‘महिला’ शब्द से जोड़कर ‘महिला उत्थान’, ‘महिला सशक्तिकरण’ और ‘महिला शक्ति’ जैसे अनेकों शब्दों हम अक्सर सरकारी योजनाओं, नीतियों, सरकारी मुलाजिमों और सत्ताधारियों के वादों और नारे में सुनते-पढ़ते है। भारत जैसे बड़े लोकतांत्रिक देश में महिलाओं को आधी आबादी का दर्जा दिया जाता है, बहुत बार भाषणों में और बहुत बार योजनाओं में भी। पर इन सामने में एक चीज़ समान होती है वो है – दृष्टिकोण। अक्सर आधी आबादी के नाम पर किए जाने वाले हर काम को हमेशा ‘समानता’ के दृष्टिकोण से देखा जाता है। वो दृष्टिकोण जो सालों से चला आ रहा है, लेकिन इसके बावजूद लोकतंत्र के मूल्यों तो क्या मौलिक अधिकारों तक को आधी आबादी के लिए सुनिश्चित नहीं कर पाया है।
ऐसा इसलिए क्योंकि हमने हमेशा ‘महिला’ को केंद्र में रखा है, न की उन पितृसत्तात्मक मूल्यों और संस्थाओं को जो महिलाओं को अलग-अलग वर्गों में बाँटकर उनके संघर्षों को कई गुना बढ़ाने का काम करती है, जिसके लिए ‘समानता’ वाले दृष्टिकोण की नहीं बल्कि ‘समता’ वाले दृष्टिकोण की ज़रूरत है और ये ज़रूरत तब और भी ज़रूरी हो जाती है जब हम नारीवाद या नारीवादी विचारों की बात करते है और खुद को इसका पैरोकार करार देते है। तो आइए आज चर्चा करते है उन पितृसत्तात्मक मूल्यों और संस्थाओं की जो पुरुषों के इतर हर जेंडर के लिए जीवन को संघर्षपूर्ण बनाने और उन्हें अलग-अलग वर्गों में बाँटने में अहम भूमिका अदा करती है –
जेंडर बाइनरी
पितृसत्तात्मक समाज में सभी इंसानों को जेंडर की दो बाइनरी, सरल शब्दों में कहें तो, जेंडर के दो ढाँचे में ढालने की कोशिश करती है। इसके दूसरे ढाँचें में कौन होगा, इसकी बात ये सामाजिक व्यवस्था बाद में करती है। लेकिन पहले ढाँचे में ‘पुरुष’ ही होगा ये तय होता है, क्योंकि पितृसत्ता, पुरुषों को सर्वश्रेष्ठ मानती है। इसके बाद, बात आती है दूसरे ढाँचे की जिसमें महिलाओं और अन्य जेंडर पहचान वाले इंसानों को शामिल किया जाता है, जहां महिला होना, ट्रांस होना या एलजीबीटीआइक्यू+ समुदाय से होना अपने आप में दोहरा संघर्ष बन जाता है।
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पितृसत्ता की ये जेंडर बाइनरी हमेशा महिला व अन्य जेंडर पहचान वाले इंसानों के संघर्ष को सिर्फ़ इस आधार पर कई गुना बढ़ा देती है क्योंकि वो पुरुष नहीं है। वो पुरुष जिसे पितृसत्ता श्रेष्ठ मानती है और उसने सभी विशेषाधिकार उन्हें ही दिए है और उसके बाद आने वाले हर जेंडर पहचान वाले इंसान को दोयम दर्जा दिया जाता है।
जब भी किसी महिला या अन्य जेंडर पहचान के संदर्भ में अधिकारों या नेतृत्व की चर्चा हो तो ये सवाल ज़रूर पूछे कि – इनमें से कितने लोग निचली जाति से है? विकलांगता के साथ जी रहे है? और ट्रांस मेन या लेस्बियन है?
जाति, धर्म और वर्ग का संघर्ष
जब भी हम महिला की बात करते है तो सिर्फ़ ‘महिला’ या ‘एलजीबीटीआइक्यू+’ मानकर उनके लिए किसी भी योजना या नीति का निर्माण हमेशा बेईमानी का काम है। क्योंकि पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था में जाति और धर्म की भूमिका बेहद अहम है, जो हर इंसान के परिवेश, परिस्थिति, अधिकार, अवसर तक पहुँच और विशेषाधिकार को प्रभावित करती है। यहाँ हमें ये समझने की ज़रूरत है कि किसी तथाकथित ऊँची जाति की महिला या एलजीबीटीआइक्यू+ के क्या संघर्ष होंगें, हो सकता है उन्हें अच्छी पढ़ाई और विकास के अवसर मिले, लेकिन अपनी ज़िंदगी को अपने हिसाब से जीने और कहीं आने-जाने या निर्णय निर्माण का अधिकार न मिले। वहीं दूसरी तरफ़, निचली जाति की महिलाओं के लिए साफ़ पीने का पानी और घर होना भी एक बड़ी चुनौती हो, जो उनके संघर्षों को इतना ज़्यादा बढ़ा देती है कि महिला के बाद अन्य जेंडर पहचान के इंसान कभी भी सामने आने और अपना स्पेस क्लेम करने के बारे में सोच भी नहीं पाते है। इस बात को हम और एक उदाहरण से अच्छी तरह समझ सकते है कि – ‘हम ज़्यादातर ऊँची जाति के ही ट्रांस विमेन को ही बड़ी बैठकों, ट्रेनिंग और कार्यशालाओं जैसे बड़े अवसरों में देख पाते है और ट्रांस मेन की संख्या इसमें बहुत ही सीमित होती है। पर जब हम सामाजिक रूप से सक्रिय ट्रांस मेन की भी पृष्ठभूमि को देखते है तो यहाँ भी ऊँची जाति के ट्रांस में को देख पाते है, लेकिन निचली जाति के ट्रांस मेन सिर्फ़ गिने चुने ही होते है। क्योंकि सच्चाई यही होती है कि आज भी जाति, धर्म और वर्ग के संघर्ष के चलते बतौर महिला अपने मौलिक अधिकार को सुरक्षित करना किसी चुनौती से कम नहीं है।‘
यहाँ समझने की ज़रूरत है कि जाति, धर्म और वर्ग ऐसे आधार है जो महिला और एलजीबीटीआइक्यू+ के संघर्षों की परतों को मोटा बनाने का काम करते है और इन परतों को हटाने के लिए कभी भी एक नीति कारगर नहीं हो सकती है, क्योंकि हर जाति, वर्ग और धर्म के संघर्ष अलग-अलग होते है, जिनकी पहचान किए बिना हर नीति और योजनाएँ सतही हो जाती है।
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शारीरिक बनावट और विकलांगता
जेंडर, जाति, धर्म और वर्ग के बाद जब हम शारीरिक बनावट और विकलांगता के मुद्दे पर आते है तो संघर्ष की एक अंधेरी मोटी चादर की तरह दिखाई पड़ता है। क्योंकि पहले तो महिला होने की वजह से समाज हमें दोयम दर्जा देता है, इसके बाद जब हम खुद को ट्रांस मेन के तौर पर देखते है तो हमारे संघर्ष और भी ज़्यादा बढ़ जाते है। मुझे लड़की बनाने के लिए कभी कन्वर्ज़न थेरेपी तो कभी बाबाओं के पास ले ज़ाया जाता है। इसके बाद मेरे संघर्ष और भी बढ़ाती है मेरी निचली जाति, जिससे मुझे हमेशा भेदभाव और हिंसा का शिकार होना पड़ता है और अपनी बुनियादी ज़रूरतों के लिए भी औरों से अधिक संघर्ष करना पड़ता है। जाति की ये संघर्षों वाली परत तब और भी मोटी और अंधेरी तब हो जाती है जब मेरी विकलांगता की बात आती है। चूँकि पितृसत्ता हमेशा आदर्श के फ़्रेम में इंसानों को ढालती है और इस आदर्श के फ़्रेम में किसी भी तरह की विकलांगता की कोई जगह नहीं होती है, जिसकी वजह से अक्सर विकलांगता के साथ जी रही दलित महिला या दलित ट्रांस मेन, लेस्बियन को मुख्यधारा से जुड़ने का अवसर भी नहीं मिल पाता है।
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ये सभी पितृसत्तात्मक व्यवस्था के कुछ ऐसे मूल्य और संस्थाएँ है जो महिला और अन्य जेंडर पहचान वाले इंसानों को हमेशा उनके मौलिक अधिकार से दूर से मुख्यधारा से दूर ले जाते है। इसलिए ज़रूरी है कि हम इन मूल्यों और संस्थाओं को समझें और इसे परखें। अगली बार जब भी किसी महिला या अन्य जेंडर पहचान के संदर्भ में अधिकारों या नेतृत्व की चर्चा हो तो ये सवाल ज़रूर पूछे कि – इनमें से कितने लोग निचली जाति से है? विकलांगता के साथ जी रहे है? और ट्रांस मेन या लेस्बियन है? दृश्य सामने होगा।
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तस्वीर : रितिका बनर्जी फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए