किसी भी तरह की जड़ता और रूढ़िवाद को खत्म करने के लिए तर्क सबसे ज्यादा मायने रखते हैं। विज्ञान का क्षेत्र इन तर्कों को स्थापित करने का काम करता है। लेकिन जब बात महिलाओं की आती हैं तो हर तर्क पीछे छूटकर यहां भी भेदभाव हावी हो जाता है। इसी वजह से मेडिकल सांइस के क्षेत्र में भी महिलाएं न केवल पीछे हैं बल्कि सेवाएं लेने, उन तक पहुंच और उन्हें ध्यान में रखकर शोध करने तक में महिलाओं के प्रतिनिधित्व की कमी है। साल 2022 के अंत तक जारी कई शोध आज भी इस बात की तस्दीक करते हैं कि स्वास्थ्य क्षेत्र में बड़े स्तर पर मेडिकल मिसोजिनी मौजूद है। आईए विस्तार से जानते हैं मेडिकल मिसोजिनी क्या है, कैसे यह स्वास्थ्य के संदर्भ में महिलाओं के पहलू को नज़रअंदाज करता है।
मेडिकल मिसोजिनी क्या है
मेडिकल साइंस के क्षेत्र में जेंडर आधारित पूर्वाग्रह के चलते महिलाओं को असमानता का सामना करना पड़ता है। इस क्षेत्र में होनेवाले शोध में महिलाओं और एलजीबीटी+ समुदाय के नज़रिए को शामिल नहीं किया जाता है। सालों से चले आ रहे इस भेदभाव को गहराई से पिरो दिया गया है जिस वजह से हर चरण पर जेंडर को महत्व नहीं दिया जाता है। जेंडर से जुड़े पहलू को शामिल न करना, उनको आगे बढ़ने से रोकना और उन्हें महत्वहीन मानना इस क्षेत्र में स्थापित मेडिकल मिसोजिनी का ही परिणाम है। पुरुष प्रभुत्व और श्रेष्ठता को ही मेडिसिन सेक्टर में महत्व दिया जाता है। यह नींव ग्रीस में रखी गई थी।
तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में, अरस्तू ने महिला के शरीर को एक अधूरे पुरुष शरीर के रूप में वर्णित किया था। टाइम.कॉम में प्रकाशित एक लेख के अनुसार इतिहास में महिलाओं के शरीर को प्राकृतिक रूप से ही अधूरा बताया था। महिलाओं की पुरुषों के शारीरिक अंतर से उनकी अलग पहचान की गई थी और चिकित्सीय रूप से उन्हें दोषपूर्ण और कमी में परिभाषित किया था। इस तरह से मेडिसिन के शुरुआती चरण से ही महिलाओं को पुरुषों से हीन मानने वाली बात को लागू किया गया। इस पूरे इतिहास में सांस्कृतिक रूप से बनाए लैंगिक भेदभाव को और मज़बूत करके आगे बढ़ाया गया। यही वजह है कि मेडिसिन के लंबे इतिहास में हर चरण में महिलाओं को अलग कर दिया जाता गया और यह आज भी चल रहा है।
बरेली में एक निजी कॉलेज की मेडिकल की छात्रा अनामिका का कहना है, “मेडिकल सेक्टर में किस तरह से लैंगिक भेदभाव स्थापित इसे समझने के लिए हमें ज्यादा दूर जाने की ज़रूरत नहीं है। जैसे वर्तमान में हम एक एल्कोहल डिसीज़ और उससे जुड़ी रिसर्च को पढ़ रहे हैं। शुरू में हमने पढ़ा कि दुनिया में बड़ी संख्य़ा में महिलाएं भी एल्कोहल का सेवन करती हैं लेकिन जो भी उदाहरण हमने पढ़े हैं उनमें पुरुषों के अनुभव शामिल हैं। इससे ऐसा लगता है कि जितने भी इस बीमारी को लेकर शोध हुए है वे पुरुषों के अनुभव पर हैं, ट्रायल में केवल पुरुषों को ही शामिल किया गया।”
मरीजों से लेकर डॉक्टर, उनके बीच बातचीत, मेडिकल रिसर्च, मेडिकल की नीतियों और सेवाओं तक लैंगिक पूर्वाग्रह मौजूद है। जिस वजह से महिलाओं और एलजीबीटी+ समुदाय को मेडिकल क्षेत्र में कई परेशानियों का सामना करना पड़ता है जैसे, उनकी पीड़ा को कम महत्व देना, लक्षणों को नज़रअंदाज करना, उनकी चिंताओं को कम करके आंकना जिससे अक्सर गलत उपचार होता है। कार्यस्थल पर उनके साथ भेदभाव और उत्पीड़न, मेडिकल रिसर्च में गैप, क्लीनिकल ट्रायल में नज़रअंदाज आदि है। यही वजह है कि आज भी जेंडर के आधार पर क्लीनिकल ट्रायल में बहुत कम प्रतिनिधित्व होता है।
एक वेबसाइट में प्रकाशित लेख में मिशिगन यूनिवर्सिटी में सेंटर ऑफ बायोएथिक्स एंड सोशल साइंस इन मेडिसिन की डॉयरेक्टर रेशमा जगसी का कहना है कि क्लीनिकल ट्रायल में महिलाओं के कम प्रतिनिधित्व की जड़ें जटिल हैं। यह एक गहरी स्थापित अवधारणा है। आगे वे कहती हैं कि पुरुषों और महिलाओं के बीच महत्वपूर्ण जैविक अंतर हैं जो दवाओं के असर को प्रभावित करता है। महिलाओं के इलाज के लिए बड़े पैमाने पर या विशेषतौर पर पुरुषों के लिए किए गए अध्ययनों से सामान्यीकरण करना अनुचित है और यह बहुत खतरनाक हो सकता है।
बरेली में एक निजी कॉलेज से मेडिकल की छात्रा अनामिका का कहना है, “मेडिकल सेक्टर में किस तरह से लैंगिक भेदभाव स्थापित इसे समझने के लिए हमें ज्यादा दूर जाने की ज़रूरत नहीं है। जैसे वर्तमान में हम एक एल्कोहल डिसीज़ और उससे जुड़ी रिसर्च को पढ़ रहे हैं। शुरू में हमने पढ़ा कि दुनिया में बड़ी संख्य़ा में महिलाएं भी एल्कोहल का सेवन करती हैं लेकिन जब भी उदाहरण हमने पढ़े हैं उनमें पुरुषों के अनुभव शामिल हैं। इससे ऐसा लगता है कि जितने भी इस बीमारी को लेकर शोध हुए हैं वे पुरुषों के अनुभव पर हैं, ट्रायल में केवल पुरुषों को ही शामिल किया गया।”
ब्रिटिश जर्नल ऑफ एनेस्थीसिया मे प्रकाशित एक नये अध्ययन में पाया गया कि महिलाओं का जीवन रक्षक दवाइयां पाने की संभावना कम होती है, जिससे उनकी मृत्यु होने का खतरा बढ़ जाता है। अध्ययन में पाया गया कि ट्रॉमा मरीज़ों में महिलाओं को ट्रानेक्सैमिक एसिड नामक दवाई दी जाने की आधी संभावना थी जो अधिक खून बहने में मौत के जोखिम को कम करती है। अधिक खून बहने या गंभीर चोट और मौत के खतरा होने के बावजूद उनका इलाज पुरुषों की तुलना में कम किया जाता है।
महिलाओं के लिए यह धारणा बनी हुई है कि वे अधिक भावनात्मक होती हैं, उनमें दर्द सहने की संभावना ज्यादा होती है इस तरह के मिथक की वजह से उनके स्वास्थ्य की देखभाल, उनके दर्द पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता है। इस वजह से महिलाओं की देखभाल तक में लाहपरवाही तक होती है और इलाज तक में देरी होती है। साल 2019 में प्रकाशित साइंस डेली के एक रिसर्च के मुताबिक़ महिलाओं को लगातार पुरुषों की तुलना में बाद में उपचार मिलता है। मरीज की देखभाल में भी यह व्यवहार होता है। इसकी एक वजह उनकी लैंगिक पहचान भी है।
मेडिकल मिसोजिनी के ख़िलाफ़ अभियान
मेडिकल सेक्टर में इस तरह के भेदभाव पूर्ण रवैये को लेकर लगातार बातें हो रही हैं। पूर्व से लेकर वर्तमान में भी शोध और अभियान के तहत इस मुद्दे को लगातार उठाने का काम किया जा रहा है जिससे पूर्वाग्रहों को जड़ से खत्म किया जा सके। साल 1960 के बाद से नारीवादी स्वास्थ्य प्रचारकों ने मेडिकल रिसर्च में महिलाओं पर दवाओं के बुरे असर, पूर्वाग्रह और नस्लीय भेदभाव के दमन के ख़िलाफ़ बहुत संघर्ष किया। इसी साल मेडकिल वर्कप्लेस में महिला कर्मचारियों को लेकर भी अभियान शुरू हुआ।
द गार्डियन में प्रकाशित ख़बर के अनुसार ‘सर्वाइविंग इन स्क्रब्स‘ अभियान की शुरूआत हेल्थकेयर प्रोफेशनल में मौजूद मिसोजिनी कल्चर के ख़िलाफ़ शुरू किया गया। इस अभियान की संस्थापक बेकी कोक्स और चेल्सी जेविट का कहना है कि यह अभियान महिला स्वास्थ्यकर्मियों के साथ हुए उत्पीड़न के अनुभव साझा करने के लिए प्रोत्साहित करने और बदलाव लाने के लिए है जिससे सत्ता में लोगों तक पहुंचा जा सके।
ब्रिटिश जर्नल ऑफ एनेस्थीसिया मे प्रकाशित एक नये अध्ययन में पाया गया कि महिलाओं का जीवन रक्षक दवाईयां पाने की संभावना कम होती है, जिससे उनकी मृत्यु होने का खतरा बढ़ जाता है।
स्वास्थ्य के क्षेत्र में बड़े स्तर पर स्थिति मिसोजिनी की वजह से ही आज भी यहां महिला और एलजीबीटी+ समुदाय से आनेवाले पेशेवर कम हैं, ख़ासतौर पर उच्च पदों पर। दुनिया के विकसित देशों से लेकर विकासशील देशों में यह अंतर दिखाई देता है। पेसानो नामक वेबसाइट में प्रकाशित लेख के अनुसार साल 2016 में अमेरिका में 33 प्रतिशत चिकित्सक बने। जिसमें पुरुषों नें 85 प्रतिशत ने डिपार्टमेंट चेयर, 84 प्रतिशत डीन और 82 हॉस्पिटल सीईओ होने के साथ उच्च पदों पर पहुंचे। एक रिसर्च में भी यह बात सामने आई है कि दुनियाभर में हेल्थ सेक्टर में महिलाएं काम कर रही है लेकिन उच्च पदों पर उनका प्रतिनिधित्व बहुत कम है। ठीक इसी तरह भारत में भी भले ही महिलाएं मेडिकल की पढ़ाई ज्यादा पढ़ ले लेकिन प्रैक्टिस बहुत कम कर पाती हैं।
तमाम रिपोर्ट और शोध इस बात की तस्दीक करते हैं कि केवल लैंगिक पहचान की वजह से महिलाओं मरीजों से लेकर डॉक्टर तक को भेदभाव का सामना करना पड़ता है। महिलाओं को लेकर बनाई गई राय उनको सेवा लेने और देने दोंनो के क्षेत्र में आगे बढ़ने से रोकते हैं। मेडिकल साइंस में महिलाओं के साथ होने वाले इस दुर्व्यव्हार को रोकने के लिए हर स्तर पर उनके प्रतिनिधित्व को बढ़ाने से लेकर उनके विचार और राय को महत्व देना बहुत आवश्यक है। जब तक दवाई बनाने से लेकर देने तक में महिलाओं और एलजीबीटी+ समुदाय को बड़े स्तर पर शामिल नहीं किया जाएगा, उन्हें प्रमुखता नहीं दी जाएगी तबतक मेडिकल सेक्टर में मौजूद स्त्रीद्वेष को खत्म नहीं किया जा सकता।