समाजकानून और नीति पति, पत्नी को जन्म देने के लिए मजबूर नहीं कर सकता, प्रजनन विकल्प महिला की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अहम हिस्सा: बॉम्बे हाई कोर्ट

पति, पत्नी को जन्म देने के लिए मजबूर नहीं कर सकता, प्रजनन विकल्प महिला की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अहम हिस्सा: बॉम्बे हाई कोर्ट

जस्टिस अतुल चंदुरकर और उर्मिला जोशी-फाल्के की बेंच ने एक याचिका कि सुनवाई के दौरान फ़ैसला दिया कि एक महिला को बच्चे को जन्म देने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है।

जस्टिस अतुल चंदुरकर और उर्मिला जोशी-फाल्के की बेंच ने एक याचिका कि सुनवाई के दौरान फ़ैसला दिया कि एक महिला को बच्चे को जन्म देने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है। बॉम्बे हाई कोर्ट ने इस केस में कहा कि यह अच्छी तरह से स्थापित है कि एक महिला का प्रजनन करने का अधिकार उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता का एक अविभाज्य हिस्सा है। बेशक, उसे बच्चे को जन्म देने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है।

इस मामले में पति ने क्रूरता और परित्याग के आधार पर अपनी पत्नी से तलाक मांगा। पति ने आरोप लगाया कि 2001 में उनकी शादी की शुरुआत के बाद से ही उनकी पत्नी ने अपनी नौकरी करने पर जोर दिया। उसके बाद उनके एक बेटा पैदा हुआ। दूसरी बार गर्भवती होने पर पत्नी ने पति की सहमति के बिना अपनी उसे समाप्त कर दिया। याचिका में पति ने पत्नी द्वारा उसकी सहमति के बिना गर्भावस्था को समाप्त करने को उसके खिलाफ क्रूरता बताया। उसने इसी आधार पर न्यायालय में तलाक़ की भी अर्ज़ी दी। पति ने यह भी दावा किया कि उसकी पत्नी ने 2004 में अपने बेटे के साथ अपना ससुराल का घर छोड़ दिया और फिर कभी वापस नहीं लौटी। पति ने दो आधारों हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13(1)(ia) और 13(1)(ib) के तहत क्रूरता और परित्याग पर तलाक की मांग को लेकर याचिका दायर की थी।

इसके विपरीत, पत्नी ने अपने वकील के माध्यम से तर्क दिया कि उसने एक बच्चे को जन्म दिया है जो उसकी ओर से मातृत्व की स्वीकृति का संकेत देता है। दूसरी गर्भावस्था को उसने बीमारी के कारण समाप्त कर दिया था। उसके पति ने 2004-2012 तक उसे घर वापस लाने या अपने बेटे की आजीविका के लिए आर्थिक सहायता देने का कोई प्रयास नहीं किया था। इसके अलावा, उसने इसीलिए घर छोड़ दिया क्योंकि उसका पति और उसकी बहनें लगातार उसके चरित्र पर शक कर रही थीं। जब किसी महिला के चरित्र पर संदेह होता है तो उसके लिए ऐसे व्यक्ति के साथ न रहने का एक कारण होता है जो उसके चरित्र पर संदेह करता है। ऐसा नहीं है कि वह अपनी मनोकामना (नौकरी) पूरी करने के लिए घर से निकली थीं। बेशक, घर से निकलते समय उसके पास कोई नौकरी नहीं थी, लेकिन पति के घर में खराब व्यवहार के कारण उसने घर छोड़ दिया और इसलिए, उसके पिता ने उसे वापस भेजने से इनकार कर दिया।

एक अजन्मे भ्रूण को एक जीवित महिला के अधिकारों से अधिक ऊंचे स्थान पर नहीं रखा जा सकता है। एक पुराने शोध से पता चलता है कि एक महिला को उसकी इच्छा के विरुद्ध गर्भावस्था के लिए मजबूर करने से उसके अवसाद का खतरा 20% तक बढ़ जाता है। 

दोनों पक्षों को सुनने के बाद बॉम्बे हाई कोर्ट ने कहा कि यह अच्छी तरह से स्थापित है कि एक महिला का प्रजनन का विकल्प चुनने का अधिकार उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता का एक हिस्सा है जिसे अलग नहीं किया जा सकता है। पति ने यह तर्क भी दिया था कि पत्नी उसे अपने लिए नौकरी खोजने के लिए जोर दे रही थी और उसी के लिए उसे परेशान कर रही थी और उसकी सहमति के बिना उसने अपना दूसरा गर्भ भी समाप्त कर दिया था, और दूसरा गर्भ समाप्त करना क्रूरता की श्रेणी में आता है। इस बिंदु पर कोर्ट ने उत्तर दिया कि यह पत्नी के यह दोनों कार्य क्रूरता की श्रेणी में नहीं आते। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि पत्नी द्वारा पति से इच्छा व्यक्त करना कि वह नौकरी करना चाहती है और जो अच्छी तरह से योग्य है, पति के खिलाफ क्रूरता नहीं है। पत्नी ने पोस्ट ग्रेजुएशन पूरा किया था। उसकी इच्छा की अभिव्यक्ति को असामान्य नहीं कहा जा सकता क्योंकि हर योग्य व्यक्ति अपने अपनी पढ़ाई का इस्तेमाल करना चाहता है।

क्रूरता क्या है?

वैवाहिक मामलों के संबंध में यह माना जाता है कि ऐसा आचरण जो दूसरों के जीवन को खतरे में डालता है, क्रूरता की श्रेणी में आता है। क्रूरता में ऐसे काम होते हैं जो जीवन, अंग या स्वास्थ्य के लिए खतरनाक होते हैं। क्रूरता शारीरिक या मानसिक हो सकती है। मानसिक क्रूरता एक के प्रति दूसरे पति या पत्नी का आचरण है जो दूसरे के वैवाहिक जीवन के लिए मानसिक पीड़ा या डर का कारण बनता है। हालांकि, क्रूरता पारिवारिक जीवन के सामान्य टूट-फूट से अलग है ।

समर घोष बनाम जया घोष के केस में सुप्रीम कोर्ट ने कुछ उदाहरण दिए हैं, जिनसे मानसिक क्रूरता का अनुमान लगाया जा सकता है।

  • पार्टियों के पूर्ण वैवाहिक जीवन पर विचार करने पर, तीव्र मानसिक पीड़ा, यातना और कष्ट जो पार्टियों के लिए एक-दूसरे के साथ रहना संभव नहीं बनाती, मानसिक क्रूरता के व्यापक मानकों के भीतर आ सकती हैं।
  • पार्टियों के संपूर्ण वैवाहिक जीवन के व्यापक मूल्यांकन पर, यह पूर्ण रूप से स्पष्ट हो जाता है कि स्थिति ऐसी है कि अन्याय करने वाले पक्ष को इस तरह के आचरण के साथ रहने और दूसरे पक्ष के साथ रहने के लिए उचित रूप से नहीं कहा जा सकता है।
  • मानसिक क्रूरता मन की एक अवस्था है। एक पति या पत्नी में लंबे समय तक दूसरे के आचरण के कारण गहरी पीड़ा, निराशा, निराशा की भावना मानसिक क्रूरता का कारण बन सकती है।
  • निरंतर निंदनीय आचरण, उपेक्षा, उदासीनता या दाम्पत्य दयालुता के सामान्य मानक से पूर्ण विचलन मानसिक स्वास्थ्य को चोट पहुंचाना भी मानसिक क्रूरता हो सकती है।
  • वैवाहिक जीवन की समग्र रूप से समीक्षा की जानी चाहिए और वर्षों की अवधि में कुछ अलग-अलग उदाहरणों को क्रूरता नहीं माना जाएगा। बुरा आचरण काफी लंबी अवधि तक बना रहना चाहिए, जहां संबंध इस हद तक खराब हो गए हैं कि पति या पत्नी के कृत्यों और व्यवहार के कारण, एक पक्ष के लिए दूसरे पक्ष के साथ रहना बेहद मुश्किल हो सकता है, यही मानसिक क्रूरता कहलाएगा।


जयचंद्र बनाम अनील कौर के केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि केवल झुंझलाहट या जलन क्रूरता नहीं हो सकती है, बल्कि यह मानव व्यवहार में एक सहज परिवर्तन है जो दूसरे पक्ष को जीवन या शारीरिक चोटों को खतरे में डालकर जीवनसाथी के साथ रहने के लिए प्रतिबंधित करता है। हालाकि, ‘क्रूरता’ शब्द को भारतीय विधि में कहीं भी कड़ाई से परिभाषित नहीं किया गया है, लेकिन इसे प्रत्येक मामले की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए एकत्र किया जाना और समझना चाहिए। आरोप समय, स्थान और ऐसी क्रूरता को करने के तरीके के संबंध में विशिष्ट होने चाहिए। क्रूरता ऐसी होनी चाहिए जिसमें साथ रहने की युक्तियुक्त रूप से अपेक्षा न की जाए।

दोनों पक्षों को सुनने के बाद बॉम्बे हाई कोर्ट ने कहा कि यह अच्छी तरह से स्थापित है कि एक महिला का प्रजनन का विकल्प चुनने का अधिकार उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता का एक हिस्सा है जिसे अलग नहीं किया जा सकता है।

अब दूसरे बिंदु की ओर देखने पर पता चलता है कि पत्नी द्वारा प्रजनन के विकल्प को किसी कारण न चुनना पति के खिलाफ क्रूरता नहीं है। इस केस में पत्नी ने एक बच्चे को पहले ही जन्म दे दिया था। किसी कारणवश उसने दूसरा बच्चा नहीं जन्म दिया। इसका अर्थ यह नहीं होता कि वह अपने पति के साथ क्रूर है।

प्रजनन का अधिकार महिला का अपना निजी अधिकार है

हमेशा से एक महिला द्वारा गर्भावस्था को चुनने के विकल्प पर सवाल उठते रहे हैं। शादी के बाद पति और उसके घर वाले महिला द्वारा गर्भधारण करने को अपना हक़/अधिकार समझते हैं। गर्भावस्था एक महिला के शरीर के भीतर होती है और उसके स्वास्थ्य, मानसिक कल्याण और जीवन को गहराई से प्रभावित करती है। इसीलिए एक अजन्मे भ्रूण को एक जीवित महिला के अधिकारों से अधिक ऊंचे स्थान पर नहीं रखा जा सकता है। एक पुराने शोध से पता चलता है कि एक महिला को उसकी इच्छा के विरुद्ध गर्भावस्था के लिए मजबूर करने से उसके अवसाद का खतरा 20% तक बढ़ जाता है। 

भारतीय अदालतें भी अब नागरिकों के मानसिक स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए फैसले करने लगी हैं। यह सब देखना खुशी की बात भी है – विशेष रूप से ऐसे समय में जब हमारे देश में मेन्टल हेल्थ से सम्बंधित मामले बढ़ रहे हैं। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के पुट्टस्वामी के फैसले ने विशेष रूप से भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत व्यक्तिगत स्वतंत्रता के एक भाग के रूप में महिलाओं के प्रजनन विकल्प बनाने/रखने के संवैधानिक अधिकार को मान्यता दी। 

शादी के बाद काम करना या न करना या बच्चे पैदा करना या न करना एक महिला की पूरी तरह से निजी पसंद होती है और होनी भी चाहिए। एक महिला के लिए अपनी शादी के बाद भी अपने करियर के बारे में सोचना उसका है, क्योंकि यह उसे अपने सपनों और आकांक्षाओं को जीने की अनुमति देता है और साथ ही साथ उसकी वित्तीय स्वतंत्रता के लिए रास्ता बनाता है।

सुचिता श्रीवास्तव बनाम चंडीगढ़ प्रशासन (2009) के केस में तीन-न्यायाधीशों की पीठ द्वारा महिलाओं के प्रजनन अधिकारों पर फैसला दिया गया। जिसमें कहा गया था कि प्रजनन अधिकारों में एक गर्भावस्था को उसके पूर्ण कार्यकाल तक ले जाने, जन्म देने और बाद में बच्चों को पालने का अधिकार शामिल है और यह कि ये अधिकार एक महिला के निजता, गरिमा और शारीरिक अखंडता के अधिकार का हिस्सा हैं। 2016 का बॉम्बे हाई कोर्ट का फैसला जोकि एक महिला कैदी की दयनीय स्थिति के संबंध में एक स्वत: जनहित याचिका था में, हाई कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा कि “अकेले एक महिला को अपने शरीर, प्रजनन क्षमता और मातृत्व विकल्पों को नियंत्रित करने का अधिकार होना चाहिए।”

21वीं सदी में रहते हुए भी और महिलाओं के शिक्षा अधिकारों के परचम को लहराते हुए भी आज भी यही प्रश्न चर्चा का विषय रहता है कि महिला को शादी के बाद क्या करना चाहिए और क्या नहीं। शादी के बाद काम करना या न करना या बच्चे पैदा करना या न करना एक महिला की पूरी तरह से निजी पसंद होती है और होनी भी चाहिए। एक महिला के लिए अपनी शादी के बाद भी अपने करियर के बारे में सोचना उसका है, क्योंकि यह उसे अपने सपनों और आकांक्षाओं को जीने की अनुमति देता है और साथ ही साथ उसकी वित्तीय स्वतंत्रता के लिए रास्ता बनाता है। अब ऐसे में वह अगर अपने प्रजनन के विकल्प को चुन लेती है तो क्या बुरा है।


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