समाजपर्यावरण ग्रीन वॉशिंग: पर्यावरण बचाने के नाम पर पर्यावरण को कैसे पहुंचाया जाता है नुकसान

ग्रीन वॉशिंग: पर्यावरण बचाने के नाम पर पर्यावरण को कैसे पहुंचाया जाता है नुकसान

वैश्वीकरण के बढ़ते दौर में हमें ग्रीन वॉशिंग के प्रति भी जागरूक होने की आवश्यकता है। हम ग्रीन प्रोडक्ट प्रकृति हितैषी सोचकर खरीदते हैं लेकिन हमें ग्रीन लाई से बचने की जरूरत है। प्रोडक्ट को खरीदते समय उसकी पैकेजिंग को देखना चाहिए।

हम टीवी पर, राह चलते होर्डिंग्स, सोशल मीडिया पर, हर जगह विज्ञापनों से घिरे हुए हैं, प्रोडक्ट्स से घिरे हुए हैं। हर कंपनी की यही तीव्र इच्छा है कि उसके प्रोडक्ट्स ज़्यादा से ज़्यादा खरीदें जाएं। इसी दिशा में हर कंपनी अपने प्रोडक्ट की ब्रांडिंग और एडवरटाइजिंग अलग अलग तरह से करती है। वैश्वीकरण, मशीनीकरण के दौर में ये कंपनियां अब ग्राहक को प्राकृतिक प्रोडक्ट्स इस्तेमाल करने की सलाह दे रही हैं। प्रोडक्ट्स पर 100% एनवायरनमेंट फ्रेंडली लिखा होना, प्रॉडक्ट के कवर का ग्रीन होना, कंपनियों द्वारा ये क्लेम करना कि उनका प्रॉडक्ट एन्वायरमेंट फ्रेंडली है और उनके प्राकृतिक प्रोडक्ट इस्तेमाल करने से प्रकृति का भला होगा।

जबकि सच्चाई यह नहीं होती। कंपनियां असल में प्रकृति के बचाव के लिए कोई पुख्ता काम नहीं करती बल्कि प्रोडक्ट की मार्केटिंग इस तरह करती हैं जैसे उनके प्रोडक्ट को खरीदना ही प्रकृति को बचाना है, यही पूरी प्रक्रिया ग्रीन वॉशिंग कहलाती है। इस शब्द की प्रेरणा व्हाइट वॉशिंग शब्द से है जिसका मतलब है “बुरे व्यवहार पर प्रकाश डालने के लिए भ्रामक जानकारी का उपयोग करना”। ठीक इसी तरह गलत जानकारी देते हुए प्रोडक्ट को एनवायरमेंट फ्रेंडली साबित करना ग्रीन वॉशिंग है। इस प्रक्रिया में कंपनियां इस तरह की बिजनेस प्रैक्टिस नहीं लाती जिससे कि प्रकृति पर सकारात्मक प्रभाव पड़े बल्कि प्रोडक्ट की एडवरटाइजिंग पर तमाम रुपये खर्च करती हैं जिसे ग्रीन मार्केटिंग या ग्रीन एडवरटाइजिंग कहते हैं।

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ग्रीन वॉशिंग आज के मार्केट का ट्रेंड है। वैश्वीकरण का ऐसा दौर जब अमीर और मिडल क्लास तबका यह महसूस कर रहा है कि केमिकल युक्त चीजें उनके शरीर को कितना नुकसान दे रही हैं, तब यह तबका कंपनियों के ग्रीन वॉशिंग के झांसे में इस वजह से आ रहा है कि उसे लग रहा है, उसके द्वारा इस्तेमाल किया जा रहा प्रोडक्ट उसे और प्रकृति को नुकसान नहीं पहुंचाएगा, जबकि हकीकत ये नहीं है।

कैंब्रिज डिक्शनरी के अनुसार “ग्रीन वॉशिंग यह विश्वास दिलाने के लिए डिज़ाइन किया गया है कि कंपनियां पर्यावरण की रक्षा के लिए जितना है उससे कहीं अधिक काम कर रही है।” ग्रीन वॉशिंग कांसेप्ट का ओरिजिनग्रीन वॉशिंग बतौर कांसेप्ट बहुत पुराना शब्द, प्रक्रिया नहीं है। 1986 में पर्यावरणविद जे वेस्टरवेल्ड ने इस शब्द को पहली बार ‘सेव द टॉवेल’ मूवमेंट की आलोचना में अपने लेख में इस्तेमाल किया था। सेव द टॉवेल मूवमेंट एक ऐसा मूवमेंट था जिसमें होटलों में टॉवेल को न धोकर उसके बार-बार के इस्तेमाल को ईको फ्रेंडली साबित किया जा रहा था। वहीं वेस्टरवेल्ड का तर्क था कि ये सब करने की बजाय होटलों को सस्टेनेबल एफर्ट्स पर ध्यान देना चाहिए।

ग्रीन वॉशिंग आज के मार्केट का ट्रेंड है। वैश्वीकरण का ऐसा दौर जब अमीर और मिडल क्लास तबका ये महसूस कर रहा है कि केमिकल युक्त चीजें उनके शरीर को कितना नुकसान दे रही हैं तब यह तबका कंपनियों के ग्रीन वॉशिंग के झांसे में इस वजह से आ रहा है कि उसे लग रहा है, उसके द्वारा इस्तेमाल किया जा रहा प्रोडक्ट उसे और प्रकृति को नुकसान नहीं पहुंचाएगा, जबकि हकीकत ये नहीं है।

नेस्ले कंपनी जो अपने प्रोडक्ट को एनवायरमेंट फ्रेंडली होने का दम भरती है साल 2018 में कहती है कि वह 2025 तक अपने प्रोडक्ट की पैकेजिंग को सौ प्रतिशत तक रिसाइकिल और रियूजेबल योग्य बनाएगी। इसकी आलोचना पर्यावरणविदों ने इस तरह की कि कंपनी ने कोई पुख्ता टारगेट नहीं रखा था, सिस्टम नहीं बताया था। इस वादे को करते हुए भी 2020 में नेस्ले, कोका कोला और पेप्सी तीसरी साल में लगातार टॉप प्लास्टिक पैदा करने वाली कंपनी बनी रहीं।

ठीक इसी तरह प्रसिद्ध कार कंपनी फॉक्सवेगन का केस है। कंपनी ने मुहीम चलाई कि प्रकृति के हित में वाहनों में पेट्रोल की बजाय डीजल का इस्तेमाल हो जो कम प्रदूषण पैदा करेगा। हालांकि जब जांच की गई तो पाया गया कि कंपनी ने 11 मिलियन कार के साथ धांधली की थी और इस तरह उनमें डिवाइस फिट किया गया था कि कार कितना प्रदूषण कर रही है वो जांच के वक्त पता न लगाया न जा सके। हम ये जानते हैं कि किस तरह ऑयल मार्केट डिमांड में रहता है, ऐसा ही एक केस था मलेशिया की पाम ऑयल काउंसिल का जिन्होंने टीवी पर प्रचार कराया कि वह इको फ्रेंडली प्रॉडक्ट बनाते हैं लेकिन आलोचकों ने ये पाया कि पाम की खेती से तमाम जीव गायब हो रहे हैं और अन्य तरह की प्राकृतिक दिक्कतें बढ़ रही हैं, और इस एडवरटाइजमेंट को एडवर्टाइजिंग स्टैंडर्ड के खिलाफ़ पाया गया।

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हम अपने देश में भी ऐसी कंपनियां देखते हैं जो प्रकृति के नाम पर प्रोडक्ट को बेचती हैं। रामदेव की पतंजलि कंपनी इस मार्केट में सबसे बड़ा नाम है। उनके प्रोडक्ट जैसे शिवलिंग बीज और आंवला जूस फूड टेस्टिंग पर खरे नहीं उतरे थे। नीलसन की एक रिपोर्ट के अनुसार 66 प्रतिशत उपभोक्ता सस्टेनेबल ब्रांड्स के लिए ज़्यादा खर्च करती हैं। यानी लोग प्रकृति का सोच रहे हैं, आने वाली पीढ़ी का सोच रहे हैं लेकिन कैपिटलिस्ट नज़रिए से जिसका परिणाम यह हो रहा है कि प्रकृति के हित में पुख्ता काम करने की बजाय कंपनियों के भरोसे रहा जा रहा है।

एक प्रोडक्ट खरीदने भर से प्रकृति को बचा लेने का भ्रम लोग पाल रहे हैं। इसी का फायदा कंपनियां उठा रही हैं जैसे टेरा चॉइस एनवायरमेंटल मार्केटिंग के अनुसार 98 प्रतिशत प्रोडक्ट ग्रीन वाश्ड होते हैं। किसी बेहतर सिस्टम के कंपनियां जब ग्रीन वॉशिंग की अपराधी निकलती हैं तब वे उपभोक्ता के प्रति कोई जवाबदेही भी नहीं रखती हैं।

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वैश्वीकरण के बढ़ते दौर में हमें ग्रीन वॉशिंग के प्रति भी जागरूक होने की आवश्यकता है। हम ग्रीन प्रोडक्ट प्रकृति हितैषी सोचकर खरीदते हैं लेकिन हमें ग्रीन लाई से बचने की जरूरत है। प्रोडक्ट को खरीदते समय उसकी पैकेजिंग को देखना चाहिए।

ग्रीन वॉशिंग के प्रकार

वे कौन से तरीके हैं जिन्हें कंपनियां इस्तेमाल कर उपभोक्ता को उन्हें प्रोडक्ट पर ग्रीन होने का विश्वास दिलाती हैं। मोटे तौर पर पांच तरीके हैं।

  • पहला है एनवायरमेंटल इमेजरी यानी प्रोडक्ट पर हरी पत्तियां, जानवर, और रंग को हरा कर देना जबकि एनवायरमेंट फ्रेंडली प्रोडक्ट अपनी पैकेजिंग में सादा होंगे।
  • दूसरा तरीका है मिसलीडिंग लेबल यानी प्रॉडक्ट पर 100% ऑर्गेनिक, सर्टिफाइड आदि चीज़ों को अंकित करना। ऐसे प्रोडक्ट बिना किसी जांच के स्वयं को ही सर्टिफाई कर लेते हैं।
  • तीसरा तरीका है हिडेन ट्रेड ऑफ्स का, इसमें कंपनियां ये तो दिखाती हैं कि किस तरह उनका प्रोडक्ट रिवाइक्लिंग से बना है, रिसाइक्लीबल है लेकिन प्रोडक्ट के पैकेज पर एनर्जी, पानी उपभोग, ग्रीन हाउस गैस एमिशन आदि की कोई जानकारी नहीं होती।
  • चौथा तरीका है इर्रेलिवेंट क्लेम का, इसमें कंपनी ये दिखाती है कि किस तरह विषेश केमिकल का इस्तेमाल नहीं किया गया है जबकि ये भी मुमकिन है कि वह विशेष केमिकल विशेष देश में कानूनन रूप से बंद हो। इस तरह की जानकारी कंपनी द्वारा छिपा ली जाती है और बड़े-बड़े क्लेम किए जाते हैं।
  • पांचवा तरीका है लेसर ऑफ टू इविल्स का यानी ये तो हो सकता है कि कंपनी का क्लेम प्रोडक्ट को लेकर सही हो लेकिन साथ ही साथ उसका इस्तेमाल प्रकृति के हित में न हो जैसे ऑर्गेनिक सिगरेट। ये प्रोडक्ट बना हो प्राकृतिक चीजों के इस्तेमाल से लेकिन इसका उपभोग प्रदूषण और बीमारियों को जन्म देगा।

नीलसन की एर रिपोर्ट के अनुसार 66 प्रतिशत उपभोक्ता सस्टेनेबल ब्रांड्स के लिए ज़्यादा खर्च करती हैं। यानी लोग प्रकृति का सोच रहे हैं, आने वाली पीढ़ी का सोच रहे हैं लेकिन कैपिटलिस्ट नज़रिए से जिसका परिणाम यह हो रहा है कि प्रकृति के हित में पुख्ता काम करने की बजाय कंपनियों के भरोसे रहा जा रहा है।

ग्रीन वॉशिंग के प्रति जागरूकता

वैश्वीकरण के बढ़ते दौर में हमें ग्रीन वॉशिंग के प्रति भी जागरूक होने की आवश्यकता है। हम ग्रीन प्रोडक्ट प्रकृति हितैषी सोचकर खरीदते हैं लेकिन हमें ग्रीन लाई से बचने की जरूरत है। प्रोडक्ट को खरीदते समय उसकी पैकेजिंग को देखना चाहिए। जो कंपनियां ग्रीन वॉशिंग क्राइम में पकड़ी गई हैं, उनके प्रोडक्ट की जांच कर और उसे पब्लिक किया जाना चाहिए। उपभोक्ता का ये अधिकार होना चाहिए कि कंपनी उसके प्रति जवाबदेही हो। हम जिस भी प्रोडक्ट को खरीदें उस कंपनी से सवाल करें, जो कंपनियां ईमानदार होंगी वे ज़रा भी नहीं हिचकिचाएंगी।

हमें ये भी ध्यान रखना होगा कि जो कंपनियां क्लेम करती हैं कि उनका एक प्रोडक्ट खरीदने पर वह एक पेड़ लगाती हैं आदि-आदि लेकिन प्रकृति हितैषी कोई मजबूत एक्शन नहीं लेती उनसे दूर ही रहा जाए। हमें देखना चाहिए कि किसी और संगठन ने कम्पनी के प्रोडक्ट को सर्टिफाई किया है या नहीं। हम ये भी कर सकते हैं कि बड़ी कंपनियों की बजाय छोटे उद्योग करने वाले लोगों से अपना सामान लें। वे कम क्वांटिटी में सामान बनाते हैं और हम उनसे प्रोडक्ट को लेकर सवाल-जवाब भी कर सकते हैं और वे प्रोडक्ट की जिम्मेदारी और जवाबदेही भी सुनिश्चित करते हैं।

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