समाजख़बर बिलकिस बानो केस: विधायक सीके राउलजी का बयान भारतीय न्याय व्यवस्था का मनुवादी चरित्र दिखाता है

बिलकिस बानो केस: विधायक सीके राउलजी का बयान भारतीय न्याय व्यवस्था का मनुवादी चरित्र दिखाता है

ऐसे मामलों में हमें अक्सर बड़ी संख्या में लोग यह कहते मिल जाते हैं रेप में जाति, धर्म, वर्ग आदि का कोई रोल नहीं होता। वे इन उदाहरणों से समझ सकते हैं कि तथाकथित उच्च जाति का पुरुष अल्पसंख्यक समुदाय की महिला का रेप सिर्फ़ इसीलिए नहीं कर रहा है कि वह एक महिला है बल्कि महिला के समुदाय को नीचा दिखाने के लिए, उन्हें समाज में बार- बार उनका स्थान याद दिलाने के लिए करता है।

15 अगस्त की सुबह स्वतंत्रता दिवस मनाया जा रहा था, उसी दिन की शाम को साल बिलकिस बानो का गैंगरेप करने वाले, उनके परिवार के सदस्य और तीन साल की बच्ची की हत्या करने वाले ग्यारह दोषियों को गुजरात सरकार द्वारा गठित कमेटी के दिशा-निर्देश में गोधरा जेल से रिमिशन पॉलिसी के तहत रिहा कर दिया गया। वेबसाइट मोजो स्टोरी के एक रिपोर्टर ने इसी सिलसिले में गुजरात से एमएलए सीके राउलजी जो इस कमिटी में शामिल थे, उनका इंटरव्यू लिया। इस इंटरव्यू में वह कहते हैं कि सरकार ने कमिटी गठित की और उन्हें शामिल किया गया तब यह पता नहीं था कि बिलकिस बानो कौन हैं, उसका केस क्या है। एमएलए दोषियों के कॉन्टेक्स्ट में कहते हैं कि क्राइम किया है कि नहीं किया है हमें पता नहीं है। ब्राह्मण लोग थे वैसे भी ब्राह्मण का जो कुछ भी है उसका संस्कार अच्छा है। जेल में, जेल से पहले उनका बिहेव अच्छा था, उन्हें फंसाया गया होगा। 

इस इंटरव्यू में एमएलए को सुनते हुए बहुत से सवाल ज़हन में आते हैं। जब एमएलए कहते हैं कि उन्हें नहीं पता था बिलकिस बानो कौन हैं, उसका केस क्या है तब ये सवाल उठता है कि कमिटी में ऐसे लोगों को शामिल ही क्यों किया गया जिन्हें बिलकिस बानो के केस के बारे में, उसकी ज्यूडिशियल प्रोसेसिंग के बारे में पता ही नहीं था? क्या कमिटी में दोषियों की रिहाई का निर्णय सिर्फ़ इस आधार पर ले लिया गया कि वे ब्राह्मण हैं? बिलकिस बानो का केस ऐसा पहला केस नहीं है जब दोषियों की जाति, धर्म को सर्वोपरि मानते हुए उनके गुनाहों को कमतर आंका गया है और अपराध मुक्त किया गया है। 

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22 सितंबर 1992 को तथाकथित उच्च जाति (गुज्जर जाति) के पांच व्यक्तियों ने तथाकथित निचली जाति की महिला भंवरी देवी का गैंगरेप किया था। भंवरी देवी राज्य सरकार के विमेंस डेवलपमेंट प्रोग्राम में 1985 से सक्रिय थीं। अपने काम के तहत ही उन्होंने एक बच्ची (जिसका पिता दोषियों में शामिल था) का बाल विवाह रोका था। इसी का बदला लेते हुए पांचों ने भंवरी देवी का बलात्कार किया। भंवरी देवी ने न्यायिक लड़ाई लड़ी, एक साल बाद दोषियों को पकड़ा गया लेकिन 1995 में रेप के चार्ज से उन्हें मुक्त कर दिया गया। न्यायिक प्रक्रिया में कोर्ट द्वारा जातिवादी टिप्पणी की गई।

  • ग्राम प्रधान बलात्कार नहीं कर सकता।
  • विभिन्न जातियों के पुरुष सामूहिक बलात्कार में भाग नहीं ले सकते
  • 60-70 साल के बुजुर्ग रेप नहीं कर सकते।
  • एक आदमी किसी रिश्तेदार के सामने बलात्कार नहीं कर सकता। यह दो पुरुषों, एक चाचा और भतीजे के संदर्भ में था।
  • उच्च जाति का कोई सदस्य निम्न जाति की महिला से पवित्रता के कारण बलात्कार नहीं कर सकता।
  • भंवरी देवी का पति अपनी पत्नी को गैंगरेप होते हुए चुपचाप नहीं देख सकता था।

हाल ही में 2020 में 14 सितंबर को उत्तर प्रदेश के हाथरस ज़िले में अनुसूचित जाति की 19 वर्षीय युवती का चार तथाकथित उच्च जाति (ठाकुर जाति) के युवकों ने गैंगरेप किया था। घटना के कुछ ही दिनों में दिल्ली के अस्पताल में युवती की मौत हो गई थी। न्यायिक प्रक्रिया शुरू होते ही युवती के शव को पुलिस द्वारा रात में बिना परिवार के सहमति के जला दिया गया था और सवर्ण समाज के लोगों ने दोषी युवकों के पक्ष में महापंचायत की थी। 

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ऐसे मामलों में हमें अक्सर बड़ी संख्या में लोग यह कहते मिल जाते हैं रेप में जाति, धर्म, वर्ग आदि का कोई रोल नहीं होता। वे इन उदाहरणों से समझ सकते हैं कि तथाकथित उच्च जाति का पुरुष अल्पसंख्यक समुदाय की महिला का रेप सिर्फ़ इसीलिए नहीं कर रहा है कि वह एक महिला है बल्कि महिला के समुदाय को नीचा दिखाने के लिए, उन्हें समाज में बार- बार उनका स्थान याद दिलाने के लिए करता है। बिलकिस बानो केस, हाथरस गैंगरेप, भंवरी देवी केस ऐसे लाखों मामलों में से सामने आए बेहद कुछ उदाहरण हैं। एनसीआरबी के आंकड़े इससे भी भयानक हैं। 2019 एनसीआरबी डाटा के अनुसार तकरीबन हर दिन औसतन 10 दलित महिलाओं का रेप इस देश में होता है। रॉयटर्स में छपे एक लेख के अनुसार नब्बे प्रतिशत केस में गैंगरेप, मर्डर में कम से कम एक अपराधी सवर्ण जाति से होता है।

इक्वॉलिटी नाउ नामक संस्था की वेबसाइट पर छपी एक रिपोर्ट में एक महिला शबनम (बदला हुआ नाम) हरियाणा से आती हैं, जब वह नाबालिग थीं तब 2013 में उनका रेप हुआ। इतने सालों से उनका केस ट्रायल पर है, इस दौरान उन्हें मार देने के काफी प्रयास अपराधियों की तरफ़ से हुए। हाथरस गैंगरेप को याद करते हुए वह कहती हैं कि ये ठीक उनके साथ हुआ रेप जैसा है, फर्क इतना है कि वह जिंदा हैं। एक और युवती ममता (बदला हुआ नाम) के साथ सवर्ण पुरुष ने साल 2012 में रेप किया और जब वह नाबालिग थीं। खाप पंचायत ने उनका विवाह बलात्कारी के साथ कर देने का फैसला सुनाया, जिसके खिलाफ उनके पिता तक कुछ न बोल सके। शादी के महीनों बाद तक ममता का बलात्कारी उन्हें एक कमरे में बंद कर उनका रेप करता रहा। इतना ही नहीं वह अपने साथ अन्य पुरुषों और रिश्तेदारों को भी लेकर आता जो ममता का बलात्कार करते। किसी तरह ममता ने वहां से निकलकर स्वाभिमान सोसाइटी की मदद ली।

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ये केस सिर्फ़ चुनिंदा केस हैं जो सामने आए हैं, वे केस जो रिपोर्ट तक नहीं होते उनके आंकड़े कहीं ज्यादा हैं। इन मामलों को देखें तो न्यायिक व्यवस्था संविधान से नहीं बल्कि जाति वर्चस्व से चलती दिखाई देती है। दलित समुदाय से आनेवाली महिला को पहले तो रिपोर्ट लिखवाने का ही मौका नहीं मिलता और जब मिलता भी है तो पुलिस स्टेशन में ही ये कहकर मामला रफ़ा दफा करने की कोशिश होती है कि कोई उच्च जाति का व्यक्ति उन्हें छू भी कैसे सकता है जैसा कि भंवरी देवी के केस में, हाथरस के केस में हुआ। 

दूसरा अपराधी की गिरफ्तारी हो भी जाए तो उच्च न्यायलायों द्वारा उन्हें इन तर्कों के साथ रिहाई मिल रही है कि वे फलां पवित्र जाति से आते हैं इसीलिए तथाकथित निचली जाति, आदिवासी, अल्पसंख्यक को कैसे छू सकते हैं। फलां जाति से होने पर उनके कर्म तो श्रेष्ठ ही होंगे के मानक को मानते हुए दोषी बरी कर दिए जाते हैं। यह सब होना जातिवादी होने के साथ साथ ब्राह्मणवादी पितृसत्ता भी है कि दोषियों की जाति देखते वक्त ये भी नहीं देखा जाता कि पीड़ित पक्ष में एक अल्पसंख्यक समूह की महिला है जो समाज में सबसे वल्नरेबल है। 

बिलकिस बानो के केस में एमएलए जो यह कह रहे हैं कि “ब्राह्मण हैं, उनके संस्कार अच्छे हैं”, आख़िर यह सोच कहां से आ रही है कि ब्राह्मण होना अच्छे होने की निशानी है चाहे उसने गैंगरेप किया हो, हत्याएं की हो? और कोई सवर्ण किसी दलित महिला को छू ही नहीं सकता? जाति के केंद्र में “पवित्रता, प्रदूषण” है यानी हर उच्च जाति का व्यक्ति ये सोचता है कि वह पवित्र है यही उसका धार्मिक यानी जातीय आचरण है। जब दोषी भी उच्च जाति हो और न्याय करने वाला भी तब दोनों ही व्यक्तियों में ये सोच समान होती है। 

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फ्रंटलाइन में छपे एक लेख के अनुसार मनुस्मृति के 3/17 के अनुसार “एक ब्राह्मण जो एक शूद्र महिला से शादी करता है, खुद को और अपने पूरे परिवार को नीचा दिखाता है, नैतिक रूप से पतित हो जाता है, ब्राह्मण का दर्जा खो देता है और उसके बच्चे भी शूद्र की स्थिति प्राप्त कर लेते हैं।” शादी करने के अर्थ संभोग से समझ सकते हैं। इसके अनुसार ब्राह्मण निचली जाति की महिला से संभोग करेगा ही नहीं वरना वह खुद निचली जाति का सदस्य बन जाएगा। इस देश का सवर्ण खुद का विशेषाधिकार खो ही नहीं सकता। न्यायिक व्यवस्था के निचले स्थान से लेकर शीर्ष में बैठे लोग सवर्ण हैं, जब तक इस व्यवस्था में अल्पसंख्यक समुदाय के व्यक्तियों का आना नहीं होगा, जजों की नियुक्ति के लिए कोलेजियम सिस्टम नहीं हटेगा, सवर्ण जाति के न्याय के कर्ता-धर्ता अपनी जाति के दोषियों के पक्ष में फैसला सुनाते रहेंगे। 

बेशक कड़े से कड़े कानून इस देश में रेप और यौन हिंसा के ख़िलाफ़ बना दिए गए हो लेकिन इन कानूनों का अर्थ कुछ भी नहीं रह जाता है क्योंकि सर्वाइवर को इनका लाभ ही नहीं मिल रहा है। इन कानूनों का कोई मतलब नहीं रह जाता अगर उनके साथ संविधान के तहत नहीं, जाति वर्चस्व, धर्म वर्चस्व के तहत फैसला किया जा रहा है। हाशिए पर खड़ी महिलाओं की न्यायिक लड़ाई बहुत थकाऊ और चुनौतियों से भरी है। उनके पास संसाधन कम हैं, उनके जीवन तक को इस दौरान खतरा होता है, इतना सब झेलते हुए वह न्यायालय के दरवाजे तक न्याय की उम्मीद में जाती है लेकिन न्यायालय उनके साथ भंवरी देवी और बिलकिस बानो जैसा सलूक करते हैं। 

जैसा बाबा साहेब आंबेडकर ने कहा था कि संविधान कितना ही अच्छा हो अगर उसे चलाने वाले, उसे लागू करनेवाले बुरे होंगे तो संविधान आखिरकार बुरा ही साबित होगा। इस तरह के फैसले जो दोषियों के पक्ष में आ रहे हैं वह इस ओर इशारा कर रहे हैं कि इस देश में संविधान और न्याय से भी सर्वोपरी कोई है और वह है जाति का वर्चस्व। अपराधी शायद इन अपराधों को करते हुए इसीलिए भी नहीं कतरा रहे हैं कि उन्हें पता है सिस्टम में उनके धर्म, जाति के लोग मौजूद हैं जो उन्हें रियायत देंगे।

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तस्वीर साभार: Indian Express/PTI

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