स्वास्थ्यशारीरिक स्वास्थ्य पितृसत्तात्मक सोच और रूढ़िवादी परंपराओं से जुड़े हैं टीनएज प्रेगनेंसी के मामले

पितृसत्तात्मक सोच और रूढ़िवादी परंपराओं से जुड़े हैं टीनएज प्रेगनेंसी के मामले

स्वास्थ्य मंत्रायलय द्वारा प्रकाशित परिवार नियोजन विजन 2030 की रिपोर्ट के अनुसार भारत के कुछ क्षेत्रों में किशोरियों और 18 साल से कम उम्र की बच्चियों में गर्भधारण के मामले काफी तेजी से बढ़ रहे हैं।

भारत के स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा प्रकाशित ‘परिवार नियोजन विजन 2030’ की रिपोर्ट के अनुसार भारत के कुछ क्षेत्रों में 18 साल से कम उम्र की बच्चियों में गर्भधारण के मामले काफी तेजी से बढ़ रहे हैं। भले ही भारत की प्रजनन दर स्थिर होती दिखाई देती है पर सरकार के सामने टीनएज प्रेगनेंसी एक बड़ी चुनौती बनकर उभरी है। इस रिपोर्ट के मुताबिक सबसे ज़्यादा किशोर गर्भावस्था के मामले बिहार, बंगाल, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, त्रिपुरा, झारखंड जैसे राज्यों में पाए गए हैं।

टीनएज प्रेगनेंसी के मुख्य कारणों में बाल विवाह, यौन शिक्षा की कमी, यौन स्वास्थ्य और प्रजनन की प्रक्रिया के बारे में अधिक जानकारी न होना, छोटी उम्र में ही शादी करने का दबाव, यौन हिंसा, गर्भनिरोधक दवाओं का आसानी से उपलब्ध न हो पाना, शिक्षा की कमी या पढ़ाई पूरी न हो पाना, औरतों को केवल बच्चे पैदा करने की मशीन की तरह इस्तेमाल किया जाना आदि शामिल हैं।

बाल विवाह है एक मुख्य कारण

किशोरावस्था में गर्भावस्था के सबसे बड़े कारणों में से एक बाल विवाह है। हमारे समाज में लड़कियों को एक बोझ की तरह देखा जाता है। हमारे पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं को दहेज़ के स्रोत के रूप में देखे जाने जैसी कुप्रथाएं बाल विवाह को बढ़ावा देती हैं। अक्सर माँ-बाप लड़कियों की जल्दी शादी इसलिए कर देते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि बड़ी उम्र में शादी करने पर उन्हें अधिक दहेज देना पड़ेगा। जबकि हमारे कानून के अनुसार किसी भी लड़की की शादी 18 साल की उम्र से पहले नहीं की जा सकती। 

इस साल संसद में लड़कियों की शादी की उम्र 18 से बढ़ाकर 21 साल करने से जुड़ा बिल पेश किया गया। लेकिन भारत की ज़मीनी हकीकत कुछ और है। वेबसाइट ORF में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक संयुक्त राष्ट्र के आंकड़े बताते हैं कि भारत के 44% से अधिक ज़िलों में 18 वर्ष की आयु से पहले लड़कियों की शादी कर देना एक बहुत आम बात है। बाल विवाह के मामले में सबसे ऊपर बिहार, पश्चिम बंगाल, झारखंड, असम जैसे राज्य आते हैं। इसके बाद उत्तरप्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र आते हैं। छोटी उम्र में शादी के बाद ये किशोरियां गर्भधारण भी कर लेती हैं।  NFHS-4 के आंकड़े कहते हैं कि साल 1992-93 के दौरान 54.2 फीसद लड़कियों की शादी 18 साल से पहले कर दी गई।

और पढ़ें: छोटी उम्र में शादी यानी महिलाओं के यौन और प्रजनन स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव

टीनएज प्रेगनेंसी के मुख्य कारणों में बाल विवाह, यौन शिक्षा की कमी, यौन स्वास्थ्य और प्रजनन की प्रक्रिया के बारे में अधिक जानकारी न होना, छोटी उम्र में ही शादी करने का दबाव, यौन हिंसा, गर्भनिरोधक दवाओं का आसानी से उपलब्ध न हो पाना, शिक्षा की कमी या पढ़ाई पूरी न हो पाना, औरतों को केवल बच्चे पैदा करने की मशीन की तरह से इस्तेमाल किया जाना आदि शामिल हैं।

महिलाओं का अपने शरीर पर कोई अधिकार न होना

भारत में परिवार नियोजन कार्यक्रम में पुरुषों की भागीदारी काफी कम है। गर्भनिरोधक दवाएं और अन्य उपकरणों के बारे में ग्रामीण इलाकों में जागरूकता की भी बेहद कमी है। बात जब गर्भनिरोधक की आती है तो इसे भी हमारा समाज महिलाओं की ही ज़िम्मेदारी मानता है। गर्भनिरोधक इस्तेमाल न करने का मुख्य कारण भारतीय पितृसत्तात्मक समाज की यह मान्यता है कि महिलाएं कभी आनंद के लिए सेक्स नहीं कर सकतीं। वे सेक्स सिर्फ बच्चा पैदा करने के लिए ही करती हैं। सेक्स का आनंद केवल पुरुषों के लिए बना है अगर कोई महिला उसकी चाह रखती है तो वह ‘बदचलन’ औरत है।

बात जब गर्भनिरोधक साधनों के उपयोग की आती है तो यह पूरी तरह से पुरुषों पर पर निर्भर करता है वह बच्चा चाहता है कि नहीं। पितृसत्तात्मक समाज के अनुसार बच्चे करने या न करने का फैसला ज्यादातर पुरुषों पर निर्भर करता है। इस वजह से ज्यादातर महिलाएं बच्चे चाहती हैं या नहीं इसके बारे में न सोचती हैं और न वो कोई ठोस फैसला ले पाती हैं। औरतों का अपने ही शरीर से जुड़े इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर कोई अधिकार नहीं होता है। छोटी उम्र में माँ बननेवाली लड़कियों के लिए ये फैसले लेना और भी कठिन हो जाता है। गैर-सरकारी संगठन पॉपुलेशन काउंसिल द्वारा की गई एक स्टडी बताती है कि सर्वे में शामिल 18 साल से 22 साल की 50 फीसद लड़कियां अपनी पहली गर्भवास्था टालना चाहती थी यानी वे अपनी गर्भावस्था के समय से खुश नहीं थी। लेकिन उनके पास गर्भनिरोधक इस्तेमाल करनी की कोई सुविधा मौजूद नहीं थी। 

सेक्स एजुकेशन की कमी

हाल ही में केरल हाई कोर्ट ने एक मामला सामने आया जिसमें एक नाबालिग लड़की जो 30 सप्ताह की गर्भवती थी उसे कोर्ट ने नैतिकता के आधार पर अबॉर्शन करवाने की इजाज़त दी। कोर्ट का कहना था कि इतनी छोटी सी उम्र में माँ बनने से बच्ची के मानसिक और शारीरक स्वास्थ्य पर असर पड़ेगा। यह बच्ची नाबालिग होने के साथ-साथ बलात्कार की सर्वाइवर भी थी। केरल हाई कोर्ट ने इस मामले पर सुनवाई करते हुए कहा कि लोगों के पास पोर्नोग्राफिक कंटेंट का बहुत आसानी से उपलब्ध हो जाता है जिसके कारण बलात्कार के मामलों में काफी बढ़ोतरी हुई है। इस फैसले की एक और अहम बात यह थी कि कोर्ट ने स्कूलों में सेक्स एजुकेशन दिए जाने पर भी ज़ोर देते हुए कहा कि यह समय है कि अधिकारी हमारे स्कूलों में दी जा रही यौन शिक्षा पर फिर से विचार करें। इंटरनेट पर पोर्नोग्राफी की आसान उपलब्धता युवाओं के किशोर दिमाग को गुमराह कर सकती है और उन्हें गलत जानकारी दे सकती है। राज्य की शैक्षिक मशीनरी यौन संबंधों के परिणाम के बारे में छोटे बच्चों को ज़रूरी जानकारी देने में पीछे रह गई है।

लेकिन हमारा देश सेक्स एजुकेशन को लेकर आज भी रूढ़िवादी सोच से ग्रसित है। भारतीय माता-पिता कभी भी इन विषयों पर बात नहीं करते। उन्हें लगता है सेक्स केवल शादी के बाद ही किया जाना चाहिए अगर वे इन विषयों पर बात कर लेंगे तो उनके बच्चे शादी से पहले सेक्स कर लेंगे फिर उनसे कोई शादी नहीं करेगा और लड़कियां अगर शादी से पहले सेक्स कर ले तो उनकी ‘पवित्रता’ चली जाती है।

करीब एक दशक से भी अदिक समय इस बात को गुज़र चुका है जब महाराष्ट्र में स्कूल के पाठ्यक्रम में यौन शिक्षा से जुड़े मुद्दों का अध्ययन करने के लिए राज्य में यौन शिक्षा शुरू करने की ज़रूरत का हवाला देते हुए एक प्रस्ताव पारित किया था। तब बहुत सारे बच्चों के अभिभावकों ने धरना-प्रदर्शन किया था क्योंकि उनके अनुसार यौन शिक्षा युवाओं को भ्रष्ट कर देगी। उनके बच्चे अभी इस शिक्षा के लिए तैयार नहीं है। यह पारंपरिक भारतीय मूल्यों को ख़त्म कर देगी और समाज भ्रष्ट हो जाएगा और इससे समाज में गैर-ज़िम्मेदार व्यवहार को बढ़ावा मिलेगा। यौन शिक्षा एक पश्चिमी सभ्यता है जिसे भारत पर थोपा जा रहा है। आखिरकार इस प्रस्ताव को आगे नहीं बढ़ाया गया।

और पढ़ें: जानें, यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य पर महिलाओं का जागरूक होना क्यों है बेहद ज़रूरी

शिक्षा भी टीनएज प्रेगनेंसी को रोकने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। प्लान इंटरनैशनल की रिपोर्ट के अनुसार उच्च शिक्षा प्राप्त लड़कियों की तुलना में जिन लड़कियों ने सबसे न्यूनतम शिक्षा प्राप्त की उनके किशोरावस्था में गर्भधारण करने की पांच गुना अधिक संभावना होती है। भारत के स्कूलों के पाठ्यक्रम में शामिल सेक्स एजुकेशन का दायरा बेहद सीमित है। यह यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य से जुड़े अहम मुद्दों पर बात करती नज़र नहीं आती। इसे लेकर एक चुप्पी और शर्म का माहौल हमारे स्कूलों में देखने को मिलता है।

किशोरावस्था में गर्भधारण का प्रभाव

15-19 वर्ष की आयु की लड़कियों की मौत के पीछे किशोरावस्था में गर्भधारण और बच्चे के जन्म के दौरान होनेवाली समस्याएं एक बड़ी वजह है। ज्यादातर लड़कियां जो किशोरावस्था में जन्म देती हैं वे शारीरिक रूप से बहुत कमजोर हो जाती हैं और आगे चलकर उन्हें एनीमिया का भी सामना करना पड़ता है। ज्यादातर टीनएज प्रेगनेंसी अनप्लान्ड होती हैं। ऐसी प्रेगनेंसी असुरक्षित अबॉर्शन की संभावनाओं को भी बढ़ाती है। किशोरावस्था में गर्भधारण की वजह से मातृ कुपोषण की संभावना बढ़ जाती है जिससे की बच्चें भी कुपोषित पैदा होते हैं। सही पोषण न मिलने के कारण वे शारीरिक और मानसिक रूप से विकसित नहीं हो पाते। आंकड़े भी बताते हैं कि भारत में बच्चों के कुपोषण का सीधा संबंध टीनएज प्रेगनेंसी से है।

और पढ़ें: महिलाओं का ‘प्रजनन अधिकार’ भी उनका ‘मानवाधिकार’ है


तस्वीर साभार: India CSR Network

Comments:

  1. Shishupal says:

    Well written

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