देश में चौतरफा आज़ादी की 75वीं वर्षगांठ से जुड़े कार्यक्रमों का आयोजन हो रहा है। स्वतंत्रता दिवस एक ऐसा अवसर होता है जब हम अपने उन लोगों को याद करते हैं जिनके दम पर हमें यह आज़ादी मिली, जिन्होंने हमें गुलामी की जंजीरों से आज़ाद करवाया। इस मौके पर हमारे जहन में कई वीरों के नाम आने लगते हैं। उनमें सबसे कम उम्र के वीरों में भगत सिंह का नाम पहले नंबर पर आता है। उसी तरह सबसे कम उम्र में देश के लिए बलिदान देनेवाली एक वीरांगना भी हैं जिनका नाम है कनकलता बरुआ।
देश के लिए मर मिटने के लिए तैयार हो जानेवाले लोगों की पंक्ति में अक्सर हमारे इतिहास ने वीरांगनाओं को स्थान कम ही दिया है। विशेष रूप से इस चर्चा में अहम योगदान देनेवाले पूर्वोत्तर के लोगों को अक्सर छोड़ दिया जाता है। जबकि उनके प्रयासों ने अंग्रेजों के हौसलों को बहुत हद तक पस्त कर दिया था। इस लेख के माध्यम से हम उसी भूली-बिसरी एक वीरांगना के बारे में बताने जा रहे हैं। वैसे तो अनेक स्वतंत्रता सेनानियों का बलिदान हमारी अमिट स्वतंत्रता की नींव का एक पत्थर है। उन्हीं में से एक थीं कनकलता बरुआ।
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कनकलता बरुआ का प्रारंभिक जीवन
असम के बांरगबाड़ी गांव में कृष्णकांत बरुआ और कर्णेश्वरी देवी के घर 22 दिसंबर, 1924 को कनकलता जैसी वीरांगना का जन्म हुआ। बचपन में ही कनकलता अनाथ हो गई थीं। पिता ने दूसरा विवाह किया लेकिन कुछ समय बाद उनकी भी मृत्यु हो गई। 13 वर्ष की कनकलता फिर अनाथ हो गई, जिसके चलते उनके पालन–पोषण का दायित्व उनकी नानी ने संभाला। इन सब मुश्किलों के बावजूद कनकलता का राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन की ओर झुकाव लगातार बढ़ता गया।
साल 1931 में जिस समय कनकलता केवल सात वर्ष की थीं, तब गमेरी गांव में एक सभा का आयोजन किया गया था। उस वक्त वह केवल सात साल की थीं। संयोग से उस सभा के अध्यक्ष प्रसिद्ध नेता ज्योति प्रसाद अगरवाला थे। ज्योति प्रसाद अगरवाला असम के प्रसिद्ध कवि हुआ करते थे। कनकलता भी अगरवाला के गीतों से प्रभावित और प्रेरित थीं। इन गीतों ने कनकलता के बाल–मन पर राष्ट्रभक्ति का मानो जुनून सवार कर दिया था।
साल 1942 में मुम्बई के कांग्रेस अधिवेशन में ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ प्रस्ताव पारित किया गया। ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ धीरे-धीरे ब्रिटिश शासन के विरुद्ध देश के कोने-कोने में प्रसारित हो गया। इस बीच असम के शीर्ष नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। इस घटना के बाद असम में अंग्रेज़ों के खिलाफ आंदोलन और तेज़ होता चला गया।
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थाने पर तिरंगा फहराने का निर्णय
इसी बीच कनकलता मृत्यु बहिनी से जुड़ गई। इस वक्त उनकी उम्र 18 साल से भी कम थी। 20 सितंबर, 1942 को एक गुप्त सभा में तेजपुर की कचहरी पर तिरंगा झंडा फहराने का फैसला किया गया। गहपुर थाने के चांरो तरफ, चारों दिशाओं से लोगों का जुलूस शामिल होता चला गया था। कनकलता दोनों हाथों से तिरंगा झंडा थामे उस जुलूस का नेतृत्व कर रही थीं। पुलिस थाने के इंचार्ज रेबती मोहन सोम क्रांतिकारियों के आंदोलन के लिए ख़िलाफ़ कार्रवाई करने के लिए पहले से ही तैयार बैठे थे।
मृत्यु बहिनी का कारवां तय थाने के करीब आ गया। जुलूस में मौजूद लोगों के नारों से आकाश गूंजने लगा था। थाने के प्रभारी पीएम सोम जुलूस को रोकने के लिए सामने आ खड़ा हुआ और चेतावनी दी कि अगर जुलूस आगे बढ़ा तो अंजाम अच्छा नहीं होगा। कनकलता ने कहा कि उनका संघर्ष पुलिस से नहीं है, वे सिर्फ अपना कर्तव्य निभा रहे हैं। और जुलूस नहीं रुका और पुलिस द्वारा जुलूस पर गोलियों की बौछार कर दी गई। पहली गोली कनकलता को छाती पर लगी। दूसरी गोली मुकुंद काकोती को जाकर लगी, जिससे तुंरत उनकी मौत हो गई। इन दोनों की मृत्यु के बाद भी गोलियों की बौछार जारी रही। लेकिन इनका बलिदान व्यर्थ नहीं गया और पुलिस स्टेशन पर आखिरकार तिरंगा लहराया।
कनकलता के बलिदान को याद रखने के लिए साल 1997 में कमीशन किए गए भारतीय तटरक्षक बल के फास्ट पेट्रोल वेसल ICGS को उनके नाम पर रखा गया है। गौरीपुर में वर्ष 2011 को कनकलता की एक आदमकद प्रतिमा का अनावरण किया गया था। निर्देशक चंद्र मुदोई की फिल्म ‘एपा फुलिल एपा ज़ोरिल’ में उनकी कहानी बताई गई है।
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