समाजकानून और नीति कानून व्यवस्था और न्याय तक महिलाओं की पहुंच में कितनी रुकावटें!

कानून व्यवस्था और न्याय तक महिलाओं की पहुंच में कितनी रुकावटें!

न्याय तक महिलाओं की पहुंच को केवल कानूनी धाराओं के होने से नहीं मापा जा सकता, क्योंकि यह केवल कानून व्यवस्था के भीतर प्रणालीगत कमियों से नहीं, बल्कि बाहरी कारणों से भी प्रभावित होती है। लैंगिक भेदभाव के कारण अलग-अलग बाधाएं, न्यायिक संस्थानों का पूर्वाग्रह से ग्रसित होना, पितृसत्तात्मक सामाजिक मानदंड और संवेदनशील प्रक्रियाओं की कमी ऐसे कुछ कारण हैं जो महिलाओं को कानून की मदद लेने और उनके मानवाधिकारों के वंचित करते हैं।

हाल ही में राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड (एनजेडीजी) के आंकड़ों के आधार पर स्क्रॉल डॉट इन में छपी एक खबर बताती है कि साल 2021 में महिलाओं ने भारत में दर्ज हुए कुल कानूनी मामलों में सिर्फ 8.6 प्रतिशत मामले दर्ज किए। बात आपराधिक मामलों की करें, तो केवल 6.07 प्रतिशत मामले और कुल सिविल मामलों के 15.9 फीसद मामले महिलाओं ने दायर किया था। यह रिपोर्ट बताती है कि महिलाओं के दर्ज किए गए आपराधिक मामलों का एक बड़ा हिस्सा खुद उनके खिलाफ हुए अपराधों के बारे में नहीं, बल्कि ये वैसे आपराधिक मामले हैं जो वह अपने बच्चों या परिवार के अन्य सदस्यों की ओर से दर्ज कर रही हैं। एनजेडीजी और राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों पर आधारित स्क्रॉल की इस खबर से यह पता चलता है कि महिलाओं के दर्ज किए गए आपराधिक मामलों की संख्या, महिलाओं के खिलाफ दर्ज किए गए अपराधों की संख्या से कहीं अधिक है। यानि बात जब खुद महिलाओं की होती है, तो वे कानूनी व्यवस्था तक जाने और मदद लेने में झिझकती हैं या लेती ही नहीं हैं।

भारत के मौजूदा कानून व्यवस्था पर गौर करें, तो लगता है कि यह आम जनता को न्याय दिलाने के लिए यह एक मजबूत व्यवस्था है। लेकिन हमेशा से अलग-अलग सरकार के प्रयासों के बावजूद आज भी पुलिस या कोर्ट तक आम जनता की पहुंच आसान नहीं है। भारतीय समाज में आज भी पुलिस या कोर्ट की मदद लेने को परिवार की प्रतिष्ठा के साथ खिलवाड़ करने जैसा समझा जाता है। हालांकि, यह नियम पुरुषों और महिलाओं दोनों पर लागू होते हैं लेकिन महिलाओं के लिए यह एक अनिवार्य शर्त मानी जाती है। महिलाओं पर पारंपरिक, पारिवारिक और सामाजिक दबाव के कारण, वे अक्सर कानूनी सहारा लेने से झिझकती हैं। पुरुषों की तुलना में महिलाओं को न्याय पाने में, या महज कानूनी व्यवस्था तक पहुंचने में, कहीं अधिक और जटिल कठिनाइयों और बाधाओं का सामना करना पड़ता है। इसलिए हिंसा के मामलों में, महिलाओं की न्याय तक पहुंच में कानूनी उपायों के अलावा, हमें अन्य सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक समस्याओं पर गौर करने की जरूरत है।

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महिलाओं के कानूनी मदद लेने में परिवार और समाज की है अहम भूमिका

परिवार समाज निर्माण का एक प्रमुख खंड है, जिसके बिना समुदाय और विभिन्न व्यवस्थाएं काम नहीं कर सकती। परिवार के माध्यम से ही लोग आय, घर या अन्य संसाधनों को एक-दूसरे से बांटते हैं। किसी भी व्यक्ति के लिए परिवार उसकी सामाजिक पहचान या संसाधनों तक पहुंच का जरिया हो सकता है। यह परिवार के हर सदस्य की पहचान और अपनेपन की भावना के लिए भी महत्वपूर्ण होता है। लेकिन अक्सर परिवार में महिलाओं और लड़कियों को हिंसा और भेदभाव का सामना करना पड़ता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार अपने जीवनकाल में, हर तीन में से एक महिला को अपने अंतरंग साथी के हाथों शारीरिक या यौन शोषण का सामना करना पड़ता है। कई बार महिलाओं को पारिवारिक संपत्ति और संसाधनों से भी महज उनके महिला होने के कारण बेदखल कर दिया जाता है।

महिलाओं पर पारंपरिक, पारिवारिक और सामाजिक दबाव के कारण, वे अक्सर कानूनी सहारा लेने से झिझकती हैं। पुरुषों की तुलना में महिलाओं को न्याय पाने में, या महज कानूनी व्यवस्था तक पहुंचने में, कहीं अधिक और जटिल कठिनाइयों और बाधाओं का सामना करना पड़ता है।

साथ ही, महिलाओं को परिवार के मर्यादा की पूरी ज़िम्मेदारी थमा दी जाती है। पितृसत्तात्मक समाज के बनाए गए नियमों के अनुसार, ‘अच्छी’ महिलाओं का कानूनी मामलों से कोई नाता नहीं होना चाहिए। इसलिए जब कोई महिला आपराधिक न्याय प्रणाली से जुड़ने की कोशिश करती है, तो यह पूरी प्रक्रिया ही खुद एक बाधा बन जाती है। महिलाओं को न सिर्फ प्रणालीगत समस्याओं से जूझना पड़ता है, बल्कि अपने आप से और कई बार अपने परिवार से भी लड़ाई लड़नी पड़ती है। इसलिए अधिकांश महिलाओं का किसी भी प्रकार की राहत पाने के लिए, कानूनी मदद की ओर रुख न करना ही आम है। कानूनी सहायता और परामर्श के बिना, आर्थिक तंगी या आर्थिक स्वतंत्रता की कमी में, परिवार और समाज के साथ के बिना महज महिलाओं की रक्षा करनेवाले कानूनों का मौजूद होना काफी नहीं।

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कानून को नहीं, कानून व्यवस्था को करना होगा ठीक

जब हम कानून व्यवस्था और महिलाओं के सामने आने वाली चुनौतियों की बात करते हैं, तो आम तौर पर महिलाओं के खिलाफ हुई हिंसा की घटनाओं की बात होती है। महिलाओं के खिलाफ हिंसा हमेशा आपराधिक कानून से ही जुड़ा होता है। महिलाओं के लिए चुनौतियाँ आपराधिक कानूनी कार्रवाई के पहले कदम; यानि पुलिस स्टेशन में जाकर प्राथमिकी दर्ज करवाने से ही शुरू हो जाती है। महिलाओं के लिए प्राथमिकी दर्ज करना अपने-आप में कानून व्यवस्था तक पहुंचने में एक बड़ी बाधा है। हमारे समाज की समस्या ही यह है कि यह महिलाओं को शिकायत करने और न करने दोनों ही स्थिति में घटना के लिए ज़िम्मेदार ठहराता है। अमूमन, जब कोई महिला एफआईआर दर्ज करने जाती है, तो वह घटना उसके खिलाफ हुई यौन या घरेलू हिंसा के लिए होती है। ऐसे में महिलाओं को अक्सर असंवेदनशील, बेतुके सवाल-जवाब और इल्ज़ामों का सामना करना पड़ता है। इसलिए कानूनी प्रक्रिया में न्याय पाने तक का सफर और इसका भार केवल महिलाओं पर डाल देना सही नहीं।

पितृसत्तात्मक समाज के बनाए गए नियमों के अनुसार, ‘अच्छी’ महिलाओं का कानूनी मामलों से कोई नाता नहीं होना चाहिए। इसलिए जब कोई महिला आपराधिक न्याय प्रणाली से जुड़ने की कोशिश करती है, तो यह पूरा प्रक्रिया ही खुद एक बाधा बन जाती है।

हज़ारों रिपोर्ट्स और खबरें बताती हैं कि आज भी महिलाओं को अपने खिलाफ हुई हिंसा की घटनाओं में समझौता करने की सलाह खुद पुलिस देती है। घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम 2005 के अनुसार जब कोई महिला घरेलू हिंसा की रिपोर्ट दर्ज करने जाती है, तो उसे सुरक्षा अधिकारी मुहैया करावाना होगा। लेकिन आम तौर पर सुरक्षा अधिकारी की जगह पुलिस खुद संबंधित महिला या पति की काउंसलिंग करने लगते हैं। इसी तरह विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम 1987 के तहत, पुलिस स्टेशन में एक पैरालीगल स्वयंसेवक होना चाहिए, जो जरूरतमंद परिवार को मामला दर्ज करने के लिए मुफ्त विधिक यानि कानूनी सहायता देगा। अलग-अलग रिपोर्ट्स के अनुसार विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम के तहत ऐसे लाखों पीड़ित कानूनी सहायता के लिए पात्र हैं, जिन्हें पर्याप्त सहायता नहीं मिलती है। इंडियास्पेंड की एक रिपोर्ट अनुसार भारत की लगभग 80 फीसद आबादी कानूनी सहायता के लिए योग्य है। लेकिन साल 1995 से अधिनियम के तहत स्थापित कानूनी सेवा संस्थानों ने केवल 15 मिलियन लोगों को कानूनी सेवा और सलाह प्रदान की है।

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महिलाओं का कानूनी रूप से जागरूक होना क्यों है जरूरी

यह ध्यान देने वाली बात है कि यदि समय पर कानूनी सलाह और सहायता न मिले, तो संबंधित व्यक्ति को ज्यादा भुगतना पड़ेगा, मामला कमज़ोर हो सकता है और न्याय मिलने में देर हो सकती है। इस पूरी प्रक्रिया में महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका होने के बावजूद, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक कारणों से हर महिला का कानून व्यवस्था तक आसान और निश्चित पहुंच मुमकिन नहीं होती। आज भी भारतीय समाज में अधिकतर घरेलू या कानूनी मामलों में महिलाओं को फैसले लेने का अधिकार नहीं दिया जाता। लेकिन हर महिला का कानूनी रूप से जागरूक होने से, कानूनी प्रक्रिया में उनके शामिल होने और न्याय मिलने की संभावना ज्यादा है।

यहां यह भी एक महत्वपूर्ण सवाल है कि क्या महिलाओं का कानूनी रूप से जागरूक होना सिर्फ उनकी खुद की ज़िम्मेदारी है? एक ऐसे समाज में जहां उन्हें दूसरे दर्जे का नागरिक समझा जाता हो, महिलाओं के कानूनी रूप से जागरूक होने में सरकार और समाज की भूमिका को नजरअंदाज़ नहीं किया जा सकता। महिलाओं की शिक्षा, आर्थिक सम्पन्नता और स्वतंत्रता उनके जागरूकता के लिए जरूरी है। देश की मौजूदा स्थिति को देखते हुए, राष्ट्रीय महिला आयोग और राष्ट्रीय कानूनी सेवा प्राधिकरण का महिलाओं से संबंधित कानूनों के तहत कानूनी अधिकारों और उपायों के लिए जागरूकता कार्यक्रम शुरू करना एक सराहनीय प्रयास है।

क्यों कानूनी व्यवस्था से महिलाओं का क्षणिक जुड़ाव उचित नहीं

भले भारतीय समाज में यह धारणा प्रचलित हो कि कानूनन व्यवस्था से दूरी बनाए रखना ही सही है। लेकिन महिलाओं का सही मायने में सशक्तिकरण तभी संभव है, जब उन्हें कानूनी व्यवस्था की पूरी समझ हो और यह संपर्क किसी एक मामले के लिए न हो। यह जरूरी है कि हम महिलाओं की कानूनी जागरूकता सिर्फ आपराधिक या सिविल मामलों तक तय न करें। इसका उद्देश्य कहीं ज्यादा व्यापक और सम्पूर्ण विकास के लिए होना चाहिए। समाज में महिलाओं की स्थिति में स्थायी बदलाव को सुनिश्चित करने के लिए, कानूनी जागरूकता को सकारात्मक तरीके से देखने की जरूरत है। इससे महिलाएं अपने अधिकारों का लाभ उठा पाएंगी और उनके हिंसा मुक्त जीवन बिता पाने की संभावना अधिक हो सकती है।

यहां यह भी एक महत्वपूर्ण सवाल है कि क्या महिलाओं का कानूनी रूप से जागरूक होना सिर्फ उनकी खुद की ज़िम्मेदारी है? एक ऐसे समाज में जहां उन्हें दूसरे दर्जे का नागरिक समझा जाता हो, महिलाओं के कानूनी रूप से जागरूक होने में सरकार और समाज की भूमिका को नजरअंदाज़ नहीं किया जा सकता।

न्याय तक महिलाओं की पहुंच को केवल कानूनी धाराओं के होने से नहीं मापा जा सकता, क्योंकि यह केवल कानून व्यवस्था के भीतर प्रणालीगत कमियों से नहीं, बल्कि बाहरी कारणों से भी प्रभावित होती है। लैंगिक भेदभाव के कारण अलग-अलग बाधाएं, न्यायिक संस्थानों का पूर्वाग्रह से ग्रसित होना, पितृसत्तात्मक सामाजिक मानदंड और संवेदनशील प्रक्रियाओं की कमी ऐसे कुछ कारण हैं जो महिलाओं को कानून की मदद लेने और उनके मानवाधिकारों के वंचित करते हैं। महिलाओं को न्याय मिलने के लिए, उनका कानून व्यवस्था तक पहुंच ही नहीं, कानूनी अधिकारों को लेकर जागरूकता, निष्पक्ष, स्वस्थ और लैंगिक रूप से समान वातावरण का होना भी ज़रूरी है। जरूरी है कि हमारा कानून व्यवस्था महिलाओं के लिए, उनके साथ और उनकी ओर से काम करे।

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तस्वीर साभार: Oxford Human Rights Hub

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