इतिहास बसंती देवी: स्वतंत्रता संग्राम की गुमनाम नायिका| #IndianWomenInHistory

बसंती देवी: स्वतंत्रता संग्राम की गुमनाम नायिका| #IndianWomenInHistory

इतिहास में उन वीरांगनाओं के योगदान को नज़रअंदाज कर दिया गया और उन्हें वह स्थान ही नहीं मिल पाया जिसकी वे हकदार थीं। उन्हीं नामों में से एक नाम है बसंती देवी का जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई लेकिन इतिहास में उनके बारे में बहुत कम लिखा गया।   

भारत को आज़ादी दिलाने की लड़ाई में पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं का भी अतुलनीय योगदान रहा है। कई महिलाएं ऐसी भी थीं जिन्होंने समाज के सारे बंधनों को तोड़कर पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर जंग-ए-आज़ादी में हिस्सा लिया लेकिन इतिहास में उन वीरांगनाओं के योगदान को नज़रअंदाज कर दिया गया और उन्हें वह स्थान ही नहीं मिल पाया जिसकी वे हकदार थीं। उन्हीं नामों में से एक नाम है बसंती देवी का जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई लेकिन इतिहास में उनके बारे में बहुत कम लिखा गया।   

बसंती देवी का जन्म 23 मार्च, साल 1880 में हुआ। उनके पिता असम में ब्रिटिश राज्य के दौरान एक बड़ी जमींदारी के दीवान थे। अपने शुरुआती दिनों में वह अपने पिता के साथ रहीं और फिर आगे की शिक्षा के लिए कोलकाता आ गई जहां लोरेटो हाउस में उन्होंने आगे की पढ़ाई पूरी की। कोलकाता में ही उनकी मुलाकात चितरंजन दास से हुई। चित्तरंजन दास जिनको सब देशबंधु के नाम से भी जानते हैं एक प्रसिद्ध नेता, वकील, राजनीतज्ञ और समाजिक कार्यकर्ता थे। दास से मिलने के बाद उन दोनों ने साल 1897 में शादी की।

महिला सशक्तिकरण पर बसंती देवी के विचार

बसंती देवी यह अच्छी तरह जानती थीं कि समाज में महिलाओं के प्रति फैली कुरीतियों और उनके साथ होनेवाले भेदभाव को शिक्षा के माध्यम से ही खत्म किया जा सकता है। वह समझती थीं कि बचपन से लेकर मौत तक महिलाएं भेदभाव का सामना करती रहती हैं क्योंकि उनका दोष सिर्फ इतना है कि वे एक स्त्री हैं। उन्होंने महिलाओं के प्रति होनेवाले पक्षपात के प्रति कभी समझौता नहीं किया और हमेशा समाज में महिलाओं की स्थिति को बेहतर करने के लिए काम किए। 

बसंती देवी, तस्वीर साभार- ट्विटर

उनका मानना था कि महिलाओं को हमारे समाज में समान अधिकार और सम्मान मिलना चाहिए। लेकिन उससे पहले महिलाओं को हर मायने में आत्मनिर्भर होना होगा और केवल शिक्षा ही उन्हें आत्मनिर्भर, सशक्त और आर्थिक स्वतंत्र बना सकती है। शिक्षा के अलावा निस्वार्थ भावना, समाज और राष्ट्र के प्रति समर्पण उनको बंधनमुक्त और सदियों से चले आ रहे भेदभाव से मुक्त करा सकता है। 

बसंती देवी का राजनीतिक सफर

उनके राजनीतिक सफर की शुरुआत तब हुई जब उन्होंने पति चित्तरंजन दास के साथ सविनय अवज्ञा आंदोलन और खिलाफ़त आंदोलन में भाग लिया। साल 1920 में उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में भी हिस्सा लिया। वह बंगाल की पहली महिलाओं में से एक थीं जिन्होंने सिख महिलाओं के साथ मिलकर विदेशी कपड़ों का बहिष्कार किया और स्वदेशी कपड़ों को बढ़ावा दिया। इसके साथ ही उन्होंने अपनी दोनों भाभी उर्मिला देवी और सुनीता देवी के साथ मिलकर महिला कार्यकर्ताओं के लिए प्रशिक्षण केंद्र ‘नारी कर्मा मंदिर’ की स्थापना की। इसी बीच उन्होंने तिलक स्वराज कोष के लिए गहने और सोने के सिक्के एकत्रित करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 

असहयोग आंदोलन के दौरान कांग्रेस द्वारा विदेशी वस्तुओं पर प्रतिबंध और हड़ताल के लिए किए गए आह्वान में कोलकाता में  स्वंयसेवकों के पांच समूहों को सड़कों पर खादी और हाथ से बने हुए कपड़ों को बेचने के लिए नियुक्त किया गया था। इसमें से एक समूह का नेतृत्व बसंती देवी ने खुद किया था। हालांकि, उन्हें चेतावनी दी गई थी कि अगर वह सड़कों पर विरोध करने जाती हैं तो अंग्रेजों द्वारा गिरफ्तार कर ली जाएंगी लेकिन उन्होंने किसी की एक न सुनी और जाकर अपना मोर्चा संभाला। समूह के नेतृत्व के दौरान उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था लेकिन आधी रात को ही उन्हें रिहा कर दिया गया। वह बंगाल की पहली महिला थी जो असहयोग आंदोलन में खादी बचने के लिए जेल गईं। 

इस आंदोलन में 10 दिसंबर 1921 के दिन चित्तरंजन दास को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया, जिसके बाद बंसती देवी ने उनके साप्ताहिक प्रकाशन ‘बंगलार कथा’ का कार्यभार संभाला। काज़ी नजरुल इस्लाम की लिखी क्रांतिकारी कविता को छापने का काम भी उन्होंने वीरतापूर्वक किया। वह साल 1921-1922 में बंगाल के प्रांतीय कांग्रेस की अध्यक्ष भी रहीं। अप्रैल 1922 को बसंती देवी के द्वारा चटगांव सम्मेलन में दिए गए भाषण ने आंदोलन को ज़मीनी स्तर पर प्रोत्साहित किया। उन्होंने बंगाल के लोगों को राजनीति को अपने जीवन का हिस्सा बनाने के लिए प्रेरित किया, इसके अलावा जरूरतमंद महिलाओं के लिए चित्तरंजन सेवा सदन का निर्माण किया।

जब उनके पति को मौलाना आज़ाद और सुभाष चंद्र बोस के साथ गिरफ्तार कर लिया गया था, उस समय उन्होंने व्यक्तिगत रूप से अपने पति का प्रतिनिधित्व किया और चटगांव के प्रांतीय सम्मेलन की अध्यक्षता की। अपने पति की मृत्यु के बाद उन्होंने राजनीति में सक्रियता त्याग दी। चित्तरंजन दास सुभाष चंद्र बोस के राजनैतिक गुरु थे। बोस बसंती देवी को अपनी दत्तक माँ मानते थे और उनका बहुत सम्मान करते थे। इसके अलावा देवी को महात्मा गांधी, मोतीलाल नेहरू तथा सरोजिनी नायडू जैसे नेताओं का भी स्नेह और आशीर्वाद प्राप्त था । 

साल1928 में भारतीय स्वतंत्रता सेनानी लाला लाजपत राय की पुलिस लाठीचार्ज में घायल होने से मृत्यु हो गई जिसके बाद बसंती देवी ने भारतीय युवाओं का उनकी मौत का बदला लेने के लिए आह्वान किया। भारत की स्वतंत्रा के बाद भी वह एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में काम करती रहीं। साल 1973 में भारत का दूसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म विभूषण से उन्हें सम्मानित भी किया गया। 94 वर्ष की आयु में साल 1974 में उनका देहांत हो गया।

बसंती देवी ने अपना पूरा जीवन शिक्षा के माध्यम से महिला सशक्तिकरण के लिए समर्पित किया। वह हमेशा सामाज में प्रचलित मान्यताएं, महिलाओं के प्रति अत्याचार और उनके प्रति होने वाले भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाती रहीं। बसंती देवी शिक्षा के माध्यम से महिलाओं को सशक्त बनाने और उनके सामाजिक स्तर को और बेहतर करने के उद्देश्य को पूरा करने के लिए सरकार ने कोलकाता में महिला कॉलेज की स्थापना 5 अगस्त 1959 की। इस कॉलेज का नाम उन्हीं के नाम पर रखा गया है।


स्रोत:

1- Gyan Vitaranam

Comments:

  1. Mansi Parmar says:

    Good joy preeti 👏👏

  2. Sahil yadav says:

    Well done
    Good job 👏👏

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