आमतौर पर उत्तर भारत के गाँवों में मुसहर बस्तियों को हमेशा गाँव के केंद्र से एकदम दूर ही बसाया जाता है। सदियों से चली आ रही इस जातिवादी व्यवस्था के तहत बनारस के तेंदुई गाँव की मुसहर बस्ती भी गाँव से एकदम अलग और दूर बसी है। लेकिन अब इस बस्ती में गाँव की दूसरी बस्तियों की महिलाएं भी आने लगी हैं। इसका कारण बना है, महिलाओं का खेल। इस गाँव में लंबे समय से मुसहर बस्ती के साथ काम कर रही एक संस्था ने हाशिएबद्ध मुसहर समुदाय की महिलाओं को मुख्यधारा से जोड़ने के लिए एक रचनात्मक रास्ता निकाला है- खेल का रास्ता।
बस्ती में सप्ताह के एक दिन महिलाओं को अपना पसंदीदा खेल खेलने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। इसमें महिलाएं क्रिकेट, कबड्डी और खो-खो जैसे खेल खेलती हैं। गाँव की बाक़ी बस्तियों की महिलाएं भले ही पहले इस बस्ती में नहीं आती थीं लेकिन खेल के संदर्भ में ये महिलाएं अब खुद को एक-दूसरे से जोड़ पाती हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि इन सभी महिलाओं में से किसी को भी अपने घर-परिवार में कभी भी ऐसे मौक़े नहीं मिले हैं।
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जब हम गाँव की इन बस्तियों में खेलती युवा महिलाओं को देखते हैं तो ये खेल इनके लिए सिर्फ़ एक खेल का ही नहीं बल्कि एक ऐसे माध्यम के रूप में दिखाई देता है जिसके ज़रिए महिलाएं समाज में अपनी जगह बनाने और जेंडर आधारित भेदभाव को चुनौती देती हैं।
क्रिकेट खेलती हुई चौबीस वर्षीय संगीता बताती हैं, “मुझे क्रिकेट खेलने का हमेशा मन करता था। घर में भाई अक्सर अपने दोस्तों के साथ मैदान में क्रिकेट खेलते थे, लेकिन हमलोगों को घर के काम में लगा दिया जाता था। इसके बाद छोटी उम्र मेरी में शादी कर दी गई और फिर बच्चे-परिवार में झोंक दिया गया। लेकिन अब जब मौक़ा मिला है तो मैं इसे गंवाना नहीं चाहती। मुझे यह खेल बहुत पसंद है और जब मैं क्रिकेट खेलती हूं तो बेहद अच्छा महसूस करती हूं।”
बस्ती में रहने वाली सत्रह वर्षीय करिश्मा खेल के बारे में कहती हैं, “जब हम लड़कियां थोड़ी भी बड़ी हो जाती हैं तो घर से कहीं बाहर आने-जाने या फिर खेलकूद पर पूरी पाबंदी लग जाती है। बचपन से ही हमलोगों पर ‘लड़कियों का खेल’ ही खेलने के लिए दबाव बनाया जाता है। लेकिन अब जब बस्ती की और भी महिलाएं एकजुट होकर खेलती हैं तो हमें बढ़ावा भी मिलता है और मज़ा भी आता है।”
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बीबीसी की तरफ़ से साल 2020 में 14 राज्यों में कराए गए एक सर्वे के अनुसार, सर्वे में शामिल 42 प्रतिशत लोगों का मानना था कि महिलाओं के खेल पुरुषों जितने ‘मज़ेदार’ नहीं होते। ये आंकड़े देश में खेल में महिलाओं को लेकर समाज का नज़रिया बताने को काफ़ी हैं। शायद कहीं न कहीं यही वजह है कि आज भी लड़कियों को घर में खेले जाने वाले खेल और लड़कों को बाहर जाकर खेले जाने खेल की इजाज़त दी जाती है।
ऐसे में जब हम गाँव की इन बस्तियों में खेलती युवा महिलाओं को देखते हैं तो ये खेल इनके लिए एक ऐसे माध्यम के रूप में दिखाई देता है जिसके ज़रिए महिलाएं समाज में अपनी जगह बनाने और जेंडर आधारित भेदभाव को चुनौती देती हैं। मैं खुद भी इस पहल की साक्षी हूं और कई बार इसका नेतृत्व भी करती हूं। इसलिए यह महसूस कर पाती हूं कि इस छोटी-सी पहल से कितने बड़े बदलाव की ज़मीन तैयार हो रही है।
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क्रिकेट खेलती हुई चौबीस वर्षीय संगीता बताती हैं, “मुझे क्रिकेट खेलने का हमेशा मन करता था। घर में भाई अक्सर अपने दोस्तों के साथ मैदान में क्रिकेट खेलते थे, लेकिन हमलोगों को घर के काम में लगा दिया जाता था। इसके बाद छोटी उम्र में शादी कर दी गई और फिर बच्चे-परिवार में झोंक दिया गया। लेकिन अब जब मौक़ा मिला है तो मैं इसे गंवाना नहीं चाहती। मुझे यह खेल बहुत पसंद है और जब मैं क्रिकेट खेलती हूं तो बेहद अच्छा महसूस करती हूं।”
खेल से बनती महिला एकता
जैसा कि हम जानते हैं किसी भी सामाजिक बदलाव के लिए ‘एकता’ एक ज़रूरी हिस्सा है, पितृसत्ता इसलिए महिला एकता के हमेशा ख़िलाफ़ होती है। ऐसे में इन खेल के माध्यम से बस्तियों में अब महिलाओं का समूह विकसित होने लगा है, जिससे महिला एकता को समुदाय स्तर पर बढ़ावा मिल रहा है। इससे वे एक-दूसरे को समझने और बदलाव की तरफ़ एक साथ कदम बढ़ा रही हैं।
जेंडर रूढ़िवादिता को चुनौती
“लड़की है तो घर का काम करेगी और लड़का है तो खेलेगा।” क्रिकेट और कबड्डी खेलती इन युवा महिलाओं का समूह मज़बूती से इस धारणा को तोड़ने का काम कर रहा है। साथ ही जिस तरह खेल की उम्र नहीं होती उसी तरह खिलाड़ी की भी कोई उम्र नहीं होती है। अक्सर हम चर्चाओं से वे बदलाव नहीं ला पाते जो व्यवहार से ला सकते हैं। जेंडर रूढ़िवादिता को महिलाओं का ये खेल एक प्रभावी व्यवहार के रूप में चुनौती दे रहा है।
खेल के बहाने गतिशीलता और अभिव्यक्ति का स्पेस
महिलाओं को भागने-दौड़ने या फिर खुलकर हंसने-चिल्लाने की छूट नहीं होती है। लेकिन जब महिलाएं एकजुट होकर ये खेल खेलती हैं तो उस वक्त वे खुद को खुलकर अभिव्यक्त करती हैं, जिसका स्पेस उन्हें न तो अपने घर में मिलता है और न समाज में। साथ-साथ वे भागने-दौड़ने और कहीं आने-जाने की तरफ़ खुद को और आत्मविश्वास से भरपूर पाती हैं।
खेल से भविष्य की उड़ान के पंख
आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में बाल-विवाह के केस सामने आते हैं। अगर हम बात करें समाज के वंचित और हाशिएबद्ध समुदाय की तो इन बस्तियों में हम आज भी कई बाल वधुओं देख सकते हैं। इसका मुख्य कारण है गरीबी, शिक्षा, रोज़गार के अवसरों का न होना और पितृसत्तात्मक सोच। बुनियादी सुविधाओं से कोसों दूर इन बस्तियों में रहने वाली अधिकतर लड़कियों के लिए कोई सपने नहीं होते, क्योंकि उनको कभी उनके सपनों की कल्पना से भी दूर रखा जाता है। इस स्थिति में जब लड़कियों को पढ़ने और खेलने का स्पेस मिलता है तो वे भी अपनी मां, दादी-नानी की तरह चूल्हे-चौके की बजाय शिक्षा और खेल के क्षेत्र में अपनी जगह तलाशने की कोशिश करती हैं, जो हो सकता है आने वाले समय में संभव भी हो।
गाँव में युवा महिलाओं का खेल में इस तरह भागीदारी करना दुर्लभ दृश्य ही है। लेकिन यह बताता है कि ऐसा होना संभव भी है। ये पहल और बदलाव देखने में बहुत छोटे लग सकते हैं, लेकिन आने वाले समय में ये बड़े बदलाव का आधार ज़रूर बन सकते हैं। जब इन ग्रामीण बस्तियों और गलियों में महिलाएं कबड्डी, क्रिकेट और खो-खो का खेल खेलेंगीं तो उनकी पसंदीदा खिलाड़ी भी महिला ही होगी, जिन्हें वे टीवी, प्रचार और विश्वस्तर पर खेलता हुआ देखना चाहेंगी।
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