आज हमारे देश में आज़ादी का 75वां अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है। ‘हर घर तिरंगा’ अभियान चलाया जा रहा है। लेकिन विडंबना यह है कि आज बहुसंख्यक आबादी को इस झंडे का वर्तमान स्वरूप गढ़ने में आधार स्तंभ रही एक मुस्लिम महिला के विषय में कोई जानकारी नहीं है। आज जब देश में अल्पसंख्यकों को तरह-तरह से परेशान किया जा रहा है और विशेष रूप से मुस्लिम समुदाय पर चौतरफा हमले किए जा रहे हैं, जब छद्म राष्ट्रवादियों द्वारा मुस्लिमों की देशभक्ति पर सवाल उठाया जा रहा हो तो ऐसे में अल्पसंख्यक समुदाय से आनेवाली सुरैया तैयबजी को याद करना और देश के प्रति उनके इस योगदान को लोगों के सामने लाना बेहद जरूरी हो जाता है। इससे भी अधिक आवश्यक है हमारा यह जानना कि धर्म आधारित विभाजन के साथ आई आज़ादी के बाद जिन मुस्लिम परिवारों ने पाकिस्तान कि जगह भारत को अपना देश चुना, तब की राजनीतिक परिस्थितियों में उन्हें और उनके परिवार को किन कठिनाईयों का सामना करना पड़ा।
अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ संघर्ष करते हुए ही, भारतीय स्वतंत्रता सेनानी भारत की एक सम्प्रभु राष्ट्र के रूप में स्थापना के बाद इसे जिन मूल्यों के आधार पर चलाया जाएगा, उसके बारे में विचार-विमर्श करने में लगे थे। इसके साथ ही अनेक संस्थाओं की रूपरेखा तैयार की जाने लगी थी। इसी के साथ अस्तित्व में आए कई राष्ट्रीय चिन्ह और राष्ट्रीय ध्वज। आधुनिक राष्ट्र के उदय में इन प्रतीकों की भूमिका अहम रही है। इन ध्वजों की संरचना न सिर्फ़ संबंधित देश के इतिहास का प्रतिनिधित्व करती है बल्कि उस देश के उन सिद्धांतों को चिन्हित करती है जो उसके निर्माण का आधार हैं।
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यहां भारत में भी राष्ट्रीय तिरंगा स्वतंत्रता संग्राम के दौरान विकसित होने लगा। पहली बार साल 1921 में कांग्रेस की मीटिंग के दौरान महात्मा गांधी ने राष्ट्रीय ध्वज की आवश्यकता के विषय में प्रस्ताव रखा। इसी साल पिन्गली वकैया ने कांग्रेस पार्टी के स्वराज ध्वज का प्रारूप तैयार किया। यह वही ध्वज था जिसके बीच में चरखा था। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान यह झंडा इतना प्रसिद्ध हुआ कि इसे अनौपचारिक तौर पर स्वतंत्र भारत के राष्ट्रीय ध्वज के रूप में स्वीकार कर लिया गया था। यहां तक कि आज भी हम में से ज्यादातर लोग यही जानते हैं कि भारत के राष्ट्रीय ध्वज को पिन्गली वकैया ने ही डिजाइन किया है। लेकिन वास्तव में भारतीय राष्ट्रीय ध्वज का अंतिम प्रारूप को तैयार सुरैया तैयबजी ने किया था। मुख्यधारा भारतीय इतिहास में अपने इस अहम कार्य का श्रेय न पानेवाली सुरैया ने भारत के राष्ट्रीय प्रतीक के प्रारूप को तैयार करने में भी अहम योगदान दिया है। लेकिन उनको वह श्रेय कभी नहीं दिया गया जिसकी वह हकदार हैं।
आज जब छद्म राष्ट्रवादियों द्वारा मुस्लिमों की देशभक्ति पर सवाल उठाया जा रहा हो तो ऐसे में अल्पसंख्यक समुदाय से आनेवाली सुरैया तैयबजी को याद करना और देश के प्रति उनके इस योगदान को लोगों के सामने लाना बेहद जरूरी हो जाता है।
सुरैया तैयबजी के शुरुआती जीवन की बात करें तो इनका जन्म साल 1919 में हैदराबाद के एक प्रतिष्ठित मुस्लिम परिवार में हुआ था। उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशकों में इस परिवार की सभी औरतें न सिर्फ़ पढ़ी-लिखी थीं बल्कि द्विभाषी थीं। सुरैया स्वयं एक प्रसिद्ध कलाकार थीं, जो जीवन और समाज में असामान्य और प्रगतिशील दृष्टिकोण के लिए जानी जाती थीं। वह कलात्मक और बहुप्रतिभाशाली थी। पेंटिंग करना, खाना बनाना, सिलाई करना, तैराकी करना और अपने पारिवारिक निवेश और अन्य वित्तीय मामले को संभालने में अहम भूमिका थी। उनका विवाह बदरुद्दीन तैयबजी से हुआ जो भारतीय विदेश सेवा में एक अधिकारी थे और इन्होंने साल 1962-1965 तक अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कुलपति का कार्यभार संभाला।
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आज़ादी के समय हमारे नेताओं को यह अहसास हुआ कि हमारे पास राष्ट्रीय प्रतीक नहीं है जिसके बाद जवाहर लाल नेहरू ने भारत के राष्ट्रीय प्रतीक का प्रारूप तैयार करने की जिम्मेदारी सुरैया तैयबजी के साथी बदरुद्दीन तैयबजी को सौंपी। बदरुद्दीन तैयबजी ने कई कला विद्यालयों को पत्र लिखकर इस बारे में जानकारी दी तथा राष्ट्रीय प्रतीक के लिए नमूने भेजने का अनुरोध किया लेकिन इन विद्यालयों द्वारा भेजे अधिकतर नमूने ब्रिटिश प्रतीक से प्रभावित थे। बाद में अशोक स्तंभ को राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में अपनाया गया।
राष्ट्रीय प्रतीक के निर्माण के समय को याद करते हुए, उनकी बेटी लैला तैयबजी द वायर में छपे लेख में लिखती हैं, “मेरी माँ ने एक ग्राफिक संस्करण तैयार किया और रीगल लॉज (अब राष्ट्रपति निवास) में प्रिंटिंग प्रेस द्वारा कुछ नमूने छाप कर सबको दिखाया और सभी को यह पसंद आया। बेशक, चार शेर (अशोक के शेर) तब से हमारे प्रतीक रहे हैं।” वह आगे कहती हैं, “मेरी मां उस वक्त 28 साल की थीं। मेरे पिता और उन्होंने कभी यह नहीं जताया कि उन्होंने राष्ट्रीय प्रतीक को ‘डिजाइन’ किया है -उनके लिए तो उन्होंने भारत को कुछ ऐसा याद दिलाया जो हमेशा से उसकी पहचान का हिस्सा रहा है।”
इसी बीच पिन्गली वकैया द्वारा डिजाइन किए गए झंडे को राष्ट्रीय ध्वज के रूप में अपनाने पर कई लोगों ने आपत्ति जताई क्योंकि यह एक पार्टी का झंडा था। अब बदरुद्दीन तैयबजी को राष्ट्रीय ध्वज का प्रारूप तैयार करने की अतिरिक्त जिम्मेदारी दे दी गयी। राष्ट्रीय ध्वज का प्रारूप तैयार करने के लिए एक समिति का गठन किया गया।
लैला तैयबजी (सुरैया तैयबजी की बेटी) के अनुसार मूल रूप से चक्र का रंग काला था लेकिन गांधी जी को काले रंग से आपत्ति थी जिस कारण चक्र का रंग बदलकर गहरा नीला कर दिया गया। लेकिन भारतीय राष्ट्रीय ध्वज का प्रारूप को तैयार करने वाला कौन था इसको लेकर कई विवाद भी है जिनमें से एक का आधार है। इतिहासकार ट्रेवर रोयले द्वारा लिखित पुस्तक ‘द लास्ट डेज़ आफ़ द राज’ में यह लिखना कि भारतीय राष्ट्रीय ध्वज का प्रारूप बदरुद्दीन तैयबजी ने तैयार किया था। वहीं, बाद में हैदराबाद के इतिहासकार कैप्टन एल पान्डुरन्ग रेड्डी ने अपने शोध के माध्यम से यह दर्शाया कि राष्ट्रीय ध्वज डिजाइन सुरैया तैयबजी ने ही बनाया था। फ़्लैग फाउंडेशन ऑफ इंडिया के शोध ने भी सुरैया तैयबजी को ही भारतीय राष्ट्रीय ध्वज के प्रारूप का रचनाकार माना है।
हमारे देश के आन-बान-शान कहलाने वाले तिरंगे को आज तक हम जिस रूप में देखते आए हैं उसको प्रारूप प्रदान करने वाली स्त्री सुरैया तैयबजी, जिनके योगदान की लंबे समय से अनदेखी की गई है, उनके योगदान को पहचान दिलाए। वह न केवल त्याग, पवित्रता और विकास का प्रतीक तिरंगे के लिए जिम्मेदार हैं, बल्कि राष्ट्रीय प्रतीक को डिजाइन करने में भी एक प्रमुख हिस्सा थीं जो खूबसूरती से साहस और एकता को प्रदर्शित करता है। भारतीय इतिहास का इतना महत्वपूर्ण हिस्सा होने के बावजूद, उनकी भूमिका को शायद ही कभी स्वीकार किया गया हो।
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