समाजमीडिया वॉच मीडिया पर आज भी तथाकथित उच्च जाति का प्रभुत्व: रिपोर्ट

मीडिया पर आज भी तथाकथित उच्च जाति का प्रभुत्व: रिपोर्ट

मीडिया में प्रतिनिधित्व को लेकर जारी की गई इस रिपोर्ट को बनाने में तरह-तरह की मेथोडोलॉजी इस्तेमाल की गई है। जैसे मीडिया में काम करनेवाले पत्रकारों की जातिगत पहचान, अखबारों में मैगजीन में छपनेवाले लेख कौन लिख रहा है, पैनल में कौन शामिल हो रहा है, नेतृत्व के पदों पर कौन है आदि।

“समावेशी कवरेज वाले विविध न्यूज़रूम समाज का बेहतर प्रतिनिधित्व कर सकते हैं। दर्शकों का विश्वास बनाएं और संगठनों को अधिक लाभदायक बनाएं। मीडिया आउटलेट जो विविधता को अपनी प्राथमिकता नहीं बनाते हैं, पाठकों और मुनाफे दोनों में गिरावट का सामना करने की संभावना में रहते हैं।” यह कहना है इंटरन्यूज के अध्यक्ष और सीईओ जीन बौर्गॉल्ट का। दरअसल, ऑक्सफैम इंडिया और न्यूजलॉन्ड्री ने साथ मिलकर भारतीय मीडिया में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछड़ा वर्ग और विमुक्त जाति की मीडिया भागीदारी पर 14 अक्टूबर 2022 को अंग्रेजी में “हू टेल्स आवर स्टोरीज मैटर्स – रिप्रेजेंटेशन ऑफ़ मार्जिनलाइज्ड कास्ट ग्रुप्स इन इंडियन मीडिया” के नाम से एक रिपोर्ट जारी की है।

वैश्वीकरण के इस दौर में सिर्फ़ सत्ता वर्ग नहीं बल्कि मीडिया आम जनमानस की समझ और उसके मुद्दों को कंट्रोल करता है। क्या मुद्दे दिखाए जाएं, कैसे दिखाए जाएं, उनका क्या नैरेटिव गढ़ा जाए, किससे सवाल किया जाए, किससे नहीं, ये सब मीडिया के काम हैं। जातिगत व्यवस्था की नींव पर टिके इस समाज के हर क्षेत्र में प्रभुत्व है समाज की तथाकथित उच्च जातियों से आनेवाले लोगों का। मीडिया भी इससे अछूता नहीं है और इसकी पुष्टि कर रही है ऑक्सफैम इंडिया और न्यूज़लॉन्ड्री की यह रिपोर्ट। हालांकि, इससे पहले भी कितनी ही रिपोर्ट्स मीडिया में प्रतिनिधित्व को लेकर आ चुकी हैं लेकिन इसे लेकर कोई पुख़्ता बदलाव हमें नज़र नहीं आता। जारी होती रिपोर्ट्स में या तो स्थिति पहले जैसी ही रहती है या फिर और खराब हो चुकी होती है।

90 फीसद नेतृत्व के पदों पर हैं उच्च जाति के लोग

मीडिया में प्रतिनिधित्व को लेकर जारी की गई इस रिपोर्ट को बनाने में तरह-तरह की मेथोडोलॉजी इस्तेमाल की गई है। जैसे मीडिया में काम करनेवाले पत्रकारों की जातिगत पहचान, अखबारों में मैगजीन में छपनेवाले लेख कौन लिख रहा है, पैनल में कौन शामिल हो रहा है, नेतृत्व के पदों पर कौन है आदि। हम लोग अपने आसपास, तकरीबन हर जगह टॉप टू डाउन अप्रोच फॉलो करते हैं यानी जो हमसे उच्च पदों पर हैं, हम उसकी मुख्य बातों को फैलाने का काम करते हैं, अपनाने का काम करते हैं। मीडिया पर यही लागू होता है जो उसमें नेतृत्व के पद पर होगा, पूरा संस्थान उसी तरह काम करेगा।

वैश्वीकरण के इस दौर में सिर्फ़ सत्ता वर्ग नहीं बल्कि मीडिया आम जनमानस की समझ और उसके मुद्दों को कंट्रोल करता है। क्या मुद्दे दिखाए जाएं, कैसे दिखाए जाएं, उनका क्या नैरेटिव गढ़ा जाए, किससे सवाल किया जाए, किससे नहीं, ये सब मीडिया के काम हैं। जातिगत व्यवस्था की नींव पर टिके इस समाज के हर क्षेत्र में प्रभुत्व है समाज की तथाकथित उच्च जातियों से आनेवाले लोगों का।

रिपोर्ट ने मीडिया में मीडिया संस्थानों की ‘लीडरशिप पोजीशन’ का विश्लेषण किया है और पाया कि 218 प्रिंट, टीवी, डिजिटल मीडिया आउटलेट्स में से 191 मीडिया आउटलेट्स में सामान्य श्रेणी के व्यक्ति नेतृत्व के पदों पर हैं। मुख्यधारा के किसी भी मीडिया संस्थान में नेतृत्व के पद पर कोई एससी/एसटी समुदाय का व्यक्ति शामिल नहीं है। दो एससी/एसटी के व्यक्ति जो हैं भी वे ऑल्टरनेटिव मीडिया प्लेटफॉर्म से हैं। थोड़ा सोचिए इतनी बड़ी आबादी, इतना बड़ा मीडिया सेक्टर और एससी/एसटी से सिर्फ दो व्यक्ति लीडरशिप भूमिका में हैं।

प्रिंट मीडिया की क्या है स्थिति

प्रिंट मीडिया आज भी घर-घर में न्यूज का मुख्य स्रोत है। रिपोर्ट बताती है कि 60% अंग्रेजी और हिंदी में बाईलाइन लेख सामान्य श्रेणी के व्यक्तियों द्वारा लिखे जा रहे हैं। 5% से भी कम लेख एसटी/एसटी समुदाय से आनेवाले व्यक्ति लिखते हैं और 10% लेख ओबीसी के व्यक्ति लिखते हैं। यानी न्यूज़ पेपर में लिखने वाले व्यक्तियों में दमनकारी जातियों से आने वाले लोगों का दबदबा है। अखबारों के एडिटर, मालिकों की गिनती में, अंग्रेजी अखबारों में कोई एससी/एसटी नहीं है, 94.12% जनरल हैं। हिंदी अखबारों में 3.23% एससी हैं, एसटी कोई नहीं और 83.87% जनरल हैं।

किन जातियों के लोग हैं नेतृत्व के पदों पर

‘कास्ट ब्रदरहुड’ पर चल रहे लोग क्या शोषित समुदायों के बारे में, उनके शोषणकर्ताओं के बारे में लिखेंगे जो उनकी ही जाति से आते हैं और लिख भी रहे हैं तो क्या वे अपनी ही जाति के व्यक्ति को ‘शोषणकर्ता’ के नाम से सूचित करेंगे। कोई भी वेबसाइट, अखबार में जाति, आदिवासियों पर खबर देख लीजिए पीड़ित की जाति, जेंडर सब बता देंगे लेकिन अपराधी की जाति उसे ‘दबंग’ लिखकर छिपा ली जाती है। रिपोर्ट बताती है कि 50% से ज़्यादा सामान्य श्रेणी से आनेवाले पत्रकारों ने जाति और आदिवासी मुद्दों को पर लिखा है। बिज़नेस स्टैंडर्ड जैसे अखबार में यह काम सौ प्रतिशत सामान्य श्रेणी से आनेवाले लोगों ने किया है, टेलीग्राफ में 25% ओबीसी, 31.3% जनरल कास्ट, हिंदुस्तान टाइम्स में 58.3% जनरल कैटेगरी के व्यक्तियों ने जाति और आदिवासी मुद्दों पर लिखा है।

प्रमुख मीडिया संस्थानों पर जाति, आदिवासियों के मुद्दे पर कौन लिख रहा है

अख़बारों को ध्यान से देखें तो पाते हैं कि हर पेज का अपना महत्व होता है। फ्रंट पेज से लेकर ओपिनियन, इकोनॉमी, स्पोर्ट्स सभी पर सामान्य श्रेणी से आनेवाले व्यक्तियों के लेखों का दबदबा है। किसी भी अखबार में एससी/एसटी का कोई व्यक्ति नहीं था जिसने जाति और आदिवासी मुद्दों पर कुछ लिखा है। लिखेंगे भी कहां जब मेनस्ट्री मीडिया में एससी/एसटी के घुसने पर ही पाबंदी है। इस बात की पुष्टि भी इस रिपोर्ट के आंकड़े करते हैं।

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की तस्वीर

प्रिंट मीडिया से इतर हम खबरों के लिए इलेक्ट्रॉनिक मीडिया यानी न्यूज़ चैनल्स पर भी निर्भर हैं। यहां से जो बात निकलती है, वह मेट्रोपोलिटन शहरों से लेकर दूर सुदूर के इलाके की चाय की टपरी तक पर पहुंच जाती है। रिपोर्ट बताती है कि 56% से लेकर 67% तक हिंदी, अंग्रेजी चैनल्स के प्राइम टाइम एंकर उच्च जाति से हैं। किसी भी चैनल में कोई एससी/एसटी का व्यक्ति नहीं है जो प्राइम टाइम डिबेट को होस्ट करता है। इन डिबेट में आता कौन है? 60% से ज़्यादा पैनलिस्ट जनरल कैटेगरी से होते हैं, 5% से भी कम पैनलिस्ट एससी/एसटी समुदाय से होते हैं। प्राइम टाइम डिबेट को एससी/एसटी होस्ट नहीं करते, पैनलिस्ट भी वे नहीं होते और बिल्कुल ताज्जुब की बात नहीं है कि उनके मुद्दे भी इन टीवी डिबेट का हिस्सा नहीं बनते। जाति और आदिवासियों से जुड़े मुद्दों पर न्यूज़ 18, रिपब्लिक भारत, रिपब्लिक टीवी, संसद टीवी (अंग्रेजी) में साल 2021-22 में ज़ीरो डिबेट हुई हैं। एनडीटीवी हिंदी में 3.6%, इंडिया टुडे (अंग्रेजी) में 2.6% डिबेट हुई हैं।

‘कास्ट ब्रदरहुड’ पर चल रहे लोग क्या शोषित समुदायों के बारे में, उनके शोषणकर्ताओं के बारे में लिखेंगे जो उनकी ही जाति से आते हैं और लिख भी रहे हैं तो क्या वे अपनी ही जाति के व्यक्ति को ‘शोषणकर्ता’ के नाम से सूचित करेंगे। कोई भी वेबसाइट, अखबार में जाति, आदिवासियों पर खबर देख लीजिए पीड़ित की जाति, जेंडर सब बता देंगे लेकिन अपराधी की जाति उसे ‘दबंग’ लिखकर छिपा ली जाती है।

बात अगर हम मैगज़ीन की करें तो रिपोर्ट बताती है कि बिजनेस टुडे, गृहशोभा, सरिता इन तीनों मैगजीन में सौ प्रतिशत जनरल कैटेगरी से आनेवाले लोग काम करते हैं। आउटलुक हिंदी में 50% एससी और 50% जनरल हैं। सिर्फ़ प्रिंट से लेकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ही आज के समय में मीडिया के दायरे में नहीं है, इंटरनेट के दौर में मुख्यधारा से हटकर ऑल्टरनेटिव मीडिया के रूप में डिजिटल मीडिया ने अपनी अलग जगह लोगों के बीच बनाई है। लेकिन यहां भी 55% से ज़्यादा लेखक जिन्होंने इस डिजिटल मीडिया में लिखा है वे जनरल हैं, 5% से कम लेखक एससी/एसटी से हैं।

मूकनायक, ईस्ट मोजो जैसे प्लैटफार्म औरों की तुलना में बेहतर रहे हैं जिसमें हाशिये से आनेवाली जातियों के व्यक्तियों के लेख छपे हैं। मूकनायक में 50% एससी और 50% ओबीसी हैं, ईस्ट मोजो में 66.67% जनरल, 33.3% ओबीसी हैं। इंस्टाग्राम से लेकर फेसबुक, ट्विटर पर उंगलियां चलाते वक्त हम फर्स्ट पोस्ट, द स्क्रोल, द क्विंट जैसे डिजिटल मीडिया प्लैटफॉर्म से ज़रूर गुज़रते हैं, इनमें भी सौ प्रतिशत जनरल कास्ट के व्यक्ति अलग-अलग पोस्ट पर मौजूद हैं।

न्यूज़लॉन्ड्री, जिन्होंने इस रिपोर्ट बनाने में योगदान दिया है, दरअसल इन्हें सबसे पहले यह रिपोर्ट खुद पढ़ने की ज़रूरत है जिनके प्लैटफॉर्म पर काम करनेवाले 80% जनरल ही हैं और मात्र 20% ओबीसी यानी कोई एससी/एसटी/डीएनटी समुदाय का व्यक्ति नहीं।

हाशिये से आनेवाले समुदाय के लोग जो इस देश की न सिर्फ बड़ी आबादी हैं बल्कि इस देश का ‘हार्ट वाल्व’ हैं जिनके रुकने से पूरा सिस्टम धाराशाई हो सकता है, जो इस मीडिया को सबसे ज़्यादा देखते हैं उनके ही मुद्दे और वे खुद इस मीडिया के लिए ज़रूरी नहीं हैं। कुछ प्रतिशत डोमिनेंट कास्ट के लोग अपनी ही कुछ प्रतिशत आबादी के लिए खबरें ला रहे हैं, दिखा रहे हैं, बस कुछ खबरें एससी/एसटी/ओबीसी/डीएनटी की दिखाकर पुरुस्कार पा ले रहे हैं। इस रिपोर्ट से पहले भी बदलाव नहीं था, इसके बाद भी कोई बदलाव होगा या नहीं कहा नहीं जा सकता।

इस रिपोर्ट को बनाने में भी बहुजन पत्रकारों की कितनी राय ली गई इस बात में भी संशय है। लेकिन इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि ये बड़े मीडिया हाउस बहुजनों को आने नहीं देना चाहते तब बहुत ज़रूरी है कि कम संसाधनों में ही सही मूकनायक जैसे और प्लैटफार्म बनें और दलित, आदिवासी आदि वर्ग के लोग इन मीडिया प्लैटफॉर्म की हर संभव मदद करें। जैसा जीन बौर्गॉल्ट कह रहे हैं, जो मीडिया संस्थान समावेशी नहीं होते हैं उनके पाठक और मुनाफा दोनों की गिरने की संभावना बनी रहती है। भारतीय तथाकथित मुख्यधारा का मीडिया अगर बहुजन पत्रकारों को, वर्ग को शामिल नहीं कर सकता है तब हमें उसका पाठक, दर्शक बनने की भी कोई जरूरत नहीं है।


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