पैंतीस वर्षीय गुंजा बसुहन गाँव की रहनेवाली है। गुंजा दिहाड़ी मज़दूरी करके अपने परिवार का पेट पालती है। हर दिन सुबह नौ बजे गुंजा काम पर पहुंच जाती हैं और शाम पांच बजे तक काम करती हैं। जब काम ठेके पर होता है तो कई बार उन्हें खाने की भी छुट्टी नहीं मिलती। गुंजा महीने का क़रीब तीन-चार हज़ार रुपए कमा पाती हैं, वह भी अगर उसे महीने भर काम मिल तो। वरना उन्हें महीने के आख़िर में किसी न किसी से क़र्ज़ लेना ही पड़ता है।
छतेरी गाँव की रहनेवाली माला एक ठेकेदार की टीम के साथ जुड़कर काम करती हैं। लेकिन महिला होने की वजह से उसे हमेशा मज़दूरी का वह काम दिया जाता है, जिसमें मेहनत तो ज़्यादा होती है, लेकिन पैसे कम मिलते हैं। जैसे पत्थर तोड़ने का काम या फिर ईंट लाने का काम। माला बताती हैं, “देखने में तो लगता है कि हम पूरे महीने काम करते हैं, लेकिन पैसे इतने कम मिलते हैं कि महीने के आख़िर तक दो वक्त की रोटी का जुगाड़ भी मुश्किल हो जाता है। अगर अचानक बच्चों की तबियत ख़राब हो जाए या फिर कोई मुसीबत आ जाए तो हम लोगों के पास दूसरों से उधार लेने के अलावा और कोई उपाय नहीं होता है।”
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गुंजा और माला की ही तरह मालती भी दिहाड़ी मज़दूरी करके अपने परिवार का खर्च चलाती हैं, लेकिन कई बार उन्हें काम मिल पाना मुश्किल हो जाता है। इसलिए मालती खेती के मौसम में खेतिहर मज़दूरी का भी काम करती हैं, लेकिन इस साल बारिश कम होने की वजह से उनको काम नहीं मिला। मालती को हर दिन की मज़दूरी के तीन सौ रुपए मिलते हैं लेकिन उसी काम के लिए पुरुषों को साढ़े चार सौ रुपए मिलते हैं।
गुंजा, माला और मालती की तरह देश में कई करोड़ महिलाएं असंगठित क्षेत्र में काम कर रही हैं। इंडियास्पेंड की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में क़रीब 9.6 करोड़ महिलाएं हैं जो असंगठित क्षेत्र में काम करती हैं। चूंकि ये महिलाएं किसी सरकारी श्रमिक कार्यक्रम का हिस्सा नहीं हैं और न ही इनका काम स्थायी है, इसलिए इन्हें अस्थायी महिला श्रमिक कहा जाता है। अस्थायी होने की वजह से इन्हें कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है , जैसे हिंसा, कम वेतन, सरकारी मज़दूर योजनाओं से वंचित होना, श्रम क़ानून की जानकारी का अभाव होना आदि।
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भारत में महिला श्रमिकों की संख्या या उनकी स्थिति को लेकर बहुत ज़्यादा काम नहीं किया गया है, इस संबंध में आंकड़े और रिपोर्ट्स भी बेहद कम मौजूद हैं। लेकिन ऐसा नहीं है कि हमारे देश में महिला श्रमिकों के लिए क़ानून नहीं बनाए गए हैं, लेकिन दिक़्क़त यहां क़ानून के अभाव से ज़्यादा इन क़ानूनों की जानकारी और लागू होने का अभाव है। इस वजह से आज भी ये क़ानून पूरी तरह उन तक नहीं पहुंच पाए हैं जिनकी इन्हें सबसे अधिक ज़रूरत है।
आज भी महिला श्रमिकों को उनके बुनियादी अधिकारों से दूर रखा जाता है, जिसकी ज़िम्मेदारी कौन लेगा यह सवाल है? गुंजा, माला और मालती जैसी कई महिला श्रमिक अपना और अपने परिवार का बेहतर भविष्य चाहती हैं और वे नहीं चाहती कि उनकी आनेवाली पीढ़ियों को कभी ऐसे मज़दूरी का काम करना पड़े।
अगर हम बात करें समान पारिश्रमिक अधिनियम, 1976 की तो इस क़ानून के अनुसार समान काम के लिए बिना किसी भेदभाव के पुरुष और महिला श्रमिकों को बराबर पैसा मिलना उनका अधिकार है। इतना ही नहीं, इस क़ानून के अनुसार, भर्ती के बाद उनके पद में उन्नति करना, प्रशिक्षण या उनका ट्रांसफ़र जैसी किसी भी सुविधा को लेकर महिला के साथ किसी भी तरह का भेदभाव नहीं किया जा सकता है। हां अब यह अलग बात है कि इस क़ानून को लागू होते हम बहुत कम या ना के बराबर ही देख पाते हैं। ख़ासकर बात जब असंगठित क्षेत्र की महिलाओं की आती है तो ये कानून कहीं नज़र नहीं आते।
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उत्तर प्रदेश भवन एवं सन्निर्माण कर्मकार कल्याण बोर्ड की वेबसाइट के अनुसार सरकार ने भवन एवं निर्माण कार्य में लगे मज़दूरों के लिए 28 योजनाओं को लागू किया है। इनमें से पांच (शिशु हितलाभ योजना, बालिका आशीर्वाद योजना, मातृत्व हितलाभ योजना, पुत्री विवाह अनुदान योजना, मातृत्व शिशु एवं बालिका मदद योजना) महिलाओं को केन्द्र में रखकर तैयार की गई हैं। इसके अलावा शौचालय और आवास निर्माण की भी योजना को लागू किया गया है।
भारत में क़रीब 9.6 करोड़ महिलाएं हैं जो असंगठित क्षेत्र में काम करती हैं। चूंकि ये महिलाएं किसी सरकारी श्रमिक कार्यक्रम का हिस्सा नहीं हैं और न ही इनका काम स्थायी है, इसलिए इन्हें अस्थायी महिला श्रमिक कहा जाता है। अस्थायी होने की वजह से इन्हें कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है , जैसे हिंसा, कम वेतन, सरकारी मज़दूर योजनाओं से वंचित होना, श्रम क़ानून की जानकारी का अभाव होना आदि।
ये तो बात है सरकार कि योजनाओं की लेकिन जब हम इन योजनाओं के गुंजा, माला और मालती के घरों, बस्तियों और जिंदगियों में तलाशने की कोशिश करते हैं तो हमेशा निराशा ही सामने आती है। जब भी सूखा, बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदा आती है तो अक्सर किसानों की आत्महत्या से मौत की खबरें अख़बारों में आने लगती हैं, लेकिन कभी भी आत्महत्या से होनेवाली इन मौत के आंकड़ों में या इन प्राकृतिक आपदाओं के दौरान महिला किसानों की बात या उनकी स्थिति के बारे में बात नहीं होती है। यहां भी समाज, मीडिया और सरकार का वही पितृसत्तात्मक रवैया होता है, जैसा आमतौर पर हम अपने घरों में देखते हैं।
आज भी श्रम क्षेत्र में महिला श्रमिकों को उनके बुनियादी अधिकारों से दूर रखा जाता है, जिसकी ज़िम्मेदारी कौन लेगा यह सवाल है? गुंजा, माला और मालती जैसी कई महिला श्रमिक अपना और अपने परिवार का बेहतर भविष्य चाहती हैं और वे नहीं चाहती कि उनकी आनेवाली पीढ़ियों को कभी ऐसे मज़दूरी का काम करना पड़े, पर उनके ये सपने कभी पूरे होंगे या नहीं इस पर प्रश्नचिन्ह है।
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तस्वीर साभार: Her Circle