्योंकि ये एक अंतरजातीय और अंतर धार्मिक-विवाह है और बिहार जैसे पिछड़े राज्य में में एक लोकप्रिया नेता का इस तरह के कदम उठाए जाना बहुत ज़रूरी है। लेकिन रशेल गोडिन्हो के नाम बदलने की कथित खबरों ने इस कदम को फीका कर दिया है। कई मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार अब रशेल गोडिन्हो राजेश्वरी यादव के नाम से जानी जाएंगी। हालांकि यहां यह स्पष्ट नहीं है कि उनके नाम में बदलाव सिर्फ बोलचाल की भाषा में हुआ है या कागजी तौर पर भी बदलाव हुए हैं।

कुछ लोगों का कहना है कि महिलाओं को सरनेम बदलने ही पड़ते हैं क्योंकि सरकारी कामों से लेकर पासपोर्ट बनवाने में परेशानी आती है। वहीं, प्रियंका गांधी ने भी अपनी शादी के बाद अपने पति का सरनेम जोड़ लिया था और प्रियंका गांधी वाड्रा बन गई थीं। इतना ही नहीं प्रियंका चोपड़ा ने भी अपनी शादी के बाद अपने नाम में निक जोनस का जोनस जोड़ लिया था। साथ ही सोनम कपूर ने भी अपने पति आनंद आहूजा का सरनेम जोड़कर अपने नाम में बदलाव किए थे। 

भले ही मुख्यधारा में लोग इन्हें महिला सशक्तिकरण के मिसाल के तौर पर जानते हैं लेकिन अपने नाम में बदलाव करने को सशक्तिकरण की परिभाषा कतई नहीं दी जा सकती मगर बड़ी हस्तियों ने भी नामों में बदलाव करके अजीबो गरीब तर्क पेश कर दिए थे। जैसे ये तो चॉइस की बात है लेकिन यहां कोई चॉइस होती ही नहीं है बल्कि महिला को किसी निश्चित खानदान की संपत्ति के तौर पर पेश करने के लिए ही सरनेम को थोपा जाता है। 

कई लोगों के लिए ये एक बेहद छोटा मुद्दा है मगर सभी को यह समझने की भी ज़रूरत है कि एक शख्स की पहचान उसके नाम से ही होती है। उसका अपना अस्तित्व नाम से ही जुड़ा होता है मगर जब एक झटके में ही नाम के साथ छेड़छाड़ हो जाती है, तब इतने सालों की मेहनत और पहचान धूमिल हो जाती है, जो कहीं से भी सही नहीं है। आज जब बात समानता की हो रही है, तब महिलाओं के नामों में बदलाव की असमानता भी बंद होनी चाहिए क्योंकि ये असमानता पितृसत्तामक समाज को व्यक्त करने के लिए ही की जाती है। 

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