आज के समय में हम जानते हैं कि लड़कियों का पिता की संपत्ति में भाई जितना बराबर हक है। शादियों में दिक्कतें आने पर तलाक़ लेने का प्रावधान है। एक पुरुष एक ही वक्त में एक ही शादी कर सकता है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि ऐसे प्रावधान शुरू से ही समाज में नहीं थे और न ही संविधान बनने की एकदम शुरुआत में? ऐतिहासिक लड़ाई लड़ते हुए ये प्रावधान अस्तित्व में आए जिसमें बड़ा योगदान रहा था बाबा साहब आंबेडकर का। जब आज के परिपेक्ष में विभिन्न महिला हितकारी कानूनों को जानते हैं तब यह जानना भी ज़रूरी हो जाता है कि आज के कानूनों से पहले किन कानून के आधार पर हिंदू समाज के लोगों का व्यवहार निर्धारित हो रहा था। हिंदू समाज स्मृति, धर्म शास्त्र, वेद पुराण के आधार पर जीवन जी ही रहे थे लेकिन दो तरह के कानून जो शादी, वारिसी, दत्ताक्ग्रहण आदि के आधार थे, वे थे- मिताक्षरा कानून और दायभाग कानून।
आज़ादी से पहले के प्रचलित कानून
मिताक्षरा कानून के तहत हिंदू की संपत्ति व्यक्तिगत संपत्ति नहीं थी। ये संपत्ति संदायादता (कोपार्सनरी) से संबंधित थी जिसमें पिता, बेटा, पोता और परपोता शामिल होते थे। इन सभी का संपत्ति पर जन्मसिद्ध अधिकार होता था। एक सदस्य की मृत्यु पर जो सम्पत्ति को संभाल सकता था उसे दायित्व दिया जाता था न कि मृतक के उत्तराधिकारी को। मिताक्षरा के अनुसार स्त्री अपने मृत पति की उत्तराधिकारिणी तभी हो सकती है जब उसका पति, भाई आदि कुटुंबियों से अलग हो।
दायभाग कानून के अंतर्गत संपत्ति उत्तराधिकारी की व्यक्तिगत जायदाद होती थी जिसे बेचने का, उपहार स्वरूप भेंट करने का, आदि किसी भी तरह से संपत्ति को समाप्त करने का अधिकार होता था। इस कानून के अनुसार कन्या विधवा, वंध्या या अपुत्रवती को छोड़कर एक स्त्री भी उत्तराधिकारिणी हो सकती थी। दायभाग कानून बंगाल में और मिताक्षरा कानून देश के बाकी हिस्से में प्रचलित था। बाबा साहब ने जब जब हिन्दू कोड बिल पेश किया तब इन दोनों कानूनों के कुछ भाग लिए और कुछ प्रावधान समय की मांग अनुसार बदले गए।
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आज के समय में हम जानते हैं कि लड़कियों का पिता की संपत्ति में भाई जितना बराबर हक है। शादियों में दिक्कतें आने पर तलाक़ लेने का प्रावधान है। एक पुरुष एक ही वक्त में एक ही शादी कर सकता है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि ऐसे प्रावधान शुरू से ही समाज में नहीं थे और न ही संविधान बनने की एकदम शुरुआत में? ऐतिहासिक लड़ाई लड़ते हुए ये प्रावधान अस्तित्व में आए जिसमें बड़ा योगदान रहा था बाबा साहब आंबेडकर का।
भारत की आज़ादी के पास आते-आते पहली बार महिलाओं ने जब अपने हक में आवाज़ें उठानी शुरू की तो हिंदू वूमेन राइट टू प्रॉपर्टी ऐक्ट 1937 ब्रिटिश सरकार ने पास किया। इस ऐक्ट के परिणामस्वरूप 1941 में बीएन राऊ के नेतृत्व में हिंदू लॉ कमेटी बनी जिसके अनुसार यूनिफॉर्म सिविल कोड अस्तित्व में आना जरूरी था ताकि महिलाओं को सामान अधिकार मिल सकें और वे आधुनिक समाज में जगह पा सकें। इस कमेटी का पूरा ध्यान सिर्फ हिंदू कानूनों में सुधार करना था। यह बात साफ है कि हिंदू धर्म कानूनों का संहिताकरण (कोडिफिकेशन) ब्रिटिश राज के दौरान ही होने लगा था। ब्रिटिश राज के बाद हिंदू लॉ कमेटी की रिपोर्ट पर भारतीय संसद में 1948 से लेकर 1951 और 1951 से लेकर 1954 तक विस्तृत चर्चा की गई। स्वतंत्र भारत के पहले कानून मंत्री बाबा साहब आंबेडकर ने इस बिल की जानकारियों को संसद में प्रस्तुत किया था।
क्या था बाबा साहब आंबेडकर द्वारा पेश किया गया हिंदू कोड बिल?
भारतीय संसद में बाबा साहब आंबेडकर ने हिंदू कोड बिल को 11 अप्रैल 1947 में संविधान सभा के समक्ष प्रस्तुत किया था। बाबा साहब कहते हैं, “पहला, तो ये विधेयक एक मृत हिंदू की संपत्ति के अधिकारों से संबंधित कानून को संहिताबद्ध करना चाहता है,जो बिना वसीयत के मर गया है, महिला और पुरुष दोनों। दूसरा, यह मृत वसीयतनामा की संपत्ति के विभिन्न पदानुक्रमों के बीच उत्तराधिकार के क्रम का कुछ हद तक परिवर्तित रूप निर्धारित करता है। अगला विषय यह है कि ये विधेयक रखरखाव, विवाह, तलाक, गोद लेने, अल्पसंख्यक और संरक्षकता का कानून है।”
संपत्ति को लेकर अहम चार बदलाव जो हिन्दू कोड बिल के ड्राफ्ट में प्रस्तुत किए गए, वे थे:
- विधवा, बेटी, विधवा बहू को भी बेटे समान विरासत में अधिकार। बेटी को पिता की संपत्ति में बेटे समान आधा अधिकार। इस विधेयक में बेटी को संपत्ति का अधिकार नया बदलाव था बाकी महिला उत्तराधिकारिणी की चर्चा हिन्दू वूमेन राइट टू प्रॉपर्टी एक्ट 1937 में व्याख्यायित थी।
- बड़ा बदलाव ये हुआ कि अब महिला वारिसों की संख्या मिताक्षरा और दायभाग से कई गुना ज्यादा बढ़ गई थी।
- मिताक्षरा और दायभाग, दोनों कानूनों में महिला उत्तराधिकारी को लेकर अलग अलग भेदभाव था जैसे महिला विधवा तो नहीं, महिला का अमीर, गरीब आदि। इस बिल ने महिलाओं के मध्य इस भेदभाव को खत्म किया।
- आखिरी बदलाव दायभाग विरासत कानून में ये किया गया था कि पिता से पहले मां को वरीयता दी गई थी।
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हिंदू कोड विधेयक में स्त्रीधन को लेकर दो बदलाव किए गए। अलग-अलग प्रकार के स्त्रीधन को एक ही श्रेणी में रखा गया और उत्तराधिकरण का समान नियम रखा गया। उत्तराधिकारी को किसी भी भिन्न श्रेणी की बजाय एक ही श्रेणी रखी गई। दूसरा बदलाव जो स्त्रीधन को लेकर निर्धारित किया गया वह था कि स्त्रीधन में बेटे का भी बेटी के समान आधा अधिकार दिया गया। जिस प्रकार पिता की संपत्ति में बेटी का बेटे समान अधिकार का प्रावधान प्रेषित किया गया। ठीक उसी प्रकार स्त्रीधन में बेटे को बेटी के समान मां की संपत्ति में अधिकार देना, बेटा बेटी की बराबरी को वरीयता देना था। पुरुष की संपत्ति एब्सोल्यूट एस्टेट (पूर्ण संपत्ति) थी यानी सम्पत्ति के लेन देन से लेकर कानूनन कार्यवाई सब करना उसके आधिकारिक दायरे में था। वहीं महिला की संपत्ति लाइफ एस्टेट (जीवन संपत्ति) थी यानी सम्पत्ति से आने वाली आय पर उसका अधिकार था लेकिन संपत्ति का लेन-देन आदि वह नहीं कर सकती थी और उसकी मौत के बाद उसकी संपत्ति उसके पति की तरफ के लोगों को जाती थी।
इस पूरे संबंध में हिंदू कोड बिल में दो और बदलाव प्रस्तावित किए गए थे। पहला तो महिला की संपत्ति को लाइफ एस्टेट से बदलकर एब्सोल्यूट एस्टेट किया था। दूसरा महिला के विधवा होने के बाद पति की तरफ के लोगों का उसकी संपत्ति पर पर जो अधिकार आता था उसे भी हटा लिया गया था। हम अपने घरों में, आसपास देखते हैं कि शादियों में लड़कियों को जो दहेज दिया जाता है उसे इस तरह देखा जाता है कि वह लड़कों वालों को दिया जा रहा है और लड़की का उस पर कोई अधिकार नहीं है। लेकिन हिंदू कोड बिल पर बात करते हुए बाबा साहब ही स्पष्ट करते हैं कि इस विधेयक के अनुसार लड़की को दिया जानेवाला दहेज लड़की के लिए ट्रस्ट प्रॉपर्टी होगी। 18 वर्ष पूरी होने पर लड़की इस प्रॉपर्टी पर अधिकार रखेगी, उसका पति और न ही किसी और रिश्तेदार का इस प्रॉपर्टी पर कोई अधिकार होगा।
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आज के वक्त में ये बात किसी भी महिला से सुनना बहुत आम है कि पति से दूर भी रहेंगे तो उसे खर्चा पानी देना पड़ेगा। इस बात को कह सकने के लिए हमें बाबा साहब आंबेडकर का शुक्रगुजार होना चाहिए। हिंदू धर्म में पति से अलग होने पर पत्नी के लिए रखरखाव शुल्क (मेंटेनेंस) का कोई प्रावधान नहीं था। बाबा साहब ने हिंदू कोड बिल के ड्राफ्ट में ये बात लिखी कि जब पत्नी, पति से अलग रहेगी तो रखरखाव शुल्क पत्नी का अधिकार होगा। परिस्थितियां भी सुनिश्चित की गईं जब पत्नी पति से रखरखाव शुल्क की अधिकारी होगी। वे परिस्थितियां होंगी –
- पति का वीभत्स बीमारी से पीड़ित होना।
- पति पत्नी के अलावा किसी और औरत को साथ रखता है।
- पति क्रूरता का दोषी है।
- दो साल के लिए पत्नी को छोड़ दिया हो।
- पति किसी दूसरे धर्म में परवर्तित हो गया हो।
- अन्य कोई कारण जो पत्नी का पति से अलग रहना साबित करते हो।
बाबा साहब हिंदू कोड बिल के माध्यम से न सिर्फ महिलाओं के अधिकारों, आजादी की बात कर रहे थे बल्कि जाति व्यवस्था पर भी कड़ी चोट कर रहे थे।
बाबा साहब हिंदू कोड बिल के ड्राफ्ट में शादी के सवाल पर स्पष्टता से बात रखते हैं। बिल ने दो तरह की शादियों को प्रमुख माना जो हैं, संस्कार विवाह (सैक्रामेंटल मैरिज) और सिविल शादी। संस्कार विवाह के लिए पांच शर्तें रखी गईं। वे थीं -लड़का 18 वर्षीय और लड़की 14 वर्षीय हो। लड़का लड़की का पहले से कोई पति पत्नी नहीं होना चाहिए। दोनों पक्ष निषिद्ध संबंध में नहीं होने चाहिए। दोनों पक्ष एक दूसरे के सपिंड नहीं होने चाहिए। दोनों पक्ष में कोई भी मानसिक रूप से बीमार नहीं होना चाहिए। संस्कार विवाह और सिविल शादी में खास अंतर नहीं है सिवाय इसके कि सिविल शादी, बिल के अनुसार रजिस्टर की जाएगी और संस्कार विवाह दो पक्ष की राजी से हो जाएगा। तीन अहम अंतर जो बाबा साहब द्वारा बिल के ड्राफ्ट में शादी को लेकर किए गए वे थे कि संस्कार विवाह के लिए दोनों पक्ष की जाति, उपजाति की पहचान आवश्यक नहीं है।
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बाबा साहब हिंदू कोड बिल के माध्यम से न सिर्फ महिलाओं के अधिकारों, आजादी की बात कर रहे थे बल्कि जाति व्यवस्था पर भी कड़ी चोट कर रहे थे। दूसरा प्रावधान ये किया गया था कि गोत्रप्रवारा की पहचान संस्कार विवाह के लिए आवश्यक नहीं होगी। और तीसरा महत्वपूर्ण प्रावधान ये प्रस्तुत किया गया था कि जिस तरह पहले के कानून के अनुसार बहुविवाह (पॉलीगेमी) मान्य था लेकिन इस नए प्रावधान के अनुसार सिर्फ मोनोगेमी यानी एक ही व्यक्ति से विवाह करने का प्रावधान रहेगा। इस बिल के माध्यम से तलाक का प्रावधान अस्तित्व में लाया गया। तलाक लेने के सात आधार भी बताए गए, जो निम्न थे -परित्याग, दूसरे धर्म में परिवर्तन, पत्नी के अलावा किसी और औरत रखना/रखैल बन जाना, असाध्य रूप से अस्वस्थ, ठीक न होनेवाला कुष्ठ रोग, संचारी रूप में यौन रोग, क्रूरता।
हिंदू कोड बिल में अडॉप्शन (दत्तक ग्रहण) को लेकर भी स्थिति साफ की गई थी। दो नये प्रावधान इस संदर्भ में जोड़े गए। पहला, अगर पति दत्तक ग्रहण करना चाहता है तो पत्नी की सहमति अनिवार्य होगी। दूसरा, अगर कोई विधवा दत्तक ग्रहण करना चाहती है तो इसके लिए उसके पति द्वारा सकारात्मक संकेत किसी लिखित प्रमाण द्वारा दिए गया हो ताकि आगे चलकर किसी भी तरह की मुकदमे से बचाव बना रहे। बिल का आखिरी भाग अल्पसंख्यक और संरक्षण के सवाल से जूझता है जिसमें ख़ास अंतर नहीं किया गया था। हिंदू लॉ कमेटी द्वारा प्रस्तावित ड्राफ्ट को ही तरजीह दी थी। इस कोड बिल के अनुसार हिंदू सिख, जैन और बौद्ध को माना गया था। इस पूरे ड्राफ्ट के प्रावधानों से ये स्पष्ट है कि ये अपनी तरह का क्रांतिकारी ड्राफ्ट था जिसमें महिलाओं की स्थिति सुधारने की अपार क्षमता थी और जो स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व और गरिमा की भावना से बंधा हुआ था लेकिन फिर भी ये बिल संसद में पूर्ण बहुमत से पास नहीं हुआ था।
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तस्वीर साभार: News18
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