इतिहास क्या आप भारत की पहली नारीवादी इतिहासकार के बारे में जानते हैं| #IndianWomenInHistory

क्या आप भारत की पहली नारीवादी इतिहासकार के बारे में जानते हैं| #IndianWomenInHistory

अच्छम्बा विभिन्न शैलियों में लिखने वाली लेखिका थीं। वह कहानियां, निबंध और कविताएं लिखा करती थीं। वह पूरे भारत में घूम-घूमकर अपने लेखन से जुड़ी शोध सामग्री काे इकठ्ठा कर इस्तेमाल किया करती थी। उनका यह कदम उस समय के लिए अभूतपूर्व था। अपने लेखन में उन्होंने महिलाओं से जुड़ी कहानी और संघर्षों को सबके सामने प्रस्तुत किया।

“घर में अपने प्रिय द्वारा कैद महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं, सुरक्षित वही महिलाएं हैं जो अपनी आत्मा की रक्षा करती हैं।” यह पक्तियां भारत की उस सामाजिक व्यवस्था को दिखाती हैं जहां आज भी महिलाओं को दोयम दर्जे का इंसान समझा जाता है। हमारे समाज में महिलाएं पितृसत्ता की अदृश्य जंजीरों में जकड़ी हुई हैं जिन्हें तोड़ने के लिए महिलाओं का संघर्ष आज भी लगातार चल रहा है। इतिहास में कई ऐसी महिलाएं हुई हैं जिन्होंने महिलाओं के साथ होनेवाली गैरबरारी के ख़िलाफ़ विद्रोह की नींव रखी। इसी कड़ी में एक नाम ऊपर लिखी इन पक्तियों की रचना करने वाली भंडारू अच्छम्बा का हैं।

भंडारू अच्छम्बा भारत के शुरुआती महिला आंदोलन को स्थापित करने वाली महिलाओं में से एक हैं। वह 19वीं सदी के भारत की पहली नारीवादी इतिहासकार मानी जाती हैं। इन्होंने उस दौर में महिलाओं के हक और उनके ख़िलाफ़ होनेवाले भेदभाव को सबके सामने रखा और उसका विरोध भी किया था।

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भंडारू अच्छम्बा भारत के शुरुआती महिला आंदोलन को स्थापित करनेवाली महिलाओं में से एक हैं। भंडारू अच्छम्बा 19वीं सदी के भारत की पहली नारीवादी इतिहासकार हैं। जिन्होंने उस दौर में महिलाओं के हक़ और उनके ख़िलाफ़ होने वाले भेदभाव को सबके सामने रखा और उसका विरोध भी किया था।

शुरुआती जीवन

भंडारू अच्छम्बा का जन्म 1874 में आंध प्रदेश के कृष्णा जिले के पेनुगंचिप्रोलु नामक एक छोटे से गांव में हुआ था। उनके पिता एक सरकारी कर्मचारी थे। जब वह छह साल की थीं उनके पिता का देहांत हो गया था। उस समय बाल विवाह होना सामान्य था इनकी शादी भी बेहद कम उम्र में कर दी गई थी। जब वह 10 साल की थी तब उनकी शादी उनके चाचा से कर दी गई थी जो उनसे उम्र में बहुत बड़े और विधुर थे। उनके परिवार की तरह उनके पति भी महिलाओं की शिक्षा के समर्थक नहीं थे।

भंडारू अच्छम्बाः भारत की पहली महिला नारीवादी इतिहासकार #IndianWomenInHistory
तस्वीर साभारः Firstpost

17 साल की उम्र में वह पति के घर जाकर रहने लगी थीं। पति के घर जाने से पहले उन्होंने अपने छोटे भाई केवी लक्ष्मण राव से चार भारतीय भाषाओं का ज्ञान हासिल किया। उन्होंने अपने भाई के सहयोग से हिंदी, अंग्रेजी, तेलगु और मराठी भी सीखी थी। उनके भाई आगे की पढ़ाई के लिए नागपुर चले गए थे। इसके बाद भी अच्छम्बा ने अपनी पढ़ाई जारी रखी। उसके बाद उन्होंने खुद से बंगाली, गुजराती और थोड़ा ज्ञान संस्कृत में भी हासिल किया। उस समय उनकी पहुंच तक जितनी भी पत्र-पत्रिकाएं आती थी वह उन्हें पढ़ती थीं। 

भंडारू अच्छम्बा की दो संतान हुई थीं लेकिन जल्द ही उनके एक बेटे और बेटी की मौत हो गई थी। यह घटना उनकी जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुई। अपने बच्चों की मौत के बाद अच्छम्बा ने पांच अनाथ बच्चों को गोद लिया और उनका पालन-पोषण कर उनको शिक्षा दिलाई। भंडारू बहुत दयालु और दृढ़ इच्छाशक्ति वाली महिला थीं। वह हमेशा जन कल्याण के लिए काम करती थीं। 

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तस्वीर साभार: Telugu Kiranam

महिला संघ की स्थापना 

भारत में पहली महिला एसोसिएशन की स्थापना करने का श्रेय अच्छम्बा को भी जाता हैं। 1902 में ओरूंगती सुंदरी रत्नाम्भा के साथ मिलकर उन्होंने आंध्रप्रदेश के तटवर्ती क्षेत्र मुसलीपटनम में महिला संघ की स्थापना की थी। Fसे वृंदावनम स्त्रीला समाजम् ( वृंदावनम वुमेन्स एसोसिएशन) के नाम से जाना गया। साल 1903 में उन्होंने अन्य राज्यों की यात्रा करनी शुरू कर दी थी। उन्होंने कई अन्य महिला संगठनों को स्थापित करने में मदद की। वह भारत के कई राज्यों में जाकर समाज में महिलाओं की स्थिति को सुधारने के लिए प्रयास कर रही थीं। 

अच्छम्बा अलग-अलग शैलियों में लिखनेवाली लेखिका थीं। वह कहानियां, निबंध और कविताएं लिखा करती थीं। वह पूरे भारत में घूम-घूमकर अपने लेखन से जुड़ी शोध सामग्री काे इकठ्ठा कर इस्तेमाल किया करती थीं। उनका यह कदम उस समय के लिए अभूतपूर्व था।

साहित्यिक योगदान

अच्छम्बा अलग-अलग शैलियों में लिखनेवाली लेखिका थीं। वह कहानियां, निबंध और कविताएं लिखा करती थीं। वह पूरे भारत में घूम-घूमकर अपने लेखन से जुड़ी शोध सामग्री काे इकठ्ठा कर इस्तेमाल किया करती थीं। उनका यह कदम उस समय के लिए अभूतपूर्व था। अपने लेखन में उन्होंने महिलाओं से जुड़ी कहानी और संघर्षों को सबके सामने प्रस्तुत किया। ‘अबाला सचरित्रा रत्नमाला’ में उन्होंने 34 प्रमुख महिलाओं के जीवन काे दर्ज किया था। 1901 में प्रकाशित हुई यह पहला ऐसा काम था जिसे महिला ने लिखा था। 

उन्होंने धाना त्रयोदशी, बीड़ा कुटुंबकम (अ पूअर फैमिली), खाना, सातकामी (ए साइकिल ऑफ हंडड्रैड पोयम) लिखी। धमपतुला प्रथमा कालाहामु (द फर्स्ट डिसप्यूट ऑफ कप्लस), विद्यावंतुलागू युवातुलाकोका विन्नापामू (एन अपील टू द एडूकेट वीमेन), स्त्रीविद्या प्रभावम आदि उनके प्रमुख काम हैं। उनके लिखे लेख उस समय की प्रमुख पत्रिका  चिंतामणि, हिंदू सुंदरी और सरस्वती में प्रकाशित हुआ करते थे।

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एक दूसरे नज़रिये से सोचते हुए अच्छम्भा इस बात पर तर्क देते हुए कहती थीं कि महिलाओं को शिक्षा की आवश्यकता उनकी निजी तरक्की के लिए ज़रूरी है, न कि केवल माँ और पत्नी के रूप के लिए।

अच्छम्बा इस बात में विश्वास करती थीं कि अगर समाज में महिलाओं की स्थिति बदलनी है तो उन्हें शिक्षित करना बहुत ज़रूरी है। समाज में एक वर्ग महिलाओं की शिक्षा के विरोध में बात करता था। फर्स्टपोस्ट में प्रकाशित लेख के अनुसार समाज के प्रमुख पुरुष महिलाओं की शिक्षा का विरोध करते कहते थे कि कि अगर महिलाएं पढ़ेंगी तो परिवार बर्बाद हो जाएंगें। शिक्षा महिलाओं को आदर्श पत्नी बनने से रोकेंगी। इसके बाद भी समाज में पत्नियों को सिर्फ पति के लिखी चिट्टियों को पढ़ने और उन्हें लिखने तक के नाम पर महिलाओं शिक्षा में काम चल रहा था।

समाज की ऐसी सोच के बाद भी वह महिलाओं को शिक्षा के लिए प्रोत्साहित करने में लगी रहती थीं। एक दूसरे नज़रिये से सोचते हुए अच्छम्भा इस बात पर तर्क देते हुए कहती थीं कि महिलाओं को शिक्षा की आवश्यकता उनकी निजी तरक्की के लिए ज़रूरी है, न कि केवल माँ और पत्नी के रूप के लिए। भंडारू अच्छम्भा की मौत जनवरी, 1905 में केवल 30 साल की उम्र में हो गई थी। 

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स्रोतः

Wikipedia

Howold

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