फिल्मों में औरतों के किरदार हमेशा से एक ही तरीके से गढ़े जाते हैं। लगभग सारी फिल्मों में औरतों का किरदार मर्दों की सहायक भूमिका में ही रहा है। मुख्य रूप से उनके किरदार को फिल्म के केंद्र में नहीं रखा गया। आमतौर पर फिल्में ऐसे ही बनती है जिसमें सारे साहसी काम मर्दों के होते है। मगर साल 2006 में आई फिल्म ‘डोर’ ने फिल्मों में दिखाई जानेवाली औरतों की रूढ़िवादी छवि को तोड़ा। नागेश कुकनुर द्वारा लिखी और निर्देशित ये फिल्म यूं तो एक मलयालम फिल्म का रीमेक है मगर रीमेक में भी फिल्म की कहानी को खूबसूरती से पर्दे पर उतारा गया है। इसमें महिलाओं के किरदारों को बेहद खूबसूरती से गढ़ा गया है।
इस फिल्म की कहानी दो ऐसी औरतों के इर्द-गिर्द घूमती है जिनकी सोच और ज़िंदगियां एक दूसरे से बिलकुल अलग हैं। मगर एक हादसा दोनों को एक-दूसरे के सामने लाकर खड़ा कर देता है। एक ओर हिमाचल प्रदेश की रहनेवाली ज़ीनत है जो आत्मविश्वास से भरपूर महिला है और अपनी ज़िंदगी अपनी शर्तों पर जीती है। दूसरी ओर राजस्थान की रहनेवाली मीरा है, जो एक पारंपरिक राजस्थानी परिवार की बहू है।
ज़ीनत और मीरा दोनों के पति शंकर और आमिर, सऊदी अरब में साथ रहते काम करते थे। जहां शंकर की मौत हो जाती है। साथ रहने के कारण इसका इल्ज़ाम आमिर पर आ जाता है और उसे फांसी की सजा दी जाने वाली होती है। सऊदी के कानून के हिसाब अगर मृतक की पत्नी कातिल को माफ़ कर दें तो वह उस सजा से बच सकता है। अपने पति को बचाने के लिए ज़ीनत मीरा को ढूंढने हिमाचल प्रदेश से राजस्थान आती है ताकि वह उससे माफ़ी मांग कर आमिर की जान बचा सकें।
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यह फिल्म औरतों के मन में घर कर गई सामजिक बंधनों को भी बखूबी दिखाती है। यह दिखाती है कि औरतों के अंदर पितृसत्तात्मक परम्पराएं किस तरह से भर दी गई हैं कि वे अपना जीवन जीने के हक़ को ही पाप समझने लगती हैं।
यह फिल्म बहुत गहराई से छोटे-बड़े सभी मुद्दों को साथ लेकर चलती है। फिल्म में मीरा (आयशा टाकिया) का किरदार स्त्री मन में बसी बंदिशों और सामाजिक बेड़ियों को बहुत ही प्रभावी रूप से प्रस्तुत करता है। शुरुआत से जब तक मीरा का पति जीवित होता है तब तक उसे हंसने और खुश रहने का अधिकार होता है, परिवार में उसकी एक जगह और एक इज्ज़त होती है। मगर जैसे ही उसके पति की मौत होती है उससे हंसने-बोलने,अच्छा खाने-पीने अपनी पसंद के कपड़े पहनने, यहां तक कि खुश रहने तक के भी सब अधिकार छीन लिए जाते हैं। पति के बिना एक औरत के अस्तित्व को कैसे नकार दिया जाता है, मीरा का किरदार इसका सटीक उदाहरण है। इसके आलावा यह फिल्म औरतों के मन में घर कर गई सामजिक बंधनों को भी बखूबी दिखाती है। फिल्म में दिखाया गया है कि औरतों के अंदर पितृसत्तात्मक परम्पराएं किस तरह से भर दी जाती हैं जिससे वे अपना जीवन जीने के हक़ को ही पाप समझने लगती है।
फिल्म के एक सीन में जब मीरा का पसंदीदा गाना बजता है तो वह सबसे नज़रें बचाकर उस पर जरा सा नाचकर खुश हो लेती है। नाचने के बाद उसे खुद ही इस बात पर अफ़सोस होता है कि उसने कुछ गलत किया है। वह विधवा है और उसे अपने पति की मौत का दुख होना चाहिए। रसगुल्ले खाने के बारे में पूछने पर भी मीरा कहती है कि उसको इसकी इजाज़त नहीं है। इतना ही नहीं इस बात को सही साबित करने के लिए कहती है कि अपने लिए जीना स्वार्थ है। इसके अलावा जब मीरा और ज़ीनत बहरूपिये के साथ ऊंट की सवारी करने जाती हैं वहां भी वह अपना पल्लू संभाले रखती है। उसके मन में एक भी बार यह ख्याल नहीं आता है कि जब यहां कोई रोकने-टोकने वाला नहीं है तो वह सर क्यों ढंककर चल रही है।
कैसे एक हंसती-खेलती औरत को यह समाज झटके में ज़िंदा लाश समान बना देता है यह बात फिल्म में मीरा के माध्यम से बखूबी प्रस्तुत की गई है। वह दृश्य जिसमें मीरा अपने लिए समय निकलती नज़र आती है सारे सामजिक बंधनों को जानते हुए यह बखूबी दर्शाते हैं कि उसके कपड़ों के रंग भले ही बदले हो मगर उसके मन का इंद्रधनुष कोई नहीं मिटा सकता।
बचपन से पितृसत्तात्मक बातें कैसे एक लड़की के मन में कूटकर भरी जाती हैं और एक वक़्त के बाद वह खुद को ही उसका हिस्सा मानने लगती है। इन दृश्यों से इस बात को बखूबी समझा जा सकता है। मीरा को एक बार भी इस बात की टीस नहीं होती कि शंकर की मौत ने उसकी ज़िंदगी क्यों छीन ली, क्योंकि वह इसे ही अपनी नियति मान चुकी है।
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मीरा ज़ीनत से बात करते हुए यह बताती है कि कैसे शंकर को रेत पर बैठकर डूबता हुआ सूरज देखना पसंद था। वह मीरा को हमेशा ऐसी जगह ले जाना चाहता था जहां उसे पर्दा करने की जरूरत न पड़े। जो शंकर मीरा की ख़ुशी चाहता था उसी को वजह बनाकर यह समाज मीरा से उसके जीने का हक़ छीन लेता है। फिल्म में अहम किरदारों में से एक मीरा की विधवा दादी हैं। जो परिवार से अलग नीरस जीवन जीने के लिए मजबूर हैं। अपना जीवन छिन जाने के बाद शुरुआत में मीरा का बचपना उनकी आंखों को चुभता है मगर उसकी स्थिति भी जब वह अपने जैसा ही पाती हैं तो उसे वहां से मुक्त करना चाहती है। वह उसे अपने मन की बात सुनने को कहती हैं और चाहती हैं कि कम से कम वह इस कोठरी से निकलकर अपना जीवन जी सकें।
कैसे एक हंसती-खेलती औरत को यह समाज झटके में ज़िंदा लाश समान बना देता है। यह बात फिल्म में मीरा के माध्यम से बखूबी प्रस्तुत की गई है। वह दृश्य जिसमें मीरा अपने लिए समय निकलती नज़र आती है, सारे सामजिक बंधनों को जानते हुए यह बखूबी दर्शाते हैं कि उसके कपड़ों के रंग भले ही बदले हो मगर उसके मन का इंद्रधनुष कोई नहीं मिटा सकता है। आखिर में अपने लिए फैसला लेकर जब मीरा अपने सारे बंधन पीछे छोड़कर ट्रेन पकड़ती है तब देखने वालों को भी लगता है जैसे उनकी भी कोई ट्रेन छूटते-छूटते बची हो। दो औरतों के जीवन और उनके साहस को दिखाती यह कहानी बॉलीवुड की पारंपरिक फिल्मों से बहुत अलग और उम्दा है।
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