समाजकैंपस मिरांडा हाउस की घटना समाज के किन विचारों और मानसिकता का प्रमाण है, इसकी तह में जाना ज़रूरी

मिरांडा हाउस की घटना समाज के किन विचारों और मानसिकता का प्रमाण है, इसकी तह में जाना ज़रूरी

रामजस कॉलेज के वीमेंस फोरम की सदस्य और यूनियन का हिस्सा अनुष्का प्रज्ञा ने बताया कि कॉलेज के वीमेंस फॉर्म या वीमेन डिवेलपमेंट सेल की तरफ से अभी तक कोई आधिकारिक बयान नहीं आया है। जबकि ऐसा होना चाहिए था, इससे एक बात साफ़ होती कि रामजस कॉलेज एक शैक्षणिक संस्थान के तौर पर उन लोगों की आलोचना करता है जिन्होंने "रामजस का नारा है…" जैसे नारे लगाए।

14 अक्टूबर 2022 को मिरांडा हाउस कॉलेज में एनएसएस ने बीते सालों की तरह ‘दीवाली मेला’ का आयोजन किया। 2019, जिस साल मैं मिरांडा हाउस में पढ़ती थी, उसके आंखों देखे अनुभव से इस मेले के बारे में मोटा-मोटी कुछ बातें बता सकती हूं। जैसे, मेले में कॉलेज की सोसाइटी, सांस्कृतिक समूह, अपने अलग-अलग स्टॉल्स प्रदर्शनी में लगाते हैं। कुछ स्टॉल्स कॉलेज के छात्रों के अलावा बाहरी लोग/कंपनियां भी लगाती हैं। मिरांडा हाउस के अंदर मेला देखने के लिए आये बाहरी लोगों की एंट्री रहती है।

बीता 14 अक्टूबर इसी आयोजन का दिन था। मिरांडा हाउस से स्नातक कर चुकीं भावना उस दिन कॉलेज में ही थीं। वह बताती हैं, “मैं कैंटीन में थी, तभी लड़कों का एक झुंड बोर्ड पर लिखे को अनदेखा कर महिला शौचालय के अंदर घुसने की कोशिश करता दिखा, जबकि ऑडिटोरियम के बाहर पुरुषों के लिए शौचालय मौजूद है। मैंने जब रोका, सोचा इन्हें सही वॉशरूम का रास्ता बता दूं तो वे मेरे साथ बद्तमीज़ी करने लगे।”

उसी दिन वीमेंस डेवेलपमेंट सेल की अध्यक्ष और मिरांडा हाउस ही छात्रा श्रेया अन्य लोगों के साथ हॉस्टल गेट की तरफ एंट्री लाइन में खड़ीं थीं। श्रेया को एंट्री नहीं मिल पाई, “अचानक गेट बंद कर दिया गया। मैं लाइन में बहुत पीछे थी, तो आगे क्या हो रहा था मैंने देखा नहीं, या कॉलेज के अंदर क्या हो रहा था मुझे अपने दोस्तों से पता चला। लेकिन लाइन में कुछ लोग रामजस का नारा है पूरा मिरांडा हमारा है लगा रहे थे। हां, और हॉस्टल गेट की तरफ गार्ड्स आगे वाले दोनों गेट्स से कम संख्या में मौजूद थे।”

एसएफआई नार्थ दिल्ली एरिया कमिटी की सदस्य मेहीना, जो दिल्ली विश्वविद्यालय से मास्टर्स कर रही हैं, कहती हैं, “कॉलेज के पास सुरक्षा की बहुत तैयारी नहीं थी, गेट पर बहुत ज्यादा गार्ड भी नहीं थे। कॉलेज सोसाइटी में सबसे सीनियर जो हैं वे स्नातक तीसरे वर्ष के लोग हैं, अब हिंसक भीड़ के लिए क्यों तैयार रहें और कैसे तैयार रहें उन्हें कैसे पता होगा, यह उनकी ज़िम्मेदारी भी नहीं है। जब पुलिस आई तो सामने से देख रही थी कि भीड़ के कौन लोग छात्रों को तंग कर रहे हैं, असुरक्षित महसूस करवा रहे हैं फिर भी उनका कहना था कि ये छात्र हैं हम इन्हें कैसे गिरफ्तार करें। जबकि एक दिन पहले ही उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के कला संकाय के कैंपस से जिन एसएफआई के सदस्यों को गिरफ़्तार किया था वे भी छात्र ही थे।”

मिरांडा हाउस के कॉलेज प्रशासन ने घटना के बाद फुर्ती दिखाई। स्टाफ़ काउंसिल की बैठक हुई, आयोजनों में एंट्री को लेकर नए नियम बने हैं। इन नियमों की पुष्टि प्रिंसिपल विजयलक्ष्मी नंदा ने भी की है। दो दिन बाद, 17 अक्टूबर, को दिल्ली पुलिस ने ‘अज्ञात विद्यार्थियों’ के ख़िलाफ़ एफआईआर दर्ज़ की। एक वीडियो जो सोशल मीडिया, प्राइम टाइम हर जगह दिख रहा है उसमें साफ़ पता चल रहा है कैसे गेट के ऊपर चढ़कर, पुरुष/विद्यार्थी मिरांडा हाउस कॉलेज के अंदर जबरदस्ती घुसने की कोशिश कर रहे हैं।

मिरांडा हाउस से स्नातक कर चुकीं भावना उस दिन कॉलेज में ही थीं। वह बताती हैं, “मैं कैंटीन में थी, तभी लड़कों का एक झुंड बोर्ड पर लिखे को अनदेखा कर महिला शौचालय के अंदर घुसने की कोशिश करता दिखा, जबकि ऑडिटोरियम के बाहर पुरुषों के लिए शौचालय मौजूद है। मैंने जब रोका, सोचा इन्हें सही वॉशरूम का रास्ता बता दूं तो वे मेरे साथ बद्तमीज़ी करने लगे।”

क्या ऐसी घटनाओं का पैटर्न किसी ख़ास मानसिकता को दिखाता है?

मिरांडा हाउस में जो हुआ, उस कॉलेज से स्नातक कर चुकी विद्यार्थी के तौर पर इसमें मेरे लिए कुछ नया नहीं था। साल 2018 में, फेस्ट की दूसरी रात एक बड़ी भीड़, जो को खुद को अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के सदस्य बता रहे थे, गुंडागर्दी करते हुए बिना पास घुस आए थे। साल 2020 में दिल्ली विश्वविद्यालय के एक अन्य महिला महाविद्यालय, गार्गी कॉलेज के फेस्ट में भी ऐसा ही कुछ हुआ था। कुछ नशे में धुत, कुछ बिना नशे में पुरुषों के समूह ने छात्राओं का उत्पीड़न किया था, उन्हें असुरक्षित महसूस करवाया था।

साल 2018 में दो और केस रिपोर्ट हुए थे, लेडी श्रीराम कॉलेज और जीसस मेरी कॉलेज (दोंनो ही महिला महाविद्यालय हैं) की छात्राओं ने होली के समय पुरुषों द्वारा बैलून फेंके जाने की शिकायत की थी, इसके विरोध में प्रोटेस्ट भी किया था। बात यह नहीं है कि बैलून में क्या है, पर यह सब सहमति के बिना हुआ है, यह उत्पीड़न है। निधि समर, जो साल 2013 से 2016 तक एलएसआर की छात्रा रही हैं, उन्होंने बताया कि उनके समय में कई बार बैक गेट की तरफ कुछ पुरुष गाड़ियां पार्क कर मास्टरबेट करते थे, उन्हें पता होता था कि इस एरिया में स्ट्रीट लाइट नहीं है और लड़कियां अक्सर कॉलेज आने-जाने के लिए इस गेट का इस्तेमाल करती हैं।

एसएफआई नार्थ दिल्ली एरिया कमिटी की सदस्य मेहीना, जो दिल्ली विश्वविद्यालय से मास्टर्स कर रही हैं, कहती हैं, “कॉलेज के पास सुरक्षा की बहुत तैयारी नहीं थी, गेट पर बहुत ज्यादा गार्ड भी नहीं थे। कॉलेज सोसाइटी में सबसे सीनियर जो हैं वे स्नातक तीसरे वर्ष के लोग हैं, अब हिंसक भीड़ के लिए क्यों तैयार रहें और कैसे तैयार रहें उन्हें कैसे पता होगा, यह उनकी ज़िम्मेदारी भी नहीं है। जब पुलिस आई तो सामने से देख रही थी कि भीड़ के कौन लोग छात्रों को तंग कर रहे हैं, असुरक्षित महसूस करवा रहे हैं फिर भी उनका कहना था कि ये छात्र हैं हम इन्हें कैसे गिरफ्तार करें। जबकि एक दिन पहले ही उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के कला संकाय के कैंपस से जिन एसएफआई के सदस्यों को गिरफ़्तार किया था वे भी छात्र ही थे।”

दिल्ली विश्वविद्यालय के नार्थ कैम्प्स में मेघदूत होस्टलका गेट हो, किसी महिला महाविद्यालय का कोई ऐसा आयोजन जहां कॉलेज के बाहर के लोगों को आने की अनुमति हो, विश्वविद्यालय के आसपास स्थित महिला पीजी का एरिया हो, ये सारे वे ‘ज़ोन’ माने जाते हैं जिन के बारे में लोग निजी-व्यक्तिगत बातचीत में, औपचारिक-अनौपचारिक संदर्भों में, अपने अपने तरीक़े से पूर्वाग्रह बनाने, उन पूर्वाग्रहों और मनगढ़ंत कहानियों के आधार पर व्यक्ति विशेष या किसी ग्रुप पर टिप्पणियां करने, फब्तियां कसने में एक विशेष आनंद का अनुभव करते हैं। यही सारे विचार-शब्द-सोच परिस्थिति और मौक़े के हिसाब से व्यवहार/एक्शन का रूप लेते हैं, इन घटनाओं की जड़ें लोगों, समाज की मानसिकता तक जाती हैं।

नारीवादी दृष्टिकोण से सामाजिक घटनाओं की पड़ताल करने के तीन तरीकों का ज़िक्र सैंड्रा हार्डिंग अपने काम is there a feminist method में करती हैं। ये तरीक़े हैं: सूचना और वे सूचनाएं जिन्हें सीधे प्रभावित करती हैं उन्हें सुनना, व्यवहार पर गौर करना, इन्हें इतिहास में हुए मिलती-जुलती घटनाओं के साथ रखकर पड़ताल करना। इसलिए इस तरह की घटनाओं, व्यवहार, विचार के पैटर्न को बारीकी से देखना ज़रूरी है।

क्या है ऐसा ‘अजब-गजब’ इन ‘जनाना डिब्बों’ के अंदर

कोई कहता है ‘एंग्री इंडियन गॉडसेज़’ कोई कहता है ‘तिरिया चत्रितर’, क्या है ऐसा ‘अजब-गजब’ इन ‘जनाना डिब्बों’ के अंदर। पहली बात, ‘जनाना डिब्बे’ से मेरा अर्थ महिला विश्वविद्यालयों, हॉस्टलों, पीजी, और इन जैसे अन्य स्पेस से है। दूसरी बात, इस शब्द का प्रयोग ‘जनाना’ शब्द की अवधारणा से किसी ऐसे इंसान को बाहर रखना नहीं है जो खुद को बतौर ‘महिला’ आइडेंटिफाई करते हैं, बल्कि महिला महाविद्यालय इत्यादि जैसी जगहों के लोगों, छात्राओं के संदर्भ में हैं।

1970 के दौर में अख़बार में छपनेवाले ‘वधु चाहिए’ विज्ञापनों में रंग-धर्म-जाति की मांग के साथ एक नयी मांग दिखी, मांग थी- लड़की लेडी श्रीराम कॉलेज, मिरांडा हाउस जैसे शिक्षण संस्थानों से नहीं होनी चाहिए। कारण यह बताया गया कि ‘ज़्यादा मॉडर्न’/पढ़ी-लिखी/खुले ख़्याल की लड़कियां’ घर को संभालने के पारंपरिक ढांचे नहीं निभा पाएंगी यानी, परिवार के ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक व्यवहार में हस्तक्षेप करेंगी।

साल 2022 में मैंने शिवांगी द्विवेदी, जिनका स्नातक मिरांडा हाउस से है और जो मास्टर्स दिल्ली विश्वविद्यालय से कर रही हैं से जब बात की तो उन्होंने आसपास सुने बहुत सारे प्रॉब्लेमेटिक वाक्यों और उनकी उत्पत्ति जिस मानसिकता से होती है उनके बारे में विस्तार से बताया। वह बताती हैं, “हमने आर्ट्स फैकेल्टी में पुरुषों के समूहों को, मेरे अपने बैचमेट, सहपाठियों, तथाकथित पुरुष मित्रों से जो कई बार सुना है वे हैं: “मिरांडा की लड़कियां ज्यादा ही फेमिनिस्ट होती हैं/गर्लफ्रेंड बनाओ मिरांडा की लड़की को, शादी करो लेडी श्रीराम की लड़की से/ महिला विश्वविद्यालय में जाकर सभी लेस्बियन हो जाती हैं/ तुम किसी भी मज़ाक पर ऑफेंड क्यों हो जाती हो यार, चिल रहो, महिला महाविद्यालय की लड़कियां पुरुषों के मज़ाक नहीं ले पाती हैं क्या/!”

ये सारे वाक्य न सिर्फ पितृसत्तात्मक सोच के प्रमाण हैं, बल्कि किसी महिला के स्पेस के वस्तुतिकरण, उन्हें इंसान/कॉलेज न मानकर केवल फेंटेसी की वस्तु/जगह की तरह देखने के कारण कहे जाते हैं। मेहीना के शब्दों में कहें तो “जेंडर, लैंगिकता, नारीवाद विमर्श को लेकर लोग न जागरुक हैं, न उन्हें जागरूक होने की इच्छा है। पुरुषों की परवरिश जिस तरह से समाज में होती है, ये सब उसका उदाहरण है। महिलाओं को इंसान, नागरिक की तरह देखने की ट्रेनिंग ही नहीं है। या तो दक्षिणपंथी सोच के विद्यार्थी, लोग, मनुवादी सोच के लोग, महिला को देवी का स्थान देते हैं, एक तरफ मां-बहन की इज्ज़त करने की बात कहते हैं लेकिन यही से ‘अच्छी’ और ‘बुरी’ औरत की बाइनरी बनती है। जो महिलाएं पितृसत्ता के नज़रों से ‘बुरी औरत’ महिलाएं होती हैं उनके चरित्र पर टिप्पणी करना, उन्हें मानसिक और/या शारीरिक तौर पर उत्पीड़ित करना, उनका सल्ट-शेमिंग करने को असंवेदनशीलता और रूढ़िवादी कारणों से ज़ायज़ मानते हैं।

शिवांगी ने जिन टिप्पणियों का ज़िक्र किया उन पर एक बार वापस चलते हैं। टिप्पणी एक: ‘ज्यादा फेमिनिस्ट’ जैसा क्या कुछ होता है? नारीवाद विमर्श में कई विचार हैं, कई स्टैंड पॉइंट हैं, कुछ स्टैंड पॉइंट किसी अन्य, पूर्व स्टैंड पॉइंट की आलोचना में उभरे हैं। जैसे क्वीयर नारीवाद, दलित नारीवाद के स्टैंड पॉइंट भारत के ‘मुख्यधारा नारीवाद’ और मात्र भावनात्मक ‘सिस्टरहूड’ की आलोचना करते हैं, महिलाओं के बीच अन्य पहचानों के कारण उनके अनुभवों की विविधता पर तार्किक आलोचना करते हैं, पुराने नारीवाद विचारों की कमियों को चिह्नित करते हैं। ऐसे में किसी कॉलेज पर या/और छात्राओं पर ऐसी टिप्पणी कहने वाले अपनी कम समझ का परिचय देते हैं।

दूसरी टिप्पणी: जब कोई व्यक्ति किसी जगह/कॉलेज के कारण महिलाओं की किसी भी तरह की स्टीरियोटाइपीइंग करता है, तब दुनिया की सभी महिलाओं को उनके स्वाधिकार से वंचित करने की कोशिश कर रहा होता है। 1970 के विज्ञापन और यह टिप्पणी दोनों अलग होकर भी इसी मानसिकता से प्रेरित हैं। उदाहरण के लिए अगर मैं कहूं “छोटे कपड़े पहनने वाली लड़कियां बदचलन होती हैं” तो मैं महिला खिलाड़ी जो शॉर्ट्स पहनकर खेलती हैं, गर्मी के मौसम में शॉर्ट्स पहनकर टहलने निकली लड़की, कपड़े पहनने में उम्र की वजह से दिक़्क़त होने पर साड़ी से शॉर्ट्स में स्विच हुई किसी उम्रदराज़ महिला और ऐसी कई महिलाओं के चयन को, उनकी मर्ज़ी को अपने संकुचित ख़्याल के कारण ‘बुरी औरत’ कह रही होऊंगी।

तीसरी टिप्पणी: कोई भी इंसान ‘लेस्बियन’ बन नहीं सकता/सकती। हम एक ऐसे समाज में रहते हैं जहां यौनिकता और लैंगिक पहचान के मायने से केवल हेट्रोसेक्सअुल होने को सामान्य पहचान के रूप में देखा जाता है। इसलिए क्वीयर होने को लेकर खुद में सहज होने और उसे हक़ से अपनाने की यात्रा तक में कई तरह की दिक्कतें आती हैं। अगर आपको लगता है कि किसी को महिला महाविद्यालय के सुरक्षित स्पेस के कारण अपने आप को समझने में, उस पर खुद के साथ फिर अन्य के साथ सहज होने में मदद मिलती है तो उसे आप कहें, “महिला विश्वविद्यालय में लड़कियों को अपनी यौनिकता को ओन करने में, उसे पहचानने की यात्रा में मदद मिलती है।”

चौथी टिप्पणी: जो महिला ‘जनाना डब्बों’ में कभी न कभी रही है हो सकता है अपने अनुभवों की वजह से, परत-दर-परत, अंदर-बाहर से समझने के कारण उसे आपकी बातें बुरी लग रही हो। ग़लती समाज की, उस सोच की है जिसके शिकार आप भी हैं। आपको इन महिलाओं को सुनने, उनके अनुभवों को समझने की जरूरत है, खुद के नज़रिए पर दोबारा सोचने की जरूरत है। वरना ऐसी बात हो जाएगी कि : शेर कहे कि हिरण जंगल की नदी पर पानी पीने आते ही नहीं! जबकि लफ़्फ़ाज़ी की जगह असल काम संवाद, विश्वास क़ायम करने और उसे व्यवहार में लाने पर किया जाना चाहिए था!

शिवांगी (या शिवांगी के अनुभव जो अन्य कई महिलाओं के अनुभव से मिलते जुलते हैं) का ऑफेंड होना कब होता है? साल 2022 में दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के एमए प्रथम वर्ष की फ्रेशर्स आयोजन में होता है। ऐसा क्यों हुआ? क्योंकि माइक और मंच संचालन कर रहे व्यक्ति जनता का जोश बढ़ाने के लिए कहते हैं, “इतनी जोर से चिल्लाइए कि मिरांडा हाउस तक आवाज़ जाए!” अब भई! अगर आप तेज़ चिल्लाने का रूपक बनाना चाह रहे थे कहिए आवाज़ हंसराज कॉलेज तक जाए या ख़ालसा कॉलेज तक, ये जगहें आयोजन वाली जगह से ज्यादा दूरी पर हैं! मिरांडा हाउस पर जाकर रुक जाने के पीछे के कारण को अतार्किक ढंग से गपबाज़ी में न्याययोचित ठहराना पाज़ीपन है!

मैं एक ईमेल का ज़िक्र करना चाहूंगी जो मैंने कुछ दिन पहले मिरांडा हाउस में/के कारण मिली अपनी दोस्तों को लिखा था:

जहां महिला संस्थानों के अंदर कुछ महिलाएं संस्थान को उन महिलाओं को लेकर समावेशी बनाने के लिए संघर्षरत हैं जिन्हें इन संस्थानों के अंदर कभी अपनापन जैसा नहीं लगा, अपने अनुभवों और विचारों की पूर्णतः और ईमानदार स्वीकृति महसूस नहीं हुई है। उदाहरण स्वरूप कई सालों से भव्य ‘दीवाली मेला’ मनाने वाले संस्थान (मिरांडा हाउस) में पहली बार साल 2020 में पहली बार मिरांडा हाउस के अंदर इक्वल ओपोर्चुनिटी सेल द्वारा ‘मनुस्मृति दहन दिवस’ मनाया जाना संभव हुआ। लेकिन जिन्हें महिलाओं को लेकर सतही बातें करनी हैं, उनका वस्तुतिकरण करना है, वे सामाजिक बराबरी के लिए न केवल महिलाओं के संघर्ष को पीछे धकेलते हैं बल्कि समाज को हर किसी के लिए असुरक्षित बनाते हैं। 

“करें तो करें क्या?” बस थोड़ा सुनिए भईया/दिदिया!

रामजस कॉलेज के वीमेंस फोरम की सदस्य और यूनियन का हिस्सा अनुष्का प्रज्ञा ने बताया कि कॉलेज के वीमंस फॉर्म या वीमेन डिवेलपमेंट सेल की तरफ से अभी तक कोई आधिकारिक बयान नहीं आया है। जबकि ऐसा होना चाहिए था, इससे एक बात साफ़ होती कि रामजस कॉलेज एक शैक्षणिक संस्थान के तौर पर उन लोगों की आलोचना करता है जिन्होंने “रामजस का नारा है…” जैसे नारे लगाए। प्रज्ञा ने बताया कि उनकी कई दोस्त महिला महाविद्यालय में हैं, उन महाविद्यालयों में जब भी वे गई हैं उन्हें अपने व्यवहार, कपड़े, विचार को रखने में पुरुषों की मैनस्प्लेनिंग, उनके सीमित अनुभव से बने नज़रिए की वजहों से हमेशा सचेत नहीं रहना पड़ता है, इसलिए वे उन स्पेस में रामजस के मुकाबले ज़्यादा सहज महसूस करती हैं। जबकि उनकी कॉलेज की केंटीन हो या कोई सोसाइटी, सवाल विचार रखने का हो या संवाद करने का, बात भौतिक स्पेस की हो या वैचारिक स्पेस की, उन्हें हमेशा संकुचित महसूस होता है।

नारीवाद, ‘जनाना डिब्बों’ पर बात करना, उनसे जुड़ी जानकारी से उत्पन्न ज्ञान को समझना, अपने व्यवहार में उन्हें आत्मसाथ केवल महिलाओं का काम नहीं है। एक समावेशी समाज जहां अनुभव की भिन्नताएं किसी शोषणकारी ढांचे में बदलने की जगह भिन्नताओं को स्वीकारे, असहमतियों पर संवाद करने की सहष्णु स्थिति में हो, संवाद से आगे बढ़े और व्यवहारिक स्तर पर खुद के निजी-सावर्जनिक के अस्तित्व में हमेशा प्रश्न चिन्ह बनाये रखे, इसके लिए ओच्छी-छिछली टिप्पणियों-हरकतों से उबरना पड़ेगा। पितृसत्तात्मक सोच से निकलना न केवल महिलाओं के लिए बल्कि सभी के लिए एक स्वस्थ समाज बनाने के लिए कारगर है। 


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