मटके और दलित बच्चे इंद्र कुमार के बीच एक गहरी खाई है जिसे समाज अब तक नहीं पाट पाया है। बीते दिनों राजस्थान के जालौर जिले के सुराणा गांव में हुई निर्मम घटना ने पूरे देश को झकझोर दिया। इस पर बात किया जाना कई कारणों से अहम है। पहला तो डॉ. आंबेडकर द्वारा साल 1927 में महाड़ सत्याग्रह के बाद अस्पृश्यों को पानी पीने का अधिकार दिलाए जाने के 9 दशक बीत जाने के बाद आज भी समाज उसी कुंठित मानसिकता के साथ जी रहा है जिसे आंबेडकर ने उखाड़ फेंका था। दूसरा यह कि आज़ादी के 75 साल पूरे होने पर अमृत महोत्सव के मौके पर जातिवाद ने एक बच्चे की जान ले ली।
पहले इस दिल दहला देने वाली घटना के बारे में जानिए। राजस्थान के जालौर जिले के सुराणा गांव में कथित रूप से दलित छात्र की शिक्षक ने पीट-पीटकर हत्या कर दी। कसूर क्या था? तीसरी कक्षा के छात्र इंद्र कुमार ने शिक्षक छैल सिंह के पानी के मटके से पानी पी लिया। इस बात पर शिक्षक ने उसे इतना पीटा कि उसे 24 दिन अस्पताल में भर्ती रखना पड़ा। 13 अगस्त को जिंदगी और मौत की लड़ाई से हारकर वह चल बसा।
मामला गांव के सरस्वती विद्या मंदिर स्कूल का है। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक स्कूल में शिक्षकों के लिए पानी का अलग से मटका था जिसमें से तीसरी कक्षा के छात्र इंद्र कुमार ने पानी पी लिया था। यह देखकर शिक्षक छैल सिंह के भीतर बैठा द्रोणाचार्य बाहर आ गया। बच्चे की बेरहमी से पिटाई की गई। पिटाई के साथ-साथ जातिसूचक शब्दों से अपमानित भी किया गया। सूचना है कि पिटाई के दौरान ही इंद्र कुमार की तबियत बिगड़ गई और उसे उपचार के लिए सिविल अस्पताल ले जाया गया जहां से उसे शहर के अस्पताल में रेफर कर दिया। आसपास के शहरों के कई अस्पताल में दाखिल कराया और अंत में 24 दिन बाद अहमदाबाद में मौत हो गई। कान और आंख में अंदरूनी चोट लगने से बच्चे को बचाया नहीं जा सका। एससी/एसटी एक्ट और हत्या करने की धारा में मामला दर्ज है। आरोपी शिक्षक की गिरफ्तारी हो चुकी है। मामले में कड़ी से कड़ी कार्रवाई की जानी चाहिए।
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बच्चे को नहीं पता था कि इस देश में पानी का मटका भी जाति के हिसाब से रखा जाता है। उसने मासूमियत से मटके से पानी पी लिया लेकिन शिक्षक को पता था कि बच्चे की जाति क्या है। इतने में ही बच्चे को इतना पीटा इतना पीटा कि इलाज के दौरान नौ वर्षीय इंद्र मेघवाल ने दम तोड़ दिया। इंद्र का पार्थिव शरीर ही मरे हुए भारत की असली तस्वीर है। वह महज नौ साल का था लेकिन जातिवादी सोच ने बच्चे को लील लिया। उसे शायद जाति समझ भी नहीं आती होगी। ऊंची जाति, नीची जाति, भेदभाव, छुआछूत जैसे शब्दों से उसका सामना होता इससे पहले ही यह मानसिकता उसे निगल गई। उस पढ़े-लिखे जातिवादी शिक्षक को यह नहीं पता था कि महज तीसरी कक्षा में पढ़ने वाले बच्चे को कैसे पता होगा कि उसे मटके से पानी नहीं पीना है, यह केवल ऊंची जाति के लोगों के लिए है। ऐसे जातिवादी मानसिकता को आगे बढ़ानेवाले लोग शिक्षक बने बैठे हैं। सोचिए क्या ऐसे लोग समाज का आनेवाला भविष्य बना पाएंगे।
बच्चे को नहीं पता था कि इस देश में पानी का मटका भी जाति के हिसाब से रखा जाता है। उसने मासूमियत से मटके से पानी पी लिया लेकिन शिक्षक को पता था कि बच्चे की जाति क्या है।
लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि के शिक्षक त्यागी याद आते हैं जिसने वाल्मीकि को पढ़ाई करने की बजाय स्कूल साफ करने में लगाया और ऐसा न करने पर बेरहमी से पिटाई की। हाथ में कलम देने की बजाय झाड़ू थमा दी। एकलव्य के गुरु द्रोणाचार्य याद आते हैं, जिसने धनुर्धारी एकलव्य का अंगूठा ही छीन लिया। और अब तीसरा उदाहरण मास्टर छैल सिंह का है जिसने 9 साल के दलित छात्र को मटके से पानी पीने पर इतना पीटा कि उसकी मौत हो गई। सब बदल रहा है लेकिन हमारा जातिवादी समाज आज भी वहीं खड़ा है ढीठ, निर्दयी और क्रूर बनकर।
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संविधान में वर्णित है कि देश के सभी कुएं, तालाब, झरने समेत पानी के सार्वजनिक स्रोतों पर सबका समान अधिकार है। इनसे किसी को भी वंचित नहीं किया जा सकता। लेकिन छुआछूत और जातिवाद आज भी लोगों के भीतर जिंदा है। आजादी कहां है? पानी पीने की, बराबरी में बैठकर खाने की, मूंछ रखने की, घोड़ी पर चढ़ने की तो फिर कौन सी आजादी का महोत्सव ‘अमृत’ है। सामाजिक गुलामी की बेड़ियां अब भी दिमाग में पड़ी हैं।
इन बेड़ियों पर पेरियार, ज्योतिबा और आंबेडकर ने खूब चोट की है। इन्हें टूटना ही होगा। नहीं तो ऐसे ही न जाने कितने इंद्र कुमार को पीट-पीटकर मार दिया जाएगा। पानी पीने पर मारपीट करना या हमला करना कोई नयी बात नहीं है, इतिहास ऐसी ही सैंकड़ों घटनाओं से भरा पड़ा है। आप पानी पीने के लिए किए गए आंदोलन महाड़ सत्याग्रह को ही देख लीजिए। उस दौरान आंदोलन में शामिल लोगों पर भी सवर्ण समाज द्वारा हमला किया गया था। इसे बॉम्बे क्रॉनिकल में छपी उस समय की रिपोर्ट के अंश से घटना का मर्म समझ आता है।
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लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि जी के शिक्षक त्यागी याद आते हैं जिसने वाल्मीकि को पढ़ाई करने की बजाय स्कूल साफ करने में लगाया और ऐसा न करने पर बेरहमी से पिटाई की। हाथ में कलम देने की बजाय झाड़ू थमा दी। एकलव्य के गुरु द्रोणाचार्य याद आते हैं, जिसने धनुर्धारी एकलव्य का अंगूठा ही छीन लिया। और अब तीसरा उदाहरण मास्टर छैल सिंह का है जिसने 9 साल के दलित छात्र को मटके से पानी पीने पर इतना पीटा कि उसकी मौत हो गई।
“अनुमान है कि कुल मिलाकर दलित वर्गों के कोई 20 लोग घायल हो गए। इस घटना में जहां दलित वर्गों के लोगों का रवैया प्रशंसनीय था वहां उच्च वर्गों के अनेक लोगों का रवैया अशोभनीय था। दलित वर्गों के एकत्रित लोगों की संख्या उच्च वर्गों के लोगों से बहुत अधिक थी, लेकिन उनके नेताओं का उद्देश्य था कि हर काम नितांत संवैधानिक और अहिंसात्मक ढंग से हो। उन्होंने प्रयास किया कि दलित वर्गों के लोगों की ओर से कोई आक्रमण ना हो। इसके लिए दलित वर्गों की जितनी प्रशंसा की जाए वह थोड़ी है। भले ही उनके सामने उत्तेजना का पहाड़ था पर उन्होंने अपना संयम बनाए रखा। महाड़ सम्मेलन ने बता दिया कि उच्च वर्ग नहीं चाहते थे कि सार्वजनिक स्थानों से पानी लेने जैसे प्रारंभिक नागरिक अधिकार भी दलित वर्ग प्राप्त करें।”
हाशिए पर धकेल दिए गए समाज की आजादी कहां है और कितनी है इस सवाल के सामने यह आज़ादी छोटी पड़ रही है। सिर्फ अपने बारे में नहीं सोचे बल्कि अपने आस-पास भी देखें। सभी की आजादी में शामिल हो जाना ही भारत हो जाना है। इस आधी-अधूरी आज़ादी में एक गहरी खाई है जिसे कम से कम सोशल मीडिया पर देशप्रेम से लबालब पोस्टर शेयर कर देने से तो नहीं पाट सकेंगे। मुझे उसी सांझी आजादी का इंतजार है। उम्मीद है देश को आजादी मिले सामंतवाद से, मनुवाद से, जातिवाद से, पूंजीवाद से, छुआछूत से, ब्राह्मणवाद से और समानता, बंधुता पर आधारित समाज की स्थापना हो जिसकी इजाजत संविधान देता है।
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तस्वीर:श्रेया टिंगल फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए