बीते दिनों सुप्रीम कोर्ट ने महिलाओं के संपत्ति के अधिकार को लेकर एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। यह फैसला लैंगिक समानता की ओर एक सराहनीय कदम है। अपना फैसला सुनाते समय कोर्ट ने कहा, ‘बेटियां भी बेटों की तरह जन्म के साथ पैतृक संपत्ति में बराबरी की हकदार हैं।’ संपत्ति के अधिकार को लेकर 1956 में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम कानून लागू हुआ था। इसे साल 2005 में संशोधित करते हुए बेटियों को पैतृक संपत्ति में बराबरी का भागीदार बनाया गया था। लेकिन इस संशोधन में यह स्पष्ट नहीं था कि हिंदू उत्तराधिकार ( संशोधन) अधिनियम, 2005 के लागू होने से पहले अगर पिता की मृत्यु हो गई होगी तो उन बेटियों को पैतृक संपत्ति में अपना हिस्सा मिलेगा या नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने दानन्मा बनाम अमर (2018) के मामले में फैसला सुनाते हुए उन सारे सवालों को स्पष्ट किया जिसके कारण बेटियों को संपत्ति में अपना हिस्सा पाने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था।
क्या है पैतृक संपत्ति ?
सबसे पहले यह जानने की जरूरत है कि पैतृक संपत्ति होती क्या है? किसी भी पुरुष को अपने पिता, दादा या परदादा से उत्तराधिकार में मिली संपत्ति पैतृक संपत्ति कहलाती है। बच्चा जन्म के साथ ही पिता की पैतृक संपत्ति का अधिकारी हो जाता है। यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि आखिर इस बच्चे में बेटियों की गिनती क्यों नहीं करता है हमारा समाज? महज़ लिंग के आधार पर बेटियों से पैतृक संपत्ति का मौलिक अधिकार आखिरकार समाज क्यों छीनता आया है? महिला सशक्तिकरण का संपत्ति से क्या लेना देना है? बेटियों को पैतृक संपत्ति में हिस्सेदारी मिलने से उनके जीवन में क्या फर्क पड़ेगा? ऐसे ही कुछ सवाल हैं जो लोगों की ज़ेहन में उठते होंगे।
हम सब जानते हैं हमारे समाज की संरचना पितृसत्तात्मक है। यहां शुरुआत से ही किसी भी प्रकार का फैसला लेने का अधिकार परिवार के पुरुषों के पास रहा है। महिलाएं समाज के उस वंचित तबके से आती हैं जहां अपने अधिकारों के बारे में खुलकर बात करने से उन्हें वंचित रखा गया है। महिलाओं को सक्षम और सशक्त बनाने में सबसे अहम भूमिका आर्थिक स्वतंत्रता की होती है। सशक्त होने के लिए आत्मनिर्भरता के साथ संसाधनों का होना महत्वपूर्ण होता है और संपत्ति का अधिकार उन्हें वह संसाधन मुहैया कराता है।
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महिलाओं को सक्षम एवं सशक्त बनाने में सबसे अहम भूमिका आर्थिक स्वतंत्रता की होती है। सशक्त होने के लिए आत्मनिर्भरता के साथ संसाधनों का होना महत्वपूर्ण होता है और संपत्ति का अधिकार उन्हें वह संसाधन मुहैया कराता है।
हिंदू कोड बिल विवाद
संपत्ति के अधिकार की महत्ता को समझने के लिए यह जानना बहुत जरूरी है कि आखिर यह अधिकार महिलाओं के हक में आया कैसे? हिंदू कानून सुधार का इतिहास 1941 में स्थापित हिंदू कानून समिति (राउ समिति) के गठन से शुरू होता है। इस समिति के गठन का मुख्य उद्देश्य विवाह, संपत्ति, विरासत, गोद लेने, रखरखाव और संरक्षा के अधिकारों को स्थापित करना था लेकिन रूढ़िवादी हिंदू पुरुषों ने इस कानून को लेकर आपत्ति जताई थी। उन्हें डर था कि अगर महिलाओं को संपत्ति का अधिकार दिया तो परिवार टूट जाएगा।
पश्चिम बंगाल के कांग्रेस विधायक ने यह तर्क दिया कि सिर्फ लवेंडर, लिपस्टिक एवं वैनिटी वैन वाली महिलाएं इस बिल का समर्थन कर रही हैं। साल 1948 में अखिल भारतीय हिंदू विरोधी सम्मेलन का आयोजन हुआ। इस आयोजन में यह तर्क दिया गया कि महिलाओं के संपत्ति में हिस्से की शुरुआत के कारण हिंदू परिवार प्रणाली टूट जाएगी। इन विरोधाभास के चलते बाबा साहब आंबेडकर ने 1953 में संविधान सभा से अपना इस्तीफा तक दे दिया था। इतने अंतर्विरोध के बाद 1956 में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम लागू किया गया जिसमें बेटियों को पिता की स्व-अर्जित संपत्ति में बेटों के समान अधिकार दिया गया। साल 2005 में इस अधिनियम में बदलाव करते हुए हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 बनाया गया। इस संशोधन के जरिए पिता की स्व-अर्जित संपत्ति के साथ ही बेटियों को पैतृक में पूर्ण अधिकार दिया गया।
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साझेदारी संग जिम्मेदारी
पैतृक संपत्ति पर अधिकार के हाल ही के फैसले में कोर्ट ने बेटे और बेटियों को बराबरी का हक देते हुए यह भी कहा कि इस बात को ध्यान में रखना होगा कि अधिकार के साथ ही दायित्व भी बेटे और बेटियों में बराबरी का है। एक बात को समझना बहुत जरूरी है, जहां शादी के बाद बेटियों पर मां-बाप के जिम्मेदारी की बात आती है वहां उनके ससुराल से इसकी सहमति नहीं मिलती है। ससुराल वाले बहु पर अपना पूर्ण अधिकार समझते हैं। जिस समाज में बचपन से ही लड़कियां यह सुनती आई हैं कि बेटियां पराया धन होती हैं, शादी के बाद उनका ससुराल ही उनका सब कुछ होता है, लड़की की डोली मायके से और अर्थी ससुराल से उठती है। इस माहौल में पली-बढ़ी लड़की अपने ससुराल वालों के सामने अपने मां-बाप की ज़िम्मेदारी उठाने की बात कैसे कर पाएगी।
हालांकि कानून ने बेटियों को संपत्ति में बराबरी का अधिकार तो दे दिया है लेकिन असल जिंदगी में यह कानून किस हद तक लागू हो पाता है और इसे लागू करने में कौन सी सामाजिक बाधाएं आती हैं उसे समझने की जरूरत है। हमारे समाज की संरचना कुछ ऐसी है जिसमें हिंदू समाज के मुताबिक दहेज बेटियों की संपत्ति का हिस्सा माना जाता है। पैतृक संपत्ति में हिस्सेदारी की बात आते ही भाई इसके खिलाफ़ विरोध करने लगते हैं और भाइयों के साथ तनावपूर्ण संबंधों के डर से बहनें अपने हिस्से की संपत्ति नहीं लेना चाहती हैं। आज भी संपत्ति में अपना हक मांगने वाली लड़कियां घर तोड़ने वाली तमगे औरत के तमगे से नवाजी जाती हैं। कुछ मामलों में महिलाएं अपने हिस्से का दावा करने के लिए अदालत जाने से हिचकिचाती हैं क्योंकि कानून की प्रक्रिया बहुत ही पेचीदा एवं लम्बी होती है।
यूएन वुमन की तरफ़ से साल 2016 में किए गए अध्ययन के सर्वे के अनुसार 44 फीसद महिलाओं ने माना की उनके माता-पिता उन्हें अपने जमीन का हिस्सा देने के लिए सहमत नहीं होंगे जबकि 53 फीसद महिलाओं का मानना था की उनके भाई इस विचार का विरोध करेंगे। जमीन औरतों को बारगेनिंग पावर देता है जिसके जरिये वे समाज में बराबरी के संसाधन और मौके के साथ आगे बढ़ सकती हैं। विधवा, तलाकशुदा और पति से छोड़ी हुई महिलाओं की ज़िंदगी संसाधन के अभाव में और भी ज्यादा कठिन हो जाती है। संपत्ति पर अधिकार के साथ जो सशक्तिकरण महिलाओं को मिलता है वह घरेलू हिंसा को कम करने में भी प्रभावी हो सकता है। इसलिए अब वक़्त आ गया है कि महिलाओं को सदियों से चली आ रही प्रथाओं को तोड़ते हुए ख़ुद ही अपने अधिकारों के लिए आगे आना होगा। संपत्ति में हक की मांग करना सबसे पहला कदम होगा जो लैंगिक समानता बढ़ाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका प्रदान करेगा।
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तस्वीर साभार : velivada
Tanwi Suman, is a research scholar of women studies from Jamia Millia Islamia. She has her opinion on issues ranging from intersectionality to sexuality. Can be found reading Hindi Sahitya or lazying around binging tv.
मुस्लिम कानून इस विषय में क्या बात करता है ये भी अपने पाठकों को जरूर बताना चाहिए ताकि हमें और जानकारी मिल सकें।
एक तथ्य इसमें जरूर जांच करनी चाहिए कि क्या संविधान सभा 26 जनवरी 1950 के बाद थी?? संविधान सभा का विसर्जन 1950 में ही हो चुका था। तथ्यात्मक रूप से गलती हुई है इसकी सुधार होनी चाहिए।
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