नारीवाद पगलैट : विधवा औरतों के हक़ की बात करती फिल्म कहीं न कहीं निराश करती है

पगलैट : विधवा औरतों के हक़ की बात करती फिल्म कहीं न कहीं निराश करती है

“जब लड़की लोगों को अकल आती है न तो सब उन्हें पगलैट ही कहते हैं।” पगलैट’ की पूरी कहानी, फिल्म के इसी सबसे दमदार डायलॉग की कहानी है।

पगलैट, हिंदी का एक बिगड़ा हुआ शब्द, जो उत्तर भारत के कई राज्यों में रोज़ की बातचीत में प्रयोग होता है, अमूमन नकारात्मक रूप में बोला जाता है। मानसिक बीमारी का सामना कर लोगों के लिए भी अक्सर इसका प्रयोग होता है। लेकिन उमेश बिष्ट द्वारा निर्देशित फिल्म ‘पगलैट’ में इस शब्द को अलग मायने देने की कोशिश की गई है और इस कोशिश के लिए फिल्म की तारीफ होनी चाहिए। “जब लड़की लोगों को अकल आती है न तो सब उन्हें पगलैट ही कहते हैं।” पगलैट’ की पूरी कहानी, फिल्म के इसी सबसे दमदार डायलॉग की कहानी है। फिल्म के ट्रेलर में इस डायलॉग का होना फिल्म को देखने की उत्सुकता की वजह बनता है और यकीनन जब फिल्म ख़त्म हो जाती है तो यह डायलॉग फिल्म का सबसे बड़ा ‘टेक-अवे’ मालूम होता है। इस पितृसत्तात्मक समाज में एक विधवा से आमतौर पर उम्मीद किए जाने वाले रूढ़िवादी व्यवहार से इतर देखती ‘पगलैट’ कुछ हद तक एक महिलाओं के अधिकारों पर बात करनेवाली फिल्म कही जा सकती है। फिर चाहे वह विधवाओं का सफ़ेद साड़ी पहनने का ‘रिवाज़’ हो या किसी के विधवा हो जाने पर एक तय तरीके के अनुसार पेश आना, पगलैट बनाए गए ऐसे सभी दकियानूसी ‘नियमों’ की पोल खोलती फिल्म है। ‘द लास्ट कलर’ के बाद यह फिल्म भी एक विधवा संध्या (सान्या मल्होत्रा) की कहानी है। उसकी आज़ादी तक के सफर की कहानी है।

संध्या एक पढ़ी-लिखी लड़की है। इंग्लिश में उसने एम.ए किया है। अपने समय की टॉपर रही है मगर उसकी एक ऐसे लड़के के साथ शादी हो जाती है जिसे वह जानती भी नहीं है। इस अरेंज्ड मैरिज का परिणाम यह होता है कि शादी के पांच महीने बाद भी संध्या अपने पति, उसकी निज़ी ज़िंदगी, उसके काम, दोस्तों वगैरह से अनजान ही रहती है। पढ़ी-लिखी होने के बावजूद संध्या कहीं नौकरी भी नहीं करती। लिहाज़ा उसके बहुत दोस्त भी नहीं हैं। पांच महीने की अरेंज्ड मैरिज के बाद संध्या के पति आस्तिक की अचानक मौत हो जाती है।

आस्तिक की आकस्मिक मृत्यु के बावजूद आस्तिक और संध्या के एक दूसरे को ठीक से न जानने के कारण संध्या अपने पति की मौत का दुख महसूस करने में असमर्थ है। उसकी न तो आंखों में कोई आंसू हैं और न दिल में कुछ खो जाने का दर्द बल्कि 13 दिनों तक घर में शोक के दौरान भी उसकी ज़ुबान चिप्स, पेप्सी और गोलगप्पे खाने के लिए चटपटा रही है। लिहाज़ा यहीं पर शुरू होती है उम्मीद और वास्तविकता की लड़ाई। फिल्म में आस्तिक की पत्नी (संध्या) और उसकी गर्लफ्रेंड (आकांक्षा) के रिश्ते का फिल्मांकन भी फिल्म का बड़ा ‘टेक-अवे’ है। इन दो खूबसूरत किरदारों के बीच का रिश्ता काफी ‘रेफ्रेशिंग’ है। एक अजनबी परिवार में, एक खोखले रिश्ते का बिखर जाना जब संध्या में कोई दुख के भाव पैदा नहीं करता, तब आकांक्षा का अपनी ज़िंदगी में स्वाधीन होना, संध्या को उम्मीद देता है। अपने पैरों पर खड़े हो सकने की उम्मीद।

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पिछले लगभग पांच साल में देश के छोटे-छोटे शहरों में बसी कहानियां बड़े परदे पर आई हैं। लखनऊ, कानपुर, बरेली जैसे छोटे शहरों के मिडल क्लास परिवारों पर फिल्माई गई इन फिल्मों में महिलाओं को रूढ़िवादी ढांचे में न ढालकर एक अलग नज़रिए से देखने की कोशिश दिखाई पड़ती है। फिर चाहे वह दम लगा के हईशा (2015) हो, बरेली की बर्फी (2017) हो या बधाई हो (2018) हो। इन सभी फिल्मों ने उन मुद्दों को लेकर सजगता फैलाने की कोशिश करी है जिसपर बॉलीवुड की फिल्मों में आम तौर पर बात नहीं होती है। पगलैट इसी कड़ी की एक और फिल्म है। डायरेक्टर उमेश बिष्ट ने बहुत महीन चीज़ों पर ध्यान देते हुए फिल्म को ‘लाइट वेट’ रखने की भी कोशिश करी है।

फिल्म में कई जगहें ऐसी हैं जहां पर आप समाज के कई दकियानूसी ‘रिवाज़ों’ पर मंथन करने को मजबूर होते हैं। महिलाओं की स्थिति पर विचार करने को मजबूर होते हैं। फिल्म में सभी कलाकारों ने बेहतरीन काम किया है। फिर वह चाहे फिल्म की नायिका सान्य मल्होत्रा रही हो या फिर बाकी कलाकार। आशुतोष राणा, शीबा चड्ढा, सयानी गुप्ता, रघुबीर यादव, आसिफ़ ख़ान सरीखी सपोर्टिंग कास्ट ने हमेशा की तरह दमदार काम किया है। एक्टिंग के मामले में हर कलाकार का काम सराहनीय है। ‘पगलैट’ अरिजीत सिंह का म्यूजिक कंपोजर के तौर पर पहला प्रोजेक्ट है, उन्होंने कमाल किया है। फिल्म के गाने भी बेहद अच्छे हैं। ख़ास तौर पर ‘दिल उड़ जा रे’ और ‘थोड़े कम अजनबी’। ‘दिल उड़ जा रे’ के बोल लिखे हैं नीलेश मिश्रा ने और गाया है नीति मोहन ने। ‘थोड़े कम अजनबी’ जिसे हिमानी कपूर ने गाया है, संध्या और आकांक्षा पर फिल्माया गया है।

एक तरफ जहां ‘पगलैट’ महिलाओं के बारे में रूढ़िवादी ढांचे से बाहर आकर देखने की कोशिश करती है, वहीं फिल्म में कुछ जगहें ऐसी भी हैं जिसमें उन्हें उसी रूढ़िवादी तराजू में तौला गया है। फिल्म के आखिर में जब संध्या लाइफ इंश्योरंस से मिले पैसों का चेक अपने सास-ससुर के लिए छोड़कर जाती है तब एक बार फिर से हम महिलाओं से उनके आवश्यक तौर पर ‘केयरिंग’ होने और ‘दिल के अच्छे’ होने की अपेक्षा करने लगते हैं। एक बार फिर से हम सिर्फ महिलाओं पर ही ‘आदर्श’, ‘सुशील’ होने का भार डालने लगते हैं। संध्या की शादी हुए सिर्फ 5 महीने ही हुए हैं और उस दौरान वह एक अजनबी परिवार और उसकी आदतों को अपना नहीं पाई है। ऐसे में फिल्म में यह दिखाना कि संध्या अपने मां-बाप की आर्थिक हालत जानते हुए भी अपने सारे पैसे सास-ससुर को दे जाती है, प्रॉब्लमेटिक मालूम पड़ता है। यहां पर दिक्कत सिर्फ महिलाओं के केयरिंग होने में नहीं हैं, दिक्कत है पुरुषों से भी केयरिंग होने की अपेक्षा न करने में। स्थिति तब दिलचस्प होती जब संध्या की जगह आस्तिक होता। मैं यकीनी तौर पर कह सकती हूं कि तब आस्तिक से हमारा पितृसत्तात्मक समाज संध्या के माता-पिता की आर्थिक तौर पर मदद करने की अपेक्षा नहीं करता।बल्कि तब यह समाज आस्तिक को दोबारा शादी करने के लिए प्रोत्साहित करता।

इतना ही नहीं, अंत में संध्या अपने सास-ससुर को आर्थिक रूप से मदद देने का भी वादा करती है। ठीक वैसे ही जैसे आस्तिक करता, यहां ऐसा मालूम पड़ता है कि संध्या खुद की काबिलियत को, खुद के वजूद को सेलिब्रेट करने के बजाय आस्तिक ‘जैसा’ बनने की कोशिश करती है और ऐसा सिर्फ एक ही मौके पर नहीं है। एक और जगह संध्या अपना सबसे पसंदीदा रंग ब्लू बताती है जबकि ब्लू आस्तिक का सबसे पसंदीदा रंग है। यह अपने आप में बहुत समस्यात्मक चीज़ है। आस्तिक का फिल्म से गायब होने के बावजूद हर चीज़ आस्तिक के चारों तरफ घूमती हुई मालूम पड़ती। 

इस पितृसत्तात्मक समाज में शादी के पहले एक लड़की चाहे जितना पढ़-लिख ले मगर शादी के बाद आमतौर पर उससे सिर्फ घर में रहकर घर के काम करने और घर के ही के लोगों तक सीमित रहने की उम्मीद की जाती है। एक पुरुष से जहां ऑफिस जाकर पैसे कमाने की तो एक औरत से सिर्फ बच्चे पालने जैसे कामों की उम्मीद होती है, मानो बच्चों के पालन पोषण की ज़िम्मेदारी सिर्फ औरतों पर ही हो। जिस तरह हर स्थिति में एक औरत से तय तरीके के अनुसार उससे व्यवहार अपेक्षित होता है, उसी तरह विधवा हो जाने पर भी ऐसा ही होता है। घर के बेटे की मौत पर जहां उसकी पत्नी की सामाजिक हैसियत को लेकर लोगों में अंतर्द्वंद्व होता है, वहीं, घर की बहू की मौत पर विधुर को अपनी ज़िन्दगी में आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। ऐसे में ‘पगलैट’ इस सोच को चुनौती देने की कोशिश करती है। अच्छी कलाकारी और अच्छे गानों के साथ ‘पगलैट’ भले एक परफेक्ट नारीवादी फिल्म न बन पायी हो, मगर एक कोशिश करने के लिए इस फिल्म को देखा जा सकता है।

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तस्वीर साभार : Netflix

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