संस्कृतिसिनेमा हॉरर के साथ सोशल मेसेज देने में कामयाब रही है ‘छोरी’

हॉरर के साथ सोशल मेसेज देने में कामयाब रही है ‘छोरी’

कुप्रथाओं और रूढ़ियों वाली कहानी में हॉरर का तड़का लगाने का फॉर्मूला इस फिल्म में भी सफल रहा है। यकीन मानिए फिल्म जितनी डरावनी है उससे कई गुना ज्यादा डरावना है वह आंकड़ा जो फिल्म खत्म होने बाद स्क्रीन पर उभरता है। एक कुएं में बच्चियों की लाशों के ढेर वाला दृश्य बहुत कुछ कहता है।

‘‘हर छोरी में एक माँ होती है और माँ से बड़ा ना कोई ओहदा होता है ना किसी की औकात।’’ छोरी फिल्म का यह एक संवाद अपने आप में पितृसत्ता का ग्रंथ है। हर छोरी (लड़की) के लिए माँ बनने की अनिवार्यता तय करने से लेकर माँ के लिए छद्म दैवीय ओहदा गढ़ना पितृसत्ता को बनाए रखने का षड्यंत्र है। किसी के माँ बनने या ना बनने जैसे नितांत निजी मामले पर ‘राष्ट्रीय समस्या’ के स्तर की चिंता व्यक्त करने वाले हमारे समाज में ‘छोरी’ फिल्म को सराहनीय की श्रेणी में रखा जा सकता है। साल 2016 में रिलीज हुई मराठी फिल्म ‘लपाछपी’ का हिन्दी रीमेक ‘छोरी’ अमेज़न प्राइम वीडियो पर स्ट्रीम हो रहा है। मूल मराठी फिल्म के डायरेक्टर विशाल फुरिया ने ही ‘छोरी’ को डायरेक्ट किया है।

कुप्रथाओं के नाम पर छोरियों यानी कन्याओं की हत्या और भ्रूण हत्या के खिलाफ सामाजिक संदेश देने के साथ खत्म होती ये फिल्म बॉलीवुड में क्लीशे (घिसी-पिटी) की राह पर जा रही एक शैली का हिस्सा है। इस थीम पर बॉलीवुड में एक-दो फ़िल्में कमाई कर चुकी हैं तो अब थोक के भाव इसी थीम पर फिल्म बनाई जा रही है और जहां जरूरत नहीं है वहां भी सोशल मेसेज घुसाए जा रहे हैं। पूरी फिल्म में कास्ट, क्लास, जेंडर को दरकिनार करने वाली फिल्में भी क्लाइमेक्स में सोशल मैसेज डालकर अपनी नैया पार लगाने की चालाकी कोशिश कर रही हैं। दरअसल, बॉलीवुड पिछले कुछ समय से महिलाओं से जुड़ी कुप्रथाओं पर वार करने की नरम कोशिश कर रहा है। छोरी उसी कोशिश की अगली कड़ी है। कन्या भ्रूण हत्या की भयावहता को दिखाने के साथ-साथ पितृसत्ता पर हल्की चोट करती यह फिल्म बांधे रखती है।

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कहानी क्या है?

बच्चों का एनजीओ चलाने वाली एक गर्भवती औरत है। आठ महीने की गर्भवती इस महिला के पति पर काफी लोन होता है। ऐसे में खुद को छिपाने के लिए पति अपनी पत्नी को लेकर अपने ड्राइवर के गांव आ जाता है। यहां शुरू होती हैं अजीबो-गरीब घटनाएं। फिल्म में तंत्र-मंत्र और कथित डायन से लेकर कथित आत्मा तक को दिखाया गया है। हिंदी दर्शकों के लिए फिल्म के निर्देशक और लेखक विशाल फुरिया कहानी को उत्तर भारत के किसी गांव में ले आए हैं। क्षेत्र का ज़िक्र तो नहीं मिलता लेकिन किरदारों के लहजे और पहनावे से यह हरियाणा या पश्चिमी उत्तर प्रदेश का कोई गांव लगता है।

कुप्रथाओं और रूढ़ियों वाली कहानी में हॉरर का तड़का लगाने का फॉर्मूला इस फिल्म में भी सफल रहा है। यकीन मानिए फिल्म जितनी डरावनी है उससे कई गुना ज्यादा डरावना है वह आंकड़ा जो फिल्म खत्म होने बाद स्क्रीन पर उभरता है। एक कुएं में बच्चियों की लाशों के ढेर वाला दृश्य बहुत कुछ कहता है।

फिल्‍म की कहानी पर ज्यादा बात करने का मतलब होगा फिल्‍म के बारे में स्पॉइलर देना। यहां जानने लायक बस यह है कि गांव में पहुंचकर गर्भवती महिला को तीन बच्चे दिखाई देने लगते हैं, लोरी सुनाई देती है और कई राज़ सामने आते हैं। क्या है राज़? जानना है तो फिल्म देखिए। यहां बस इतना जान लीजिए की हॉरर कैटेगरी की यह फिल्म एक जरूरी मैसेज देने की कोशिश करती है। बस समस्या यह है कि एक दर्शक के तौर पर डर ज्यादा और फिल्म का मुख्य संदेश कम प्राप्त हो पाता है।

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डर के व्यापार में संदेश का नुकसान

दरअसल, विशाल फुरिया ने जिस हॉरर कहानी के सहारे मेसेज को पहुंचाने की कोशिश की है वह मैसेज कहानी में मिलकर दर्शकों की चीख निकालने में तो कामयाब हो रही है। लेकिन इस बीच सोशल मैसेज की आवाज़ कहीं दब जा रही है। हालांकि इस फैक्टर से फिल्म की कमाई करने की संभावना बढ़ जाती है। पिछले साल आई अन्विता दत्त द्वारा निर्देशित ‘बुलबुल’ हॉरर और सोशल मेसेज का संतुलन साधने में कामयाब रही थी। शायद उसकी एक वजह महिलाओं द्वारा महिलाओं की कहानी कहना भी है। अन्विता दत्त ने बुलबुल के निर्देशन के अलावा लेखन का काम भी किया था।  

‘औरत ही औरत की दुश्मन होती है’ जैसे महा-क्लीशे को अलग कर दें तो फिल्म उतनी भी बुरी नहीं है। कुप्रथाओं और रूढ़ियों वाली कहानी में हॉरर का तड़का लगाने का फॉर्मूला इस फिल्म में भी सफल रहा है। यकीन मानिए फिल्म जितनी डरावनी है उससे कई गुना ज्यादा डरावना है वह आंकड़ा जो फिल्म खत्म होने बाद स्क्रीन पर उभरता है। एक कुएं में बच्चियों की लाशों के ढेर वाला दृश्य बहुत कुछ कहता है। फ़िल्म के आखिर में एक जानकारी मिलती  है कि जितने समय में आपने यह फ़िल्म देखकर पूरी की है उतने से समय में इस देशभर में 113 लड़कियां कोख में मारी जा चुकी हैं। यह आंकड़ा यूनाइटेड नेशनल पॉपुलेशन फंड के सालाना ‘स्टेट ऑफ वर्ल्ड -2020′ से लिया गया है।

कोख में लड़कियों के मारने के कई कारण हो सकते हैं। फिल्म में परंपरा और रुढ़िवादी विचार को इसका कारण बताया गया है। यहां फिल्म के एक डायलॉग का जिक्र मौजूद होता है। जिस ड्राइवर के गांव में ये सब चल रहा होता है, उसी ड्राइवर की पत्नी कहती है, “छोरे से वंश आगे बढ़े है और छोरियां…” फिल्म एक सामाजिक बुराई कन्या भ्रूण हत्या पर केन्द्रित है लेकिन निर्देशक इस बात में भ्रमित लगता है कि वह दर्शकों को डराना चाहते हैं या भ्रूण हत्या पर बात करना चाहते हैं।

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तस्वीर साभार : Jagran.com

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