विज्ञान और प्रौद्योगिकी का क्षेत्र आज भी पुरुषों के एक छोटे और मज़बूत दायरे में बंधा हुआ है। हमारा समाज विज्ञान की दुनिया को ‘काबिल और बुद्धिमान’ पुरुषों से जोड़ता है। इसलिए आम तौर समाज इस क्षेत्र में महिलाओं की मौजूदगी की कल्पना नहीं करता और न ही उनकी समस्याओं पर बात करता है। विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं और पुरुषों के बीच आज भी जेंडर गैप मौजूद है। यहां जेंडर गैप शब्द का मतलब महिलाओं और पुरुषों के बीच उनकी भागीदारी, पहुंच, अधिकार, पारिश्रमिक या लाभों के स्तर के बीच किसी भी अंतर के लिए है।
विज्ञान की दुनिया में आज भी महिलाएं अपने प्रतिनिधित्व, समान पारिश्रमिक और अपने उपलब्धियों के लिए समान ख्याति के लिए प्रयास कर रही हैं। लैंगिक पूर्वाग्रह और भेदभाव के कारण कई बार उन्हें कामकाजी दुनिया में अपने समकक्षों से घुलने-मिलने की सामाजिक तौर पर छूट नहीं होती और यौन हिंसा या उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है।
जब मैडम क्यूरी से भी उनका हक़ छीनने की कोशिश हुई
विज्ञान की दुनिया के पितृसत्तात्मक मानदंड मैरी क्यूरी की कहानी से समझा जा सकता है। हालांकि, मैरी क्यूरी को साल 1903 में रॉयल स्वीडिश अकादमी ऑफ साइंसेज ने पियरे क्यूरी और हेनरी बेकरेल के साथ भौतिक विज्ञान में नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया। लेकिन समिति ने पहले केवल पियरे क्यूरी और हेनरी बेकरेल को ही सम्मानित करने का निर्णय लिया था। अलग-अलग ख़बरों के अनुसार, इस समिति के एक सदस्य ने पियरे को इस स्थिति के बारे में सचेत किया और उनकी शिकायत के बाद ही मैरी का नाम नोबल पुरस्कार के नामांकन में जोड़ा गया। इतना ही नहीं, जब मैरी का नाम फ्रेंच अकादमी के लिए प्रस्तावित किया गया तो, तत्कालीन समय के कई अख़बारों ने मैरी की उम्मीदवारी पर कथित रूप से उनकी लिखावट और चेहरे की विशेषताओं के वैज्ञानिक विश्लेषण के आधार पर सेक्सिस्ट खबरें छापनी शुरू कर दी थीं। इसके बाद विज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान होने के बावजूद मैरी फ्रेंच अकादमी के लिए नहीं चुनी गई।
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इसी तरह, वैज्ञानिक विषय में पीएचडी प्राप्त करने वाली पहली भारतीय महिला बायोकेमिस्ट कमला सोहोनी ने जब शोध फेलोशिप के लिए भारतीय विज्ञान संस्थान में आवेदन किया, तो तत्कालीन निदेशक और नोबल पुरस्कार विजेता सीवी रमन ने उनके आवेदन को सिर्फ इस आधार पर ठुकरा दिया कि महिलाएं अनुसंधान करने के लिए पूरी तरह सक्षम नहीं होतीं। कमला ने इस फैसले को चुनौती देते हुए सीवी रमन के कार्यालय के बाहर तब तक अपना आंदोलन जारी रखा, जब तक कि उनके आवेदन को स्वीकार नहीं किया गया। लेकिन उन्हें संस्थान में कुछ शर्तों के साथ ही अनुमति दी गई।
वैज्ञानिक की दुनिया के पितृसत्तात्मक मानदंड मैरी क्यूरी के कहानी से समझा जा सकता है। हालांकि, मैरी क्यूरी को साल 1903 में पियरे क्यूरी और हेनरी बेकरेल के साथ भौतिक विज्ञान में नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया। लेकिन समिति ने पहले केवल पियरे क्यूरी और हेनरी बेकरेल को ही सम्मानित करने का निर्णय लिया था। अलग-अलग ख़बरों के अनुसार, इस समिति के एक सदस्य ने पियरे को इस स्थिति के बारे में सचेत किया और उनकी शिकायत के बाद ही मैरी का नाम नोबल पुरस्कार के नामांकन में जोड़ा गया।
क्या विज्ञान की दुनिया महिलाओं के लिए सुरक्षित है?
साल 2020 में अंतरराष्ट्रीय गैर-सरकारी संस्था इंटरनेशनल साइंस काउंसिल ने जेंडर गैप इन साइंस के नाम से 159 देशों में विज्ञान से जुड़े स्कूली या पेशवर महिलाओं और पुरुषों पर एक सर्वेक्षण किया। इस सर्वेक्षण में शामिल हुए एक चौथाई से अधिक महिलाओं ने स्कूल या काम पर यौन हिंसा का सर्वाइवर होने की सूचना दी। इस सर्वेक्षण के अनुसार पुरुषों की तुलना में महिलाओं को व्यक्तिगत रूप से प्रताड़ित किए जाने की संभावना 14 गुना अधिक पाई गई। यह विश्लेषण हर विषय श्रेणी, उम्र, रोजगार क्षेत्र, भौगोलिक क्षेत्र और विकास के स्तर को ध्यान में रखते हुए किया गया था। इसलिए यह कहा जा सकता है कि सभी क्षेत्रों, विषयों और विकास के सभी स्तरों पर, पुरुषों की तुलना में महिलाओं को लैंगिक भेदभाव का सामना कहीं अधिक करना पड़ता है।
सर्वेक्षण में पुरुषों की तुलना में महिलाओं के अध्ययन में रुकावट की रिपोर्ट करने की संभावना 1.6 गुना अधिक पाई गई। इस विषय पर क्रेया विश्वविद्यालय के लेखन और शिक्षाशास्त्र केंद्र के फैकल्टी टीचिंग असोसिएट और लेखक सायंतन दत्ता कहते हैं, “आम तौर पर महिलाओं को पारिवारिक और कामकाजी दोनों भूमिका निभानी पड़ती है। भारतीय संस्थानों में महिलाओं के लिए चाइल्ड केयर जैसी सुविधाएं नहीं हैं। इससे महिलाओं के लिए वैज्ञानिक क्षेत्र में टिके रहना और भी मुश्किल हो जाता है।”
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साल 2020 में अंतरराष्ट्रीय गैर-सरकारी संस्था इंटरनेशनल साइंस काउंसिल ने जेंडर गैप इन साइंस के नाम से 159 देशों में विज्ञान से जुड़े स्कूली या पेशवर महिलाओं और पुरुषों पर एक सर्वेक्षण किया। इस सर्वेक्षण में शामिल हुए एक चौथाई से अधिक महिलाओं ने स्कूल या काम पर यौन हिंसा का सर्वाइवर होने की सूचना दी।
शिकायत दर्ज करने वाली महिलाओं को समझा जाता है ‘ट्रबल मेकर‘
पिछले कुछ सालों में विज्ञान और प्रौद्योगिकी से जुड़े देश के कई संस्थानों में हुए यौन हिंसा की खबरें सुर्ख़ियों में रही हैं। लेकिन न सिर्फ इन घटनाओं की गंभीरता को नज़रअंदाज़ किया गया, बल्कि कुछ घटनाओं में देश के न्यायालयों ने आरोपी के खिलाफ कोई करवाई करने से भी मना कर दिया। जब कोई महिला यौन हिंसा या उत्पीड़न की शिकायत करती है, तो, उसे ‘ट्रबल मेकर’ का ख़िताब दे दिया जाता है।
भोपाल स्थित आईआईएसईआर के जैविक विज्ञान विभाग की असोसिएट प्रोफेसर डॉ. विनीता गौड़ा कहती हैं, “हमें संस्थान में यौन उत्पीड़न या POSH कानून से संबंधित जानकारी नहीं मिलती। कोई जागरूकता कार्यक्रम न होने और संस्था में जागरूकता की भारी कमी के कारण पुरुष सहकर्मी या कई बार खुद महिलाओं को यह पता नहीं होता कि कोई विशेष व्यवहार यौन उत्पीड़न के अंतर्गत आ सकता है। अमूमन इंटरनल कंप्लेंट कमिटी होने के बावजूद भी महिलाएं शिकायत दर्ज करवाने में संकोच करती हैं।”
डॉ. गौड़ा मानती हैं कि यौन हिंसा के समाधान के लिए संस्था में काम कर रहे सभी व्यक्तियों को इस विषय पर अनिवार्य रूप से जागरूक किया जाना चाहिए। विज्ञान की दुनिया में काम कर रहे लोगों को अपने शोध में या अपने आगे के करियर में सीनियर के सहयोग, नाम और मार्गदर्शन की ज़रूरत होती है। इसलिए, जब कोई महिला शिकायत दर्ज करती है, तो यह उसके करियर पर भी असर करता है। जेंडर गैप इन साइंस सर्वेक्षण में महिलाओं ने अपने डॉक्टरेट सलाहकारों के साथ बहुत ज्यादा सकारात्मक संबंध न होने और डॉक्टरेट कार्यक्रम के क्वॉलिटी (गुणवत्ता) कमतर होने की सूचना दी।
शिक्षा व्यवस्था और रोजगार में पुरुषों की तुलना में उनके साथ उचित व्यवहार किए जाने की संभावना भी कम पाई गई। अमेरिका की नेशनल लाइब्रेरी ऑफ़ मेडिसिन की वेबसाइट पबमेड ने भारत के कॉलेजों में छात्राओं के साथ यौन हिंसा को रोकने के लिए ‘राइज़‘ कार्यक्रम के विश्लेषण पर एक रिपोर्ट जारी किया। लेकिन रिपोर्ट अनुसार यह स्पष्ट नहीं है कि यौन हिंसा को रोकने में यह कार्यक्रम कितना मददगार है। शैक्षिक संस्थानों की मौजूदा स्थिति के मद्देनज़र, यह कहा जा सकता है कि सिर्फ़ महिलाओं को लक्ष्य कर ऐसे कार्यक्रम करने से; यौन या जातिगत हिंसा को रोका नहीं जा सकता।
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विज्ञान की दुनिया में पुरुषों के वर्चस्व होने के कारण कई बार महिलाओं के योगदान को महत्वपूर्ण नहीं समझा जाता। बतौर महिला सिर्फ अपना दृष्टिकोण सामने रखने में भी उन्हें पुरुषों के तुलना में ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है। डॉ. देवराजन कहती हैं, “विज्ञान की दुनिया महिलाओं के योगदान को नज़रअंदाज़ करती है क्योंकि महिलाओं की संख्या कम है। लेकिन संख्या की परवाह किए बिना हमारी बात सुनी जानी चाहिए।”
क्या इंटरनल कमिटी ही यौन हिंसा की रोकथाम का हल है?
इंटरनल कमिटी में नियुक्त हो रहे लोगों में यौन हिंसा या पॉश संबंधित जागरूकता की कमी होने से, पूरी प्रक्रिया असंवेदनशील, समस्याजनक और कठिन हो सकता है। शिकायत के बाद कारवाई की प्रक्रिया में नियमित पढ़ाई या करियर के नुकसान होने का भी संभावना होता है। इकोलोजिस्ट और शोधकर्ता डॉ. कादंबरी देवराजन कहती हैं, “कमिटी में शिकायत दर्ज करने के बाद यह प्रक्रिया किसी महिला के लिए लंबी और खतरनाक हो सकती है। यहां महिलाओं के करियर को प्रभावित करने जैसी एक संभावना बन जाती है। इसलिए शिकायत दर्ज करने वाले के लिए यह आसान नहीं।”
इसके अलावा, विज्ञान और प्रौद्योगिकी संस्थानों में शिकायत दर्ज होने के बाद भी वे शिक्षक या सहकर्मी नौकरी में बने रहते हैं, जिससे महिलाओं का उन्हीं लोगों के साथ काम करते रहना मुश्किल होता है। जैसे, कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय की छात्रा रह चुकी राया सरकार ने अपने ट्विटर पर भारतीय शैक्षिक संस्थानों में यौन हिंसा करने वाले शिक्षकों के नाम की एक सूची जारी की थी। लेकिन मीडिया में आए खबर अनुसार, सालों बाद भी कई लोग अपने पद पर बने हुए हैं। इस सन्दर्भ में डॉ. गौड़ा कहती हैं, “हालांकि कोई घटना होने पर शिकायत दर्ज करवाना ज़रूरी है लेकिन अक्सर महिलाओं को आरोपी के करियर के बारे में सोचने को कहा जाता है। कई बार आरोपी को महज चेतवानी के साथ छोड़ दिया जाता है। इंटरनल कमिटी में चुने गए लोगों में भी बहुत ज्यादा बदलाव नहीं होता।”
विज्ञान की दुनिया केवल महिलाओं को ही नहीं बल्कि हाशिये पर जी रहे समुदाय, ट्रांस या नॉन-बाइनरी लोगों को भी नकारता है। यह एक ऐसी दुनिया है जो ऊंची जाति के चुनिंदा पुरुषों के इर्द-गिर्द घूमती है। इस विषय पर सायंतन कहते हैं, “भारतीय वैज्ञानिक संस्थान दूसरे जेंडर के लिए समावेशी नहीं हैं। शैक्षिक संस्थानों की इंटरनल कमिटी ट्रांस या नॉन-बाइनरी लोगों के मुद्दों को सुलझाने में समर्थ नहीं होती क्योंकि इन्हें कोई प्रशिक्षण नहीं दिया जाता है। संस्थानों में आम तौर काउंसिलर्स नहीं होते और अगर होते हैं तो छात्रों की संख्या के तुलना वह बहुत कम होता है।”
विज्ञान की दुनिया में पुरुषों के वर्चस्व होने के कारण कई बार महिलाओं के योगदान को महत्वपूर्ण नहीं समझा जाता। बतौर महिला सिर्फ अपना दृष्टिकोण सामने रखने में भी उन्हें पुरुषों के तुलना में ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है। डॉ. देवराजन कहती हैं, “विज्ञान की दुनिया महिलाओं के योगदान को नज़रअंदाज़ करती है क्योंकि महिलाओं की संख्या कम है। लेकिन संख्या की परवाह किए बिना हमारी बात सुनी जानी चाहिए।” विज्ञान की दुनिया केवल महिलाओं को ही नहीं बल्कि हाशिये पर जी रहे समुदाय, ट्रांस या नॉन-बाइनरी लोगों को भी नकारता है। यह एक ऐसी दुनिया है जो ऊंची जाति के चुनिंदा पुरुषों के इर्द-गिर्द घूमती है। इस विषय पर सायंतन कहते हैं, “भारतीय वैज्ञानिक संस्थान दूसरे जेंडर के लिए समावेशी नहीं हैं। शैक्षिक संस्थानों की इंटरनल कमिटी ट्रांस या नॉन-बाइनरी लोगों के मुद्दों को सुलझाने में समर्थ नहीं होती क्योंकि इन्हें कोई प्रशिक्षण नहीं दिया जाता है। संस्थानों में आम तौर काउंसिलर्स नहीं होते और अगर होते हैं तो छात्रों की संख्या के तुलना वह बहुत कम होता है।”
बात सालों पहली की हो या आज के दौर की, विज्ञान की दुनिया महिलाओं के लिए आसान नहीं रहा है। असल में, समस्या यह नहीं कि पुरुषों के तुलना में महिलाएं बौद्धिक रूप से काबिल नहीं हैं या उनका काम के प्रति लगन, जुनून और निष्ठा कम है। यहाँ सवाल यह है कि महिलाओं के काम करने के लिए तत्कालीन या बनाए जा रहे नियम कितने व्यावहारिक हैं और क्या माहौल सुरक्षित है। इसलिए जब तक बुनियादी बदलाव न हो, तब तक महिलाओं का वैज्ञानिक क्षेत्र को चुनना और टिके रहना चुनौतीपूर्ण ही रहेगा।
तस्वीर साभार: Huffpost