स्वास्थ्य ये वजहें आज भी पीरियड पर चर्चा को एक चुनौती बनाती है| नारीवादी चश्मा

ये वजहें आज भी पीरियड पर चर्चा को एक चुनौती बनाती है| नारीवादी चश्मा

हम पीरियड के नामपर सालभर में हम एक दिवस मनाने लगे है, सरकार अलग-अलग अभियान चला रही है पर अभी भी पीरियड के मुद्दे पर बात करना शर्म का विषय माना जाता है।

हाल ही में, दुनियाभर में माहवारी स्वच्छता दिवस मनाया गया। अलग-अलग शहरों, गाँव और क़स्बों में सरकारी व ग़ैर-सरकारी संस्थाओं के माध्यम से पीरियड को लेकर जागरूकता बढ़ाने की दिशा में कई आयोजन भी किए गए। लेकिन इन सबके बावजूद वास्तविकता ये है कि पीरियड को हमेशा की तरह आज भी शर्म से जोड़कर देखा जाता है, ये आपके लिए कोई नयी बात नहीं होगी। मेरे लिए भी नहीं है।

बचपन से ही मैंने भी यही अनुभव किया कि जब मेरा पहला पीरियड आया तो मेरी मम्मी ने मुझे सूती कपड़ा का एक टुकड़ा देते हुए कहा था ‘अब ये हर महीने आएगा तो उस दौरान तुम्हें पैड का इस्तेमाल करना। पूजा-पाठ मत करना, अचार-पापड़ मत छूना, वग़ैरह-वग़ैरह।‘ और मम्मी ने मुझे उन कामों को अच्छे से समझा दिया कि इस समय हमें कौन-कौन से काम नहीं करने है। पर इस दौरान हमें क्या करना है, इसपर पर सूती कपड़े तक ही बात हुई। जब अपनी सहेलियों से इसपर चर्चा की तो उनमें से जिनके भी पीरियड शुरू हो गए थे, उनलोगों ने भी मुझसे मिलता-जुलता ही अनुभव बताया। बस फ़र्क़ थोड़ा यही था कि जिनके घर की आर्थिक स्थिति अच्छी थी उन्हें कपड़े की जगह पैड लेने की सलाह दी गयी थी।

पिछले कई सालों से लगातार मैं खुद अलग-अलग गाँव में जाकर गाँव की लड़कियों और महिलाओं के साथ पीरियड पर बात करती हूँ और उन्हें जागरूक करने का काम करती हूँ। हर बैठक में लड़कियाँ मेरे साथ पीरियड को लेकर अपने अनुभव और सवाल साझा करती है, जो अक्सर मेरे अनुभव और सवालों से काफ़ी मिलते जुलते हुए होते है। ये सभी वो सवाल होते है, जिनका जवाब देने वाला कोई नहीं होता है और इन सवालों को पूछने के लिए हम लड़कियों के पास कोई जगह भी नहीं होती।

मुझे याद है कि, ‘जब एक़बार मैं कोटिला गाँव में लड़कियों के साथ पीरियड के मुद्दे पर बैठक कर रही थी तो वहाँ की लड़कियों ने मुझसे अपने पीरियड के अनुभव को साझा किया और इसके बाद एक लड़की ने मुझसे पीरियड के जुड़े कई सवाल पूछे, जिसके मैंने ज़वाब भी दिए। पर जैसे ही लड़की ने सवाल किया कि ‘दीदी, पीरियड के समय पूजा-पाठ के लिए मना क्यों करते है?’ तो पास बैठी एक अधेड़ महिला ने चिल्लाकर लड़की को ये कहकर चुप करवा दिया है ‘तुमने तो एकदम अपनी लाज-शर्म छोड़ दी है। इतने सवाल किए जा रही है, क्या ज़रूरी है सारे सवाल का जवाब जानना।‘ इसके बाद मैंने उस महिला से बात की और वो कुछ हद तक मेरी बातों से सहमत भी हुई। लेकिन इसके बाद किसी भी लड़की में एक भी सवाल पूछने या अनुभव साझा करने की हिम्मत नहीं हुई।

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सालों से पीरियड पर बात करने को गंदी बात माना गया है, जिसका असर आज तक क़ायम है। भले ही पीरियड के मुद्दे पर फ़िल्म बन चुकी है, हम पीरियड के नामपर सालभर में हम एक दिवस मनाने लगे है, सरकार अलग-अलग अभियान चला रही है पर अभी भी पीरियड के मुद्दे पर बात करना शर्म का विषय माना जाता है, लेकिन ऐसा क्यों है, इस सवाल का जवाब ढूँढने की मैंने काफ़ी कोशिश की और अपने अब तक अनुभव में ये पाया कि इन वजहों से पीरियड पर बात करना आज भी हमारे में किसी चुनौती से कम नहीं है –

पितृसत्तात्मक सोच व सामाजिक ढांचा

पितृसत्ता महिला को पुरुष से हमेशा कमतर मानती है। इस व्यवस्था में पुरुष को मालिक और महिला को उससे नीचे की जगह पर रखा जाता है। यही वजह है कि अगर पीरियड किसी पुरुष होता तो समाज के सारे नियम अपने आप बदल जाते। सारे सामाजिक समीकरण ही अलग होते। लेकिन चूँकि ये महिलाओं व अन्य जेंडर के शरीर से जुड़ी एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, इसलिए इसे हमेशा से शर्म का मुद्दा बनाकर उन सभी मेन्स्ट्रूएटर को कमतर बताए जाने के लिए पीरियड को अशुद्ध बताकर, इससे जुड़ी हुई ढ़ेरों पाबंदियों को शुरू किया गया। सिर्फ़ यही एक ऐसी प्रक्रिया है जो महिलाओं-पुरुष में फ़र्क़ करती है और समाज ने इसी प्रक्रिया को केंद्रित कर हर मेन्स्ट्रूएटर को अशुद्ध और कमतर माना जाता है।

साथ ही, पीरियड मेन्स्ट्रूएटर की यौनिकता से जुड़ा एक अहम पहलू भी है और पितृसत्ता का एक बुनियादी नियम है पुरुष के इतर हर जेंडर की यौनिकता पर शिकंजा कसना, जिसके लिए पितृसत्ता हर इससे जुड़े अलग-अलग मिथ्य फैलाकर तो कभी इसे शर्म का विषय बताकर इसे कंट्रोल करती है।पीरियड के मुद्दे पर आज भी क़ायम शर्म और पाबंदियों के प्रमुख कारणों में से समाज की पितृसत्तात्मक सोच एक है, जिसे स्थापित करने में सदियों का समय लगा और अलग-अलग तर्क देकर तो कभी धर्म के आड़ में इसे बक़ायदा समाज में स्थापित किया गया।

बेशक साल में एकदिन पीरियड के नाम जागरूकता करना एक बेहतर पहल है, लेकिन ये पूरा नहीं है, क्योंकि पीरियड का ताल्लुक़ हर महीने और हर मेन्स्ट्रूएटर से है, जिनकी हर चुनौतियों को समझना और उसपर पहल बेहद ज़रूरी है।

बाज़ारवाद

पीरियड को आज भी शर्म का विषय बनाने और बनाए रखने में बाज़ार का भी बड़ा हाथ है। पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था में बाज़ार भी पितृसत्ता से प्रभावित रहता है, जिसकी वजह से महिला व अन्य जेंडर से जुड़ी पीरियड जैसी प्राकृतिक प्रक्रियाओं और यौनिकता संबंधित विषयों को हमेशा एक समस्या और अपने उत्पाद को इस समस्या के समाधान के रूप में दिखाता है, जिसका उद्देश्य सिर्फ़ मुनाफ़ा कमाना होता। बाज़ार की ये नीति वास्तव में किसी भी समस्या को यथास्थिति में बनाए रखती है। फिर वो पीरियड हो या गर्भनिरोध। फिर भले ही टीवी पर पीरियड के एड में पीरियड के ब्लड का रंग नीले रंग हो या फिर दुकान में इसे बक़ायदा पेपर में लपेटकर काले बैग में बेचा जाए। हमें समझना होगा कि किसी भी सामाजिक व्यवस्था और उस व्यवस्था में किसी समस्या की वजह कोई एक नहीं होती, बल्कि सभी अलग-अलग कारकों से एक-दूसरे को प्रभावित करती है।

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कंडिशनिंग, साक्षरता की अधिकता पर शिक्षा की कमी

अपने देश में अब साक्षरता के स्तर में काफ़ी सुधार हुआ। यानी कि अब काफ़ी लोग पढ़ना-लिखना सीख चुके है। पर जब बात आती है शिक्षा और जागरूकता तो इसका कोई भी सटीक आँकड़ा आज भी उपलब्ध नहीं है। क्योंकि बहुत बार पढ़ने-लिखने में सक्षम लोग भी समाज की संकीर्ण मान्यताओं का बिना कुछ सोचे समझे या सवाल किए पालन करते है, जो किसी भी सामाजिक समस्या को कई गुना ज़्यादा जटिल बना देती है। जैसे- भले ही शहर में अब महिलाएँ अच्छे और महँगे कम्पनी के सेनेटरी पैड का इस्तेमाल करने लगी है, लेकिन इसके बावजूद सदियों से चली आ रही पीरियड से जुड़ी पाबंदियों का ये पालन करती है और उसे कभी चुनौती देने का सोचती भी नहीं। ये सीधेतौर पर महिलाओं की कंडीशनिंग का परिणाम है, जो बचपन से ही शुरू हो जाता है, जिसकी वजह से वो भले ही खुद को साक्षर बताए, लेकिन किसी भी सामाजिक कुरीति या अपने साथ होने वाले भेदभाव व हिंसा पर वे किसी भी तरह के सवाल से हमेशा बचती है।

बेशक पीरियड पर अब लोग बात करने लगे है, लेकिन इससे जुड़ी शर्म के आज भी क़ायम होने के पीछे ये कुछ बुनियादी कारण है, जिसकी वजह से भले ही आज बड़ी संख्या में अलग-अलग पैड कम्पनियों ने अपने उत्पादन बढ़ा दिए और इसी बिक्री में भी काफ़ी बढ़त हुई है। लेकिन इसके बावजूद पीरियड को लेकर इसके संस्थागत बदलाव की तरफ़ नाममात्र ही दिखाई पड़ती है, फिर को पीरियड लीव की बात हो या फिर पीरियड के दौरान धार्मिक कामों में शामिल होने की। बेशक साल में एकदिन पीरियड के नाम जागरूकता करना एक बेहतर पहल है, लेकिन ये पूरा नहीं है, क्योंकि पीरियड का ताल्लुक़ हर महीने और हर मेन्स्ट्रूएटर से है, जिनकी हर चुनौतियों को समझना और उसपर पहल बेहद ज़रूरी है। वरना पीरियड भी बाज़ार के नियमानुसार एक समस्या और समाधान के समीकरण तक ही सीमित रह जाएगा।

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तस्वीर साभार : unfpa

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