चौदह साल ही नंदनी छतेरी गाँव की रहने वाली है। नंदनी के ऊपर खाना बनाने, बर्तन धोने और अपने छोटे भाई को संभालने की ज़िम्मेदारी है। हर दिन सुबह चार बजे उठकर वह अपने हिस्से का काम ख़त्म करती है और आठ बजे हम लोगों की पाठशाला का हिस्सा बनती है। नंदनी पढ़ना चाहती और बड़ी होकर नौकरी करना चाहती है। इस पर जब मैंने नंदनी से बात की तो उसने बताया, “हम लोग छोटी जाति से हैं और हम लोगों के पास अपनी ज़मीन भी नहीं है, जिसकी वजह से मेरे माता-पिता छोटी-मोटी मज़दूरी का काम करते हैं। पिता शराब पीते हैं और हर रोज़ माँ को मारते हैं। मेरे आसपास के घरों में भी ऐसा ही होता है पर मैं बड़ी होकर मार नहीं खाना चाहती हूं, इसलिए हमें पढ़ना है नौकरी करना है, जिससे मैं इज़्ज़त की ज़िंदगी जी सकूं।” नंदनी क्लास में हर गतिविधि में हिस्सा लेती है पर सप्ताह में दो से तीन बार ज़रूर ऐसा होता है जब मुझे खुद उसे घर जाकर बुलाना पड़ता है। इसकी वजह है उसका कमज़ोर पड़ता आत्मविश्वास।
ऐसा तब होता है जब उसके पिता शराब पीने के बाद उसकी माँ और अक्सर उसके साथ भी बुरी तरह मारपीट करते हैं। तब वही नंदनी जो अपने विकास के लिए हर दिन मेहनत करके पढ़ने आती है वह थक-हारकर अपने घर बैठने को मजबूर हो जाती है, क्योंकि उसका भविष्य अंधेरे में ही दिखाई पड़ता है। यह वही ज़मीनी सच्चाई है, जो लगातार सामुदायिक स्तर पर महिलाओं, किशोरियों की शिक्षा को प्रभावित करती है, ख़ासकर हाशियबद्ध समुदाय को। पाठशाला में पढ़नेवाली कई लड़कियों के साथ ऐसा ही होता है, जब वे क्लास से नए सपने लेकर अपने घर जाती हैं, पर फिर घर में अपनी माँ-बहन और घर की दूसरी औरतों की हालत देखकर अपने कदम पीछे खींच लेती हैं।
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सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़, साल 2011 में भारत में कुल साक्षरता का प्रतिशत 74.00 था, जिसमें महिला साक्षरता 65.46 प्रतिशत थी। शिक्षा के स्तर पर महिला-पुरुष के बीच इस प्रतिशत के फ़र्क से स्थिति का अनुमान लगा सकते हैं। जब हम लोग इस शिक्षा-प्रतिशत के मानक को भी देखने की कोशिश करते हैं तो ये पाते हैं कि जो पढ़ने-लिखने में सक्षम हो वह साक्षर कहलाता है। इस न्यूनतम साक्षरता के आधार पर सपने देखने की हिम्मत शायद ही कोई कर पाता है। ये हम लोगों के समाज की सच्चाई है कि आज भी हाशिएबद्ध समुदाय में महिलाओं और लड़कियों को खुद के लिए शिक्षा और फिर रोज़गार का सपना देखना एक नामुमकिन सी बात लगती है।
इसलिए ज़रूरी है कि ‘बेटी पढ़ाओ’ के नारों को सिर्फ़ नारे तक ही नहीं बल्कि ज़मीन से भी जोड़ा जाए और ये सुनिश्चित किया जाए कि लड़कियों के बढ़ते कदम रुके नहीं
लड़कियों की शिक्षा को लेकर जब मैंने गाँव के सरकारी स्कूल की एक शिक्षिका से बात की तो उन्होंने नाम न छापने की शर्त पर बताया, “हम लोगों के स्कूल में जो भी बच्चियाँ पढ़ने आती है उनकी उम्र से कई गुना ज़्यादा उनपर काम का बोझ थोप दिया जाता है, जिसके चलते जैसे-जैसे उनकी क्लास बढ़ती है, शिक्षा को लेकर उन्हें सपने धुंधले पड़ने लगते हैं। यही वजह है कि क्लास बढ़ने के साथ-साथ स्कूल से लड़कियों का ड्रॉपआउट होना शूरू हो जाता है। आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में जाति, वर्ग के आधार पर हाशिएबद्ध समुदाय के बच्चे उच्च जाति, वर्ग और संपन्न परिवार के बच्चों की अपेक्षा ज़्यादा सरकारी स्कूल में पढ़ने आते हैं। बहुत बार हम लोग अपने स्कूल की बच्चियों को चार-पांच साल बाद देखते हैं तो पाते हैं कि चौथी-पांचवी क्लास की पढ़ाई के बाद उनकी पंद्रह-सोलह साल में शादी कर दी जाती है।”
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शिक्षा किसी भी सामाजिक बदलाव में अहम भूमिका निभाती है और शिक्षा के बिना किसी भी विकास की कल्पना नहीं की जा सकती है। नंदनी जैसी लाखों हाशिएबद्ध समुदाय की लड़कियां हर दिन शिक्षा और विकास के सपनों से भी दूरी बना लेती हैं, क्योंकि हमारा जातिवादी समाज उन्हें इसकी अनुमति नहीं देता है। हर दिन घर में घरेलू हिंसा का सामना करती महिलाओं को देखकर बड़ी होती लड़कियां शिक्षा और विकास के सपनों से दूर हो जाने पर ही अपनी भलाई समझती है। ये वे चुनौतियां हैं जो महिलाओं और लड़कियों को सालों पीछे धकेलने का काम करती हैं और वो एक समय के बाद बाल विवाह, ज़बरन विवाह, कम उम्र में माँ बनने जैसी अलग-अलग मुश्किलों के चंगुल में फंस जाती हैं।
नंदनी जैसी कई लड़कियां हर दिन समाज की कंडिशनिंग का शिकार होती हैं और अपने सपनों-अपनी पहचान को लेकर अपने कदम को पीछे खींचने के लिए मजबूर हो जाती हैं। इसलिए ज़रूरी है कि ‘बेटी पढ़ाओ’ के नारों को सिर्फ़ नारे तक ही नहीं बल्कि ज़मीन से भी जोड़ा जाए और ये सुनिश्चित किया जाए कि लड़कियों के बढ़ते कदम रुके नहीं, क्योंकि शिक्षा के तरफ़ उनके बढ़ते कदम घर में होनेवाली घरेलू हिंसा पर भी लगाम लगाने को अकेले काफ़ी होंगे अगर लड़कियों को शिक्षा और विकास का पूरा अवसर मिले।
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तस्वीर साभार: Give India