भारत के इतिहास का वह समय जब महिलाएं अधिकतर घर पर पर्दे के अंदर छिपकर रहती थीं, घर से बाहर निकालने का सोच भी नहीं सकती थीं। उसी समय “अक्कम्मा चेरियन” का जन्म केरल में त्रावणकोर के कांजीरपल्ली में 14 फरवरी 1909 में हुआ था। उस समय उन्होंने न केवल अपनी हाईस्कूल की पढ़ाई पूरी की बल्कि उनके पास दो- दो डिग्रियां भी थी। अक्कम्मा चेरियन त्रावणकोर में राज्य कांग्रेस का चेहरा थीं। महात्मा गांधी ने उन्हे ‘त्रावणकोर की झांसी रानी’ का नाम भी दिया था। वह एक बहादुर नेता थीं। जब ब्रिटिश अधिकारी धरना प्रदर्शन खत्म करने के लिए लोगों को मारने का आदेश दे रहे थे तो उन्होंने उनसे कहा कि- “मैं नेता हूँ, मेरे लोगों को मारने से पहले मुझे गोली मारो”।
उनकी स्कूल की शिक्षा गवर्नमेंट गर्ल्स हाई स्कूल, कांजीरापल्ली में हुई और बाद में सेंट जोसेफ हाई स्कूल, चंगनाचेरी से उन्होंने मैट्रिक पास किया। इसके बाद उन्होंने सेंट टेरेसा कॉलेज, एर्नाकुलम से इतिहास में बीए किया और बाद में उन्होंने 1931 में सेंट मैरीज़ इंग्लिश मीडियम स्कूल, एडक्कारा में शिक्षक के तौर पर पढ़ाना शुरू कर दिया। बाद में वह इस स्कूल की प्रधानाध्यापिका बनीं। उन्होंने इस संस्थान के लिए छह वर्ष काम किया। साल 1938 में उन्होंने राज्य कांग्रेस में शामिल होने के लिए स्कूल हेडमास्टर की नौकरी छोड़ दी और त्रावणकोर राज्य कांग्रेस में शामिल हो गई। कांग्रेस में शामिल होने के बाद वह गांधी जी से प्रभावित होकर उन्होंने सविनय अवज्ञा आंदोलन में हिस्सा लिया।
अक्कम्मा चेरियन ने राज्य कांग्रेस पर प्रतिबंध के विरोध में महाराजा चिथिरा थिरुनल बलराम वर्मा के ख़िलाफ़ प्रदर्शन किया। जब ब्रिटिश पुलिस प्रमुख ने अपने आदमियों को महल के बाहर जमा लोगों पर गोली चलाने का आदेश दिया, तो अक्कम्मा चेरियन के बहादुर शब्दों ने उनसे कहा कि “मेरे लोगों को गोली मरने से पहले, मुझे गोली मारो।”
1938 राजा और दीवान के ख़िलाफ़ हुए मार्च का वर्णन करते हुए द हिंदू में प्रोफेसर ई. एम. करवूर ने अक्कम्मा के बारे में लिखा कि –“ सफेद खद्दर और गांधी टोपी पहले सैकड़ों नहीं बल्कि हजारों की संख्या में लोग विशाल लहरों में आगे बढ़ रहे थे। अक्कम्मा चेरियन उस सफेद समुद्र का नेतृत्व एक खुली जीप में खड़े होकर कर रहीं थीं, खद्दर और एक गांधी टोपी पहने वह ऐसे दिख रहीं थी कि जैसे देवी दुर्गा अपने पैर के नीचे बुराई और अन्याय को कुचल रहीं हों, उनके बाल जैसे ब्रिटिश सरकार की निरंकुशता के ख़िलाफ़ फहराए गए काले झंडे की तरह हवा में फहरा रहे थे”।
1930 के दशक में त्रावणकोर में जीवन असंतोष, संघर्ष और टकराव से भरा था। इसी बीच राज्य कांग्रेस को अवैध घोषित कर दिया। कानून के अनुसार पुलिस को सरकार से यह अनुमति मिल गई थी कि वह राज्य कांग्रेस से जुड़े किसी भी अधिकारी या व्यक्ति को बिना किसी वारंट के अरेस्ट कर सकती है। राज्य कांग्रेस के नेताओं को सार्वजनिक सभाओं में भाग लेने या भाषण देने से कठोर कानूनों द्वारा बैन कर दिया गया था। इसके बाद कांग्रेस कार्यसमिति को भंग कर दिया गया और उसके स्थान पर एक स्ट्राइकर्स यूनियन का गठन किया गया क्योंकि सरकार ने कांग्रेस के सभी नेताओं को जेल में बंद कर दिया था।
अक्कम्मा चेरियन ने राज्य कांग्रेस पर प्रतिबंध के विरोध में महाराजा चिथिरा थिरुनल बलराम वर्मा के ख़िलाफ़ प्रदर्शन किया। जब ब्रिटिश पुलिस प्रमुख ने अपने आदमियों को महल के बाहर जमा लोगों पर गोली चलाने का आदेश दिया, तो अक्कम्मा चेरियन के बहादुर शब्दों ने उनसे कहा कि “मेरे लोगों को गोली मरने से पहले, मुझे गोली मारो।” अपनी हिम्मत की वजह से उन्होंने ब्रिटिश अधिकारियों को पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया। यह ख़बर सुनकर गांधी ने उन्हें ‘त्रावणकोर की झांसी रानी’ कहा था।
अक्टूबर 1938 में, अक्कम्मा चेरियन ने महिलाओं से स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने की अपील करने के लिए देशसेविका संघ का आयोजन किया। उन्होंने पूरे राज्य में घूमकर महिलाओं को स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ने के लिए कहा। साल 1939 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और एक साल के लिए जेल में डाल दिया गया, जहां जेल अधिकारियों ने उनका अपमान किया और उनके साथ दुर्व्यवहार किया। अपनी रिहाई के तुरंत बाद, वह राज्य कांग्रेस की प्रेसीडेंट बनीं और 8 अगस्त 1942 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा बॉम्बे सत्र में पारित “भारत छोड़ो प्रस्ताव” का स्वागत किया। 1946 और 1947 के बीच प्रतिबंध आदेशों का उल्लंघन करने और एक स्वतंत्र राज्य के लिए त्रावणकोर के दीवान की इच्छा के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन करने के जुर्म में उन्हें दो बार गिरफ्तार किया गया।
उस समय कांग्रेस ने एक साहसी और आत्मविश्वासी महिला की तलाश करनी शुरू की, जिसे नए संगठित स्ट्राइकर्स यूनियन का अध्यक्ष बनाया जा सके। योजना चुनी हुई महिला के नेत्रत्व में सभी बाधाओं को पार करते हुए महल तक एक जुलूस का नेतृत्व कराने और महाराजा को अधिकारों का एक ज्ञापन सौंपने की थी। अक्कम्मा, जो उस समय मुश्किल से 29 वर्ष की थीं, अपनी आत्मकथा में लिखती हैं, “मैं असाइनमेंट की गंभीरता से अवगत थी और जानती थी कि इसके परिणाम क्या हो सकते हैं, फिर भी मैंने स्वेच्छा से यह काम किया।“
कांग्रेस पार्टी ने स्वयंसेवकों को वडक्कन परवूर से कन्याकुमारी तक तिरुविथमकुर के हर नुक्कड़ और कोने से स्थानीय युवाओं को जुटाने और एक साथ लाने के कार्य सौंपे। यूनियन ऑफ स्ट्राइकर्स ने स्वयंसेवकों के प्रत्येक समूह को निर्देश दिया कि वे महाराजा के जन्मदिन समारोह को बाधित करने के लिए रविवार 23 अक्टूबर को तिरुवनंतपुरम के थंपनूर में इकट्ठा हो। भोर होते ही सड़कों पर सफेद खद्दर और गांधी टोपी पहने लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी। नारों की गूंज से पूरा शहर की हवा भर गई थी। जल्द ही लोगों ने थंपनूर रेलवे स्टेशन मैदान महाराजा की तानाशाही शासन के खिलाफ, प्रदर्शनकारियों के सागर में बदल दिया।
आजादी के बाद अक्कम्मा ने 1947 में कांजीरापल्ली से त्रावणकोर विधान सभा से बिना किसी विरोध के चुनाव जीता। 1951 में, उन्होंने स्वतंत्रता सेनानी और त्रावणकोर कोचीन विधान सभा के सदस्य वीवी वर्की मन्नमप्लक्कल से शादी की।
इसके बाद वह एक साहसी नेता के रूप में चेरियन लोगों के साथ शाही महल की ओर चल पड़ी और लोगों के अधिकारों का ज्ञापन राजा को सौंप दिया। बाधाओं के बावजूद भी विरोध जारी रहा, जब तक कि सरकार अपने कैदियों को रिहा करने और राज्य कांग्रेस पर लंबे समय से प्रतिबंध हटाने के लिए सहमत नहीं हुई। इस प्रकार स्वतंत्रता-पूर्व युग में त्रावणकोर में आयोजित सबसे महत्वपूर्ण जन आंदोलनों में से एक का अंत हो गया।
आजादी के बाद अक्कम्मा ने 1947 में कांजीरापल्ली से त्रावणकोर विधान सभा से बिना किसी विरोध के चुनाव जीता। 1951 में, उन्होंने स्वतंत्रता सेनानी और त्रावणकोर कोचीन विधान सभा के सदस्य वीवी वर्की मन्नमप्लक्कल से शादी की। 1950 के दशक की शुरुआत में उन्होंने चुनाव लड़ने के लिए टिकट न मिल पाने के कारण कांग्रेस पार्टी से इस्तीफा दे दिया और मुवातुपुझा निर्वाचन क्षेत्र से एक स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा। उन्होंने 1950 के दशक की शुरुआत में राजनीति छोड़ दी थी क्योंकि उनकी विचारधारा पार्टी की बदलती विचारधारा से नहीं मेल कहती थी। 1967 में उन्होंने कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में कांजीरापल्ली से विधानसभा के लिए चुनाव लड़ा। वह कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार से हार गईं, जिसके बाद उन्होंने फिर कभी चुनाव नहीं लड़ा। बाद में, उन्होंने स्वतंत्रता सेनानियों के पेंशन सलाहकार बोर्ड के सदस्य के रूप में कार्य किया।
5 मई 1982 को उनकी मृत्यु हो गई। उनकी स्मृति में तिरुवनंतपुरम के वेल्लयमबलम में एक मूर्ति लगाई गई। श्रीबाला के मेनन द्वारा उनके जीवन पर एक डॉक्यूमेन्टरी बनाई गई है। इतिहासकार जे देविका ने चेरियन को राज्य की पहली पीढ़ी की नारीवादियों में से एक बताया है।
स्रोतः