हम इंसान यह कैसे तय कर सकते हैं कि कौन सुंदर है?, हम कैसे सुंदरता के नियम बना सकते हैं? यह ‘देखनेवालों’ से जुड़ा सामान्य सा विषय नहीं है बल्कि यह पितृसत्तात्मक पूंजीवादी बाज़ार द्वारा पाले-पोसे विचारों का एक झूठा नज़रिया है। इस नज़रिये लोगों के दिमाग में स्थापित कर दिया गया है। दुनिया में सुंदरता के तय पैमानों को लेकर एक बहुत बड़ा ऑब्सेशन है। गोरी त्वचा, छोटी नाक, और लंबे सीधे बाल जैसे मानदंड बनाकर विश्व में सुंदरता बढ़ाने के नाम पर एक पूरी अर्थव्यवस्था स्थापित की हुई है। सुंदरता को बढ़ाने के इस बाजार में महिलाएं पहली उपभोक्ता हैं।
हम एक पितृसत्तात्मक और महिला विरोधी समाज में रहते हैं जहां यह समझा जाता है कि महिलाओं पर पुरुषों का अधिकार होता है। उन्हें एक ‘सामान’ के तौर पर देखा जाता है। महिलाओं को सुंदर दिखना चाहिए, पुरुषों के लिए आकर्षक होना चाहिए, पुरुषों के द्वारा उन्हें पसंद किया जाना चाहिए। पुरुषों की इस दुनिया में महिलाओं पर उनके अनुसार दिखने के लिए यूरोप के बने सुंदरता के स्टैंडर्ड फॉलो करने का दबाव है। पुरुषों का दबाव इसलिए क्योंकि इस पूरी मार्केट की कमान उन्हीं के हाथ में है जो महिलाओं के शोषण और उनके साथ होनेवाली हिंसा का भी एक तरीका है।
दुनिया में 15वीं शताब्दी के बाद से, व्यवस्थित यूरोपीय उपनिवशेकरण के बाद से गोरी त्वचा वालों को श्रेष्ठता के तौर पर देखा गया। इसी के साथ ‘वाइट सुपरमेसी’ ने एक बर्बरता को भी जन्म दिया। आज यूरोसेंट्रिक सुंदरता के पैमानों ने पूरी दुनिया में अपने पैर पसारे हुए। एशिया, अफ्रीका, यूरोप और ग्लोब के किसी भी हिस्से की महिला हो उन्होंने कभी न कभी अपने जीवन में तथाकथित सुंदरता के पैमानों पर खरा न उतरने पर बुरे बर्ताव का सामना किया है। गोरा रंग, आकर्षित नैन-नक्श, सीधे चकमदार बाल जैसी बातें किसी से नफरत और उसकी निंदा का कारण बन गई।
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दुनिया में 15वीं शताब्दी के बाद से, व्यवस्थित यूरोपीय उपनिवशेकरण के बाद से गोरी त्वचा वालों को श्रेष्ठता के तौर पर देखा गया। इसी के साथ व्हाइट सुप्रीमेसी ने एक बर्बता को भी जन्म दिया। आज यूरोसेंट्रिक सुंदरता के पैमानों ने पूरी दुनिया में अपने पैर पसारे हुए। एशिया, अफ्रीका, यूरोप और ग्लोब के किसी भी हिस्से की महिला हो उन्होंने कभी न कभी अपने जीवन में तथाकथित सुंदरता के पैमानों पर खरा न उतरने पर बुरे बर्ताव का सामना किया है।
यूरोसेंट्रिक ब्यूटी स्टैंडर्ड क्या है?
यूरोसेंट्रिज से मतलब है कि जहां यूरोपीय संस्कृति का प्रभाव हो। पश्चिमी सुंदरता के मूल्य को आदर्श समझा जाता है। लंबा-पतला होना, आकर्षित दिखना, लंबे सीधे बाल होना, तनी हुई त्वचा, छोटी नाक और चेहरे पर हमेशा चमक वो प्रचलित ब्यूटी स्टैंडर्ड हैं। इन पर खरा उतरने वाले लोगों को खासतौर पर महिलाओं को ही सुंदर माना जाता है। पूरी दुनिया में इन मानकों का विस्तार किया गया और पूरी दुनिया में सुंदरता के उत्पादों का एक बाजार भी बना दिया गया है।
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पूंजीवाद से बढ़ता यूरोसेंट्रिक ब्यूटी स्टैडर्ड
पूंजीवाद का यूरोसेंट्रिक सुंदरता के पैमानों और उसके बनाए प्रॉडक्ट को विस्तारित और प्रचारित करने में सबसे बड़ा योगदान रहा है। ग्लोबलाइजेशन के दौर में पूरी तरह दुनिया का व्यापार एक दूसरे से जुड़ा हुआ है। ऐसे समय में एक पूरी योजना के तहत ऐसे ब्यूटी प्रॉडक्ट की मार्किट को तैयार किया गया। विज्ञापनों के द्वारा सुंदरता को बढ़ाने के झूठे आइडिया को बेचा गया। दुनियाभर में महिलाओं के रंग के साथ इन प्रॉडक्ट को लाया गया।
बॉलीवुड फिल्म इंडस्ट्री और ब्यूटी स्टैंडर्ड
ब्रिटिश काल में भारत में कला जगत के माध्यम से यूरोपीय सौंदर्य के मानदंडों को अपनाने के चलन के बाद से यह आज तक चला आ रहा है। वर्तमान में बॉलीवुड इंडस्ट्री वह बड़ा प्लैटफॉर्म है जो बाजार आधारित सुंदरता के मानकों, नस्लभेद और रंगभेद को बढ़ावा दे रहा है। पूरी फिल्म इंडस्ट्री में मुख्य भूमिका निभाने वाली एक्ट्रेस गोरी, पलती, लंबी, आंखे बड़ी और चमकदार सीधे बालों के साथ देखने को मिलती है। यही नहीं काले रंग के ऊपर जोक्स और गानों को बनाकर समाज में काले रंग के प्रति हीन सोच को स्थापित करने का भी काम किया गया।
टीवी स्क्रीन से लेकर बड़े पर्दे तक गौरी त्वचा वाली महिलाओं को विज्ञापनों के माध्यम से आत्मविश्वासी और सफल बताया गया। बाजार की इस बीमारी में आज पुरुष भी शामिल हो गए है। वर्तमान में मर्दों को गोरे होने की क्रीम के भी ढ़ेरो विकल्प सामने आ गए है। कॉस्मेटिक बाजार भारत में तेजी से बढ़ रहा है। एक अनुमान के मुताबिक 2025 तक यह 20 बिलियन यूएस डॉलर तक पहुंच जाएगा।
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वर्तमान में बॉलीवुड इंडस्ट्री वह बड़ा प्लेटफॉर्म है जो बाजार आधारित सुंदरता के मानकों, नस्लभेद और रंगभेद को बढ़ावा दे रहा है। पूरी फिल्म इंडस्ट्री में मुख्य भूमिका निभाने वाली एक्ट्रेस गोरी, पलती, लंबी, आंखे बड़ी और चमकदार सीधे बालों के साथ देखने को मिलती है।
दुनियाभर में विरोध की आवाज़
आज भले ही सुंदरता के इन झूठे और असमानता वाले मानदंडों की जड़े बहुत गहरी हो गई हो लेकिन महिलाओं का एक वर्ग इसके खिलाफ हमेशा से आवाज़ उठा रहा है। जो पेशेवर सुंदरता के विचारों को नकार रही है। बॉडी पॉजिटिविटी मूवमेंट और फैट-एक्सपैटेंस मूवमेंट जैसी पहल ने झूठी सुंदरता की रफ्तार में बाधा का काम किया है। अमेरिका में 60 और 70 के दशक में नैचुरल हेयर मूवमेंट शुरू हुआ। अमेरिकी काली महिलाओं ने इन नस्लभेदी सुंदरता के पैमानों को पीछे धकेलकर खुद की पहचान को अपनाने पर जोर दिया।
कॉनेल यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर नोलिव रूक्स, नस्ल और सुंदरता की राजनीति के बारे में पढ़ाते हुए कहती हैं कि दुनिया में महिलाएं कैसे दिखाई देती है उन्हें अलग-अलग श्रेणी में रखा गया है। यह कोशिश किसी की सुंदरता को एक ब्यूटी रूटीन के तहत तय करने के लिए की गई है, विशेषतौर पर ब्लैक और ब्राउन लोगों के लिए किया गया है। रूक्स कहती हैं कि सुंदरता के पैमानों के खिलाफ लड़ना एक कठिन काम है। बूढ़ी महिलाएं, क्वीर महिलाएं, काली महिलाएं और इंटरसेक्शनल वर्ग की महिलाएं की छानबीन की जाती है भले ही वे सुंदरता के मानकों के अनुरूप होने की कोशिश कर रही हो। लेकिन जब वे इनके खिलाफ आती हैं तो उनको अकेला छोड़ दिया जाता है। हम एक ऐसी दुनिया में रह सकते हैं जहां हम इन नरैटिव का विरोध कर सकते हैं।
यदि हम निजी सुंदरता और किसी ब्यूटी रूटीन को फॉलो करने के लिए चिंतित होते है तो हम उस आइडिये को अपना चुके हैं जिसके विरोध की ज़रूरत है। भारत में इसकी जड़े बहुत गहरी हो चुकी है। बड़े पैमाने पर अलग-अलग लोगों के प्रतिनिधित्व को वास्तव में लागू करने की आवश्यकता है। सकारात्मकता के साथ पहल को लागू करते हुए हर वर्ग, नस्ल और रंग की महिलाओं की प्रतिनिधित्व को कला, संगीत और फिल्म में प्रयोग कर बाजार और असमानता के आधार पर बने सुंदरता के पैमानों पर वार किया जा सकता है।
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तस्वीर साभारः Voice Of Gen-Z
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