समाजकैंपस पढ़ाई और कमाई के संघर्ष के बीच मदारी समुदाय की ये लड़कियां कैसे ला रही हैं बदलाव

पढ़ाई और कमाई के संघर्ष के बीच मदारी समुदाय की ये लड़कियां कैसे ला रही हैं बदलाव

बुनियादी अभावों से जूझते इन परिवारों के बच्चों की शिक्षा एक गंभीर मुद्दा है, ख़ासकर लड़कियों की शिक्षा। मदारी समुदाय की अधिकतर लड़कियों के लिए स्कूल की सालाना फीस के पैसे जुटा पाना मुश्किल होता है जिसकी वजह से उन्हें बीच में पढ़ाई छोड़नी पड़ती है। 

भोपाल में मदारी समुदाय के लोग नेहरू नगर स्थित ‘गन्दी बस्ती’ नाम के इलाके में रहते हैं। इनकी एक पूरी पीढ़ी फॉरेस्ट राइट ऐक्ट आने के बाद से मदारी का खेल दिखाना बंदकर शहरों की ओर पलायन कर गई। इस इलाके में फिलहाल कुल 76 परिवार रहते हैं। बुनियादी अभावों से जूझते इन परिवारों के बच्चों की शिक्षा एक गंभीर मुद्दा है, ख़ासकर लड़कियों की शिक्षा। मदारी समुदाय की अधिकतर लड़कियों के लिए स्कूल की सालाना फीस के पैसे जुटा पाना मुश्किल होता है जिसकी वजह से उन्हें बीच में पढ़ाई छोड़नी पड़ती है। 

समुदाय की कई लड़कियों ने पढ़ाई छूटने के पीछे अपनी अलग-अलग मुश्किलों को हमसे साझा किया। आशिया हमें बताती हैं, “हम तीनों बहनें पढ़ रहे थे इसलिए सबकी एक साथ सालभर की फीस देना बहुत मुश्किल हो रहा था। छोटी बहनों की पढ़ाई नहीं छुड़वा सकते थे तो मैंने अपनी ही पढ़ाई छोड़ दी। मैंने सोचा था आगे प्राइवेट कर लूंगी, लेकिन जब भी एडमिशन का समय आया हम उतने पैसे जमा ही नहीं कर पाए। इस तरह तीन साल निकल गए हैं।” वहीं, तंजीम बताती हैं, मुझे नौंवी क्लास की फीस भरनी थी। घर में पैसे की दिक्कत थी। मैं भी बाहर खेत के काम के लिए राज्य के बाहर चली गई। पैसे भी कमा लिए लेकिन तीन महीने बाद जब लौटी तब तक एडमिशन ख़त्म हो गए थे। इस तरह  मेरा एक साल खराब हो गया। थोड़ी पढ़ाई भी भूल गई हूं लेकिन अगले साल अब एडमिशन ज़रूर लूंगी।”

समुदाय की कई लड़कियों ने पढ़ाई छूटने के पीछे अपनी अलग-अलग मुश्किलों को हमसे साझा किया। आशिया हमें बताती हैं, “हम तीनों बहनें पढ़ रहे थे इसलिए सबकी एक साथ सालभर की फीस देना बहुत मुश्किल हो रहा था। छोटी बहनों की पढ़ाई नहीं छुड़वा सकते थे तो मैंने अपनी ही पढ़ाई छोड़ दी। मैंने सोचा था आगे प्राइवेट कर लूंगी, लेकिन जब भी एडमिशन का समय आया हम उतने पैसे जमा ही नहीं कर पाए। इस तरह तीन साल निकल गए हैं।”

समुदाय में से कई लड़कियां ऐसी भी हैं जो 50 पैसे में एक पूरे कंगन में नग या मोती लगाने का काम करती हैं। इस थोड़ी-बहुत कमाई से वे अपनी पढ़ाई को किसी तरह जारी रखे हुए हैं। सानिया और साईबा बारहवी कक्षा में हैं। मुस्कान बीए फाइनल ईयर में है। ये वे लड़कियां हैं जो अपने समुदाय में अब तक सबसे ज्यादा पढ़ाई कर पाई हैं और इसे जारी रखे हुए हैं। लेकिन इनके लिए भी सिर्फ पढ़ाई को जारी रख पाना मुमकिन तभी है क्योंकि ये अपने स्कूल और कॉलेज के बाद पूरा वक्त चूड़ी बनाने के काम में व्यस्त रहती हैं। साईबा का मानना है कि पढ़ना है तो पैसे लगेंगे और उसके लिए काम तो करना पड़ेगा। 

लाइब्रेरी में पढ़ते बच्चे

वहीं, मुस्कान को लगता है और ज़्यादा अच्छी पढ़ाई हो पाएगी अगर उसे अच्छा कॉलेज मिले लेकिन उसके लिए अच्छे नंबर लाने होते हैं लेकिन कमाई की ज़िम्मेदारी के साथ वह बस पास होने लायक तक ही पढ़ाई कर पाती है। मुस्कान याद करते हुए बताती हैं, “एक बार तो मेरी परीक्षा चल रही थी और किसी त्योहार का सीज़न भी था। रात को परीक्षा की तैयारी के कारण मेरा चूड़ी का काम अधूरा रह गया था लेकिन अगले दिन मुझे माल भी तैयार कर के देना था तो परीक्षा देते वक्त भी दिमाग में यही चल रहा था। किसी तरह मैंने 80 नंबर का पेपर किया और जल्दी से घर की तरफ भागी ताकि ऑर्डर समय पर पूरा हो सके।” सिमरन, ज़ोया, सना, शिरीन, ज़ेबा ये सब समुदाय की उन लड़कियों के नाम हैं जो अपनी पढ़ाई पूरी नहीं कर पाईं लेकिन आज भी उनके मन में आगे पढ़ना की इच्छा है। ज़ेबा जब बारहवीं की परीक्षा पास नहीं कर पाईं तो घर की आर्थिक तंगी का हवाला देते हुए इन्होंने भी अपनी पढ़ाई रोक दी। लेकिन इन लड़कियों की ज़िंदगी में कैसे एक ओपन लाइब्रेरी और फेलोशिप धीरे-धीरे ही सही पर बदलाव ला रहा है, आइए जानते हैं।

ओपन लाइब्रेरी कैसे समुदाय की लड़कियों को सशक्त करने में निभा रही एक अहम भूमिका

सावित्री बाई फुले फ़ातिमा शेख़ ओपन पुस्तकालय, इस समुदाय का एक सामुदायिक पुस्तकालय है। इसकी शुरुआत साल 2015 में गई थी। कहानियों की किताबों के मार्फ़त बच्चों का पढ़ने की तरफ रुझान बढ़ाना और बच्चों की किताबों में दिलचस्पी पैदा करना इसका उद्देश्य था। इसको सबा और सना हम दोनों बहनों ने शुरू किया था। उस समय भी हम अपने पैसों की बचत से किताबें खरीदते या पुरानी किताबें ख़रीद लाते। भोपाल शहर में स्थित एक दुकान, ‘किताब घर’ के नाम से है। वे अक्सर ही हमें लाइब्रेरी के लिए कम दाम पर किताबें दे देते।

लाइब्रेरी खुलने के बाद समुदाय के बच्चे वाकई किताबों में दिलचस्पी लेते और खूब चाव से पढ़ते। इस तरह लाइब्रेरी की कुछ पाठकों ने स्वयं उस पुस्तकालय को आज संभाल लिया है। अब हम सप्ताह में एक बार ही उस पुस्तकालय में जाते हैं। मदारी समुदाय में रहनेवाली कई लड़कियां जैसे ज़ेबा, आशिया ‘सावित्रीबाई, फुले, फ़ातिमा शेख़ लाइब्रेरी’ के साथ लगभग 10 सालों से जुड़ी हैं। यह लाइब्रेरी समुदाय की ओपन लाइब्रेरी है। चूंकि इस लाइब्रेरी की पाठक लड़कियां भी अब काफ़ी पुरानी हो गई हैं तो इस हैसियत से कुछ पाठक अब लाइब्रेरियन की भूमिका भी निभा रही हैं। 

कैसे हुई ‘सावित्री बाई फुले फ़ातिमा शेख़ फेलोशिप’ की शुरुआत

लेकिन यह लाइब्रेरी लड़कियों की रुकी हुई पढ़ाई को दोबारा शुरू करने में मदद नहीं कर पा रही थी। इसलिए हमने एक फेलोशिप की शुरुआत की और नाम रखा -‘सावित्री बाई फुले फ़ातिमा शेख़ फेलोशिप।’ इस फेलोशिप का मुख्य उद्देश्य है लड़कियों की पढ़ाई बीच में छूटने की दर को कम करना। इस फ़ेलोशिप के लिए हमने दोस्तों से पैसे मांगने शुरू किए। कुछ भोपाल के स्थानीय दोस्त और कुछ भोपाल से बाहर के दोस्तों ने इसमें मदद की। इस फ़ेलोशिप को डिज़ाइन मदारी समुदाय की लड़कियों की साझी राय से किया गया। इसमें लड़कियों के सुझावों से फ़ेलोशिप को लेकर एक दस्तावेज़ बनाया गया। इस फ़ेलोशिप को पाने के लिए लड़कियों को ‘सावित्री बाई फुले फ़ातिमा शेख़ ओपन लाइब्रेरी’ को अपना आवेदन देना होता है। 

फेलोशिप का पहला मकसद है कि स्कूल से ड्रॉपआउट हो चुकी लड़कियों को सरकारी स्कूल में दोबारा पढ़ाई शुरू करने के लिए तैयार करना। इनसे में हम उनकी सालाना फ़ीस, एग्जाम फ़ीस और पूरे साल का किताब-कॉपी का खर्चा उठाने के वादे के साथ उन्हें वापस स्कूल जाने के लिए तैयार करते हैं ताकि वे आर्थिक चिंता छोड़कर पढ़ाई पे ध्यान केन्द्रित कर पाएं। फेलोशिप शुरू होने के बाद ज़ेबा, ज़ोया और साहिबा ने मिलकर समुदय की दूसरी लड़कियों के एडमिशन करवाने शुरू किए हैं। 

मुस्कान को लगता है और ज़्यादा अच्छी पढ़ाई हो पाएगी अगर उसे अच्छा कॉलेज मिले लेकिन उसके लिए अच्छे नंबर लाने होते हैं लेकिन कमाई की ज़िम्मेदारी के साथ वह बस पास होने लायक तक ही पढ़ाई कर पाती है। मुस्कान याद करते हुए बताती हैं, “एक बार तो मेरी परीक्षा चल रही थी और किसी त्योहार का सीज़न भी था। रात को परीक्षा की तैयारी के कारण मेरा चूड़ी का काम अधूरा रह गया था लेकिन अगले दिन मुझे माल भी तैयार कर के देना था तो परीक्षा देते वक्त भी दिमाग में यही चल रहा था। किसी तरह मैंने 80 नंबर का पेपर किया और जल्दी से घर की तरफ भागी ताकि ऑर्डर समय पर पूरा हो सके।”

इस फ़ेलोशिप से जुड़ने के बाद लड़कियां बेफ़िक्री से अपने आगे की पढ़ाई को जारी रख पाती हैं। चूंकि हम आर्थिक रूप से इतने सक्षम नहीं हैं या इतना पैसा नहीं जुटा पाते हैं कि अधिक से अधिक लड़कियों को इस फ़ेलोशिप से जोड़ पाएं इसलिए हम कई ऐसी लड़कियों को जान भी रहे होते हैं जिन्हें इस फ़ेलोशिप की ज़रूरत है लेकिन हमें अपने सीमित संसाधनों के चलते उनको मना भी करना पड़ता है।

ज़ेबा जैसी लड़कियां जो लाइब्रेरी की पाठक भी हैं और लाइब्रेरियन भी उनका कहना है, “लोग पढ़ते रहें, इसके लिए इतनी मेहनत से लड़कियों को जोड़ते हैं लेकिन आगे जाकर तो अधिकतर लड़कियों की पढ़ाई छूट ही जा रही है। हमारी आगे की पढ़ाई नहीं रुके उसके लिए भी कुछ करना था। समूह में सबकी चिंता यही थी कि लड़कियों की आगे की पढ़ाई न छूटे। इसलिए सबने मिलकर सोचा कि फीस न भर पाने की वजह से कम से कम ये पढ़ाई नहीं रुकनी चाहिए। इस तरह हम लोगों ने हायर एजुकेशन फ़ेलोशिप की योजना शुरू की।” बता दें कि इस फ़ेलोशिप की पूरी मुहीम को ज़ेबा ने खुद संभाला है। वह बारहवी की छात्रा हैं और मदारी और दलित समुदाय के बच्चों को लाइब्रेरी में पढ़ना-लिखना सिखाने में मदद कर रही हैं।

फ़िज़ा जो भोपाल की मदर इंडिया बस्ती में रहती हैं, वह बताती हैं, “मुझे लगता था कि इस बार बारहवीं की फीस भर पाना मेरे लिए मुमकिन नहीं होगा। मुझे भी पढ़ाई छोड़कर अम्मी के साथ बंगले के काम पर लगना पड़ेगा या किसी कपड़े की दुकान पर बैठना पड़ेगा। मेरी इस परेशानी को ख़त्म करने में ज़ेबा ने मेरी काफ़ी मदद की।” तमाम चुनौतियों के बावजूद मदारी समुदाय की ये लड़कियां खुद भी अपने लिए रास्ते बना रही हैं। साथ ही ये लड़कियां समाज को भी दिशा दे रही हैं कि उन्हें किस तरह से काम करने की ज़रूरत है। 


सभी तस्वीरें सबा द्वारा उपलब्ध करवाई गई हैं।

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