सुप्रीम कोर्ट ने बीते 31 अक्टूबर को ‘टू-फिंगर टेस्ट’ पर बैन लगाते हुए कहा कि कोई भी व्यक्ति जो ‘टू-फिंगर टेस्ट’ करता है, वह कदाचार का दोषी होगा। जस्टिस धनंजय वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस हेमा कोहली की पीठ ने साल 2004 में झारखंड के नारंगी गांव में एक नाबालिग के बलात्कार और हत्या से संबंधित एक मामले की सुनवाई के दौरान ‘टू-फिंगर टेस्ट’ के संबंध में यह फै़सला दिया। सुप्रीम कोर्ट, झारखंड हाई कोर्ट के एक फैसले की अपील पर सुनवाई कर रहा था, जिसमें हाई कोर्ट ने आरोपी के ऊपर लगे बलात्कार के आरोप को खारिज कर दिया था। सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि सर्वाइवर के चरित्र या किसी भी व्यक्ति के साथ उसके पिछले यौन अनुभव का सबूत सहमति के मुद्दे के लिए प्रासंगिक नहीं होगा।
इस मामले में आरोपी शैलेंद्र कुमार राय उर्फ पांडव राय नाम का एक व्यक्ति 7 नवंबर 2004 की दोपहर को नाबालिक सर्वाइवर के नारंगी गांव स्थित घर में घुस गया था। उसने सर्वाइवर के साथ बलात्कार किया। साथ ही उसने शोर मचाने पर सर्वाइवर को जान से मारने की धमकी भी दी। सर्वाइवर ने अपनी मदद के लिए आवाज़ लगाई, जिस पर दोषी ने उस पर मिट्टी का तेल डालकर आग लगा लगी। उसके रोने की आवाज़ सुनकर मदद के लिए उसके दादा, माँ और गाँव के कुछ निवासी उसके कमरे में आ गए। आरोपी उन्हें देखकर मौके से फरार हो गया।
सर्वाइवर के परिवार वालों ने ग्रामीणों के साथ मिलकर आग बुझाई और उसे सदर अस्पताल, देवघर ले गए, जहां उसका इलाज कराया गया। उसी दिन पुलिस स्टेशन सरवना के थाना प्रभारी ने घटना के संबंध में जानकारी प्राप्त की और देवघर गए, जहां उन्होंने उसी दिन सर्वाइवर का बयान रिकॉर्ड किया। सर्वाइवर ने अपने बयान में पुलिस को घटना की जानकारी दी। बाद में सर्वाइवर की मृत्यु हो गई और आरोपी को गिरफ्तार किया गया। सत्र न्यायालय ने 2006 में, पांडव राय को आजीवन कारावास की सजा सुनाई। साथ ही 10 साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई, दोनों को एक साथ चलाने का निर्देश दिया गया। उसे भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 302 (हत्या के लिए सजा), 341, 376 (बलात्कार के लिए सजा) और 448 (घर-अतिचार के लिए सजा) के तहत दोषी ठहराया गया था।
अदालत ने टू-फिंगर टेस्ट के संबंध में महत्वपूर्ण टिप्पणियां कीं। अदालत ने कहा कि इस तथाकथित परीक्षण का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है और न ही यह बलात्कार के आरोपों को साबित करता है और न ही खंडन करता है। इसके बजाय यह उन महिलाओं को री-विक्टिमाइज़स, री-ट्रॉमाटाइज़ेस करता है, जिनका यौन उत्पीड़न हुआ है।
हालांकि, पांडव राय द्वारा दायर अपील पर सुनवाई करते हुए झारखंड हाई कोर्ट ने सत्र न्यायालय के फैसले को खारिज कर दिया और उसे बरी कर दिया। बरी होने के कारणों में से एक यह बताया गया था कि डॉ मीनू मुखर्जी जिन्होंने सर्वाइवर का टू फिंगर परीक्षण किया था, उन्होंने सर्वाइवर की जांच के दौरान संभोग का कोई संकेत नहीं पाया क्योंकि परीक्षण के दौरान सर्वाइवर की योनि में दो उंगलियां आसानी से चली गई थीं। हाई कोर्ट के फैसले के पीछे का एक और कारण यह था कि परिवार के सदस्यों सहित कई गवाह मुकर गए थे। बाद में सुप्रीम कोर्ट में हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ याचिका दायर की गई। दोनों पक्षों को सुनने के बाद, शीर्ष अदालत ने हाई कोर्ट के फैसले को यह कहते हुए रद्द कर दिया कि सर्वाइवर द्वारा पुलिस को दिया गया मृत्युपूर्व बयान स्वेच्छा से था और सत्य है। सुप्रीम कोर्ट ने सर्वाइवर के ‘फर्द बयान’ को ‘मृत्युकालीन बयान’ के रूप में माना।
सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट की महत्वपूर्ण टिप्पणियां
अदालत ने टू-फिंगर टेस्ट के संबंध में महत्वपूर्ण टिप्पणियां कीं। अदालत ने कहा कि इस तथाकथित परीक्षण का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है और न ही यह बलात्कार के आरोपों को साबित करता है और न ही खंडन करता है। इसके बजाय यह उन महिलाओं को री-विक्टिमाइज़स, री-ट्रॉमाटाइज़ेस करता है, जिनका यौन उत्पीड़न हुआ है, और यह उनकी गरिमा का अपमान है। अदालत ने यह भी कहा कि यह परीक्षण एक गलत धारणा पर आधारित है कि सेक्सुअली ऐक्टिव महिला का बलात्कार नहीं किया जा सकता है। अदालत ने कहा कि आईपीसी की धारा 375 (बलात्कार) से संबंधित मामलों के लिए किसी महिला को संभोग की आदत का होना प्रासंगिक नहीं है।
कोर्ट ने यह भी कहा कि सच्चाई से आगे कुछ भी नहीं हो सकता है यह तय करने में कि क्या आरोपी ने उसका बलात्कार किया है और यहां एक महिला का यौन इतिहास पूरी तरह से महत्वहीन है। कई बार एक महिला पर विश्वास नहीं किया जाता है जब वह बताती है कि उसके साथ बलात्कार किया गया है, सिर्फ इसलिए कि वह यौन रूप से सक्रिय है। यह पितृसत्तात्मक और महिला-विरोधी मानसिकता है। अदालत ने यह भी कहा कि साक्ष्य अधिनियम की धारा 53 ए में कहा गया है कि किसी व्यक्ति के चरित्र या उसके पिछले यौन अनुभव का सबूत यौन अपराधों के अभियोजन में सहमति या सहमति की गुणवत्ता के मुद्दे के लिए प्रासंगिक नहीं होगा।
सुप्रीम कोर्ट ने टू फिंगर टेस्ट पर बैन लगाने के साथ-साथ यह फैसला सुनाया कि परीक्षण करने वाला कोई भी व्यक्ति कदाचार का दोषी होगा। न्यायालय ने केंद्र सरकार के साथ-साथ राज्य सरकारों को भी तीन दिशा-निर्देश जारी किए। न्यायालय ने कहा कि सरकारों को निर्देशित किया जाता है कि :
- सुनिश्चित करें कि स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा तैयार दिशा-निर्देश सभी सरकारी और निजी अस्पतालों में परिचालित किए गए हैं।
- यौन उत्पीड़न और बलात्कार के सर्वाइवर्स की जांच करते समय अपनाई जानेवाली उचित प्रक्रिया के बारे में बताने के लिए हेल्थवर्कर्स के लिए वर्कशॉप्स आयोजित की जाएं।
- यह सुनिश्चित करने के लिए मेडिकल स्कूलों में पाठ्यक्रम की समीक्षा करें कि टू-फिंगर टेस्ट या पर वजाइनम परीक्षण यौन उत्पीड़न और बलात्कार के सर्वाइवर्स जांच करते समय अपनाई जाने वाली प्रक्रियाओं में से एक के रूप में निर्धारित नहीं है।
क्या है टू फिंगर टेस्ट
टू-फिंगर टेस्ट जैसे अवैज्ञानिक परीक्षण की शुरुआत 18 वीं शताब्दी में हुई थी। इसका इस्तेमाल महिलाओं की वर्जिनिटी को निर्धारित करने के लिए किया जाता रहा है। इस परीक्षण में योनि की मांसपेशियों की शिथिलता का परीक्षण करने के लिए एक सर्वाइवर स्त्री की योनि में चिकित्सक द्वारा दो उंगलियां डाली जाती हैं। दो उंगलियों का आसानी से योनि के अंदर चले जाना इस बात का प्रमाण देता है कि उसे संभोग की आदत है। स्पष्ट रूप से, इस परीक्षण का कोई वैज्ञानिक महत्व नहीं है। हाइमन की अनुपस्थिति और योनि की शिथिलता सेक्स से असंबंधित कारणों से भी हो सकती है। भारत में इस टेस्ट का इस्तेमाल रेप सर्वाइवर के साथ रेप हुआ है या नहीं इसकी पुष्टि करने के लिए बरसों से किया जाता रहा है।
कोर्ट ने यह भी कहा कि सच्चाई से आगे कुछ भी नहीं हो सकता है यह तय करने में कि क्या आरोपी ने उसका बलात्कार किया है और यहां एक महिला का यौन इतिहास पूरी तरह से महत्वहीन है। कई बार एक महिला पर विश्वास नहीं किया जाता है जब वह बताती है कि उसके साथ बलात्कार किया गया है, सिर्फ इसलिए कि वह यौन रूप से सक्रिय है। यह पितृसत्तात्मक और महिला-विरोधी मानसिकता है।
हमारे देश में साल 2013 के लिलु बनाम हरियाणा राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक करार दे दिया था और साथ ही कहा था कि यह परीक्षण महिलाओं की निजता, अखंडता और गरिमा के अधिकार का उल्लंघन करता है। न्यायालय ने निर्धारित किया कि चिकित्सा प्रक्रियाओं को ऐसे तरीके से नहीं किया जाना चाहिए जो क्रूर, अमानवीय, या अपमानजनक उपचार का गठन करते हो। साथ ही कहा था कि लैंगिक हिंसा से निपटने के दौरान स्वास्थ्य को सर्वोपरि माना जाना चाहिए। राज्य यौन हिंसा के सर्वाइवर्स को ऐसी सेवाएं उपलब्ध कराने के लिए बाध्य है। उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए उचित उपाय किए जाने चाहिए और उनकी निजता में कोई मनमाना या गैरकानूनी हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए।
इसके बाद, केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने साल 2014 में यौन हिंसा के सर्वाइवर्स के लिए मेडिको-लीगल प्रक्रियाओं के लिए दिशानिर्देश बनाए थे। इसमें कहा गया था कि प्रति-योनि परीक्षण, जिसे आम तौर पर आम भाषा में ‘टू फिंगर टेस्ट’ के रूप में संदर्भित किया जाता है, बलात्कार / यौन हिंसा का पता लगाने के लिए नहीं किया जाना चाहिए। हाइमन की अवस्था अप्रासंगिक है क्योंकि हाइमन कई कारणों से फट सकता है जैसे साइकिल चलाना, घुड़सवारी करना या अन्य चीजों के साथ हस्तमैथुन करना।
हाइमन का न होना यौन हिंसा से इनकार नहीं करता है, और एक फटा हुआ हाइमन पिछले संभोग को साबित नहीं करता। यौन हिंसा के मामलों में परीक्षण के निष्कर्षों का दस्तावेजीकरण किया जाना चाहिए। केवल उन्हीं बातों का दस्तावेजीकरण किया जाना जो हमले की घटना के लिए प्रासंगिक हैं जैसे फ्रेश टीयर्स, रक्तस्राव, एडिमा आदि। इसके बावजूद गाहे-बगाहे यह परीक्षण आज भी बलात्कार सर्वाइवर्स पर किया जाता रहा है।