समाजकानून और नीति पितृसत्तात्मक मानसिकता और भारतीय समाज के विकास में महिला आयोगों की भूमिका 

पितृसत्तात्मक मानसिकता और भारतीय समाज के विकास में महिला आयोगों की भूमिका 

अब सवाल यह उठता है कि जब केंद्र और राज्य दोनों स्तर पर यह आयोग काम कर रहा है फिर भी, क्या वजह है कि भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति में हर स्तर पर अपेक्षित सुधार नहीं हो पा रहा है? इसे इस प्रकार समझा जा सकता है कि शायद ज़मीनी स्तर पर इसे पूर्ण तौर पर व्यवहार में लाने में कहीं न कहीं कमी रह जा रही है।

दुनियाभर में महिलाओं की स्थिति लगभग एक प्रकार की ही है। अज्ञानता, रूढ़िवादिता और तमाम तरह के प्रतिबंधों की वजह से महिलाएं प्रजनन और घरेलू-हिंसा जैसे मुद्दों से लगातार जूझ रही हैं। इसका सबसे ज्यादा असर उनके स्वास्थ्य पर पड़ता है। इसके अलावा अन्य तरह की हिंसा जैसे, बलात्कार,यौन-शोषण, तस्करी आदि ऐसे कई मुद्दे हैं जिससे लड़कियां और औरतें लगातार अलग-अलग तरह से प्रभावित हो रही हैं। इस सबके पीछे गरीबी और पुरुष वर्चस्ववादी मानसिकता को जिम्मेदार माना जा सकता है। ऐसे तो राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लगातार इन स्थिति से निबटने और रास्ता तलाशने के उद्देश्य से विभिन्न आयोगों को भी गठित किया गया लेकिन, अबतक इन स्थितियों में बहुत अंतर नहीं देखने को मिल रहा है। 

साल 1974 में महिलाओं के स्थिति का आंकलन कर ‘टूवड्स इक्वॉलिटी’ नामक रिपोर्ट भी पारित किया गया जिसमें महिलाओं के साथ हो रहे भेदभाव के केटोगरी पर विस्तार से बात की गई। साल 1975 में विश्वभर की महिलाओं को सम्मान प्रदान करने हेतु इस वर्ष को ‘विश्व महिला वर्ष’ घोषित किया गया। लेकिन दुर्भाग्य की ही बात है कि आज इतने वर्षों बाद भी हमारे समाज की हालत बहुत नहीं सुधरी है जबकि, रोज नये-नये कानून बन रहे हैं और पूराने में संशोधन किए जा रहे हैं।

महिलाएं चाहे ग्रामीण क्षेत्र की हों या शहरी क्षेत्र की वह आज भी पूर्ण तौर पर अपने मानवाधिकारों का उपयोग नहीं कर पा रही हैं और न ही देश की सामाजिक और आर्थिक प्रगति में अपना पूर्ण सहयोग ही दे पा रही हैं । वर्तमान में विश्व में केवल 5 देश ही ऐसे हैं जहां की महिलाएं संसद की 30 फीसदी सीटों पर मौजूद हैं जबकि, लगभग 36 देशों में सिर्फ 5 फीसदी से भी कम संसदीय पद महिलाओं के पास हैं। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम द्वारा तैयार की गई 10वीं वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार आज भी विश्व में सबसे बड़ा भेदभाव ‘लैंगिक भेदभाव’ ही है। 

भारत में महिलाओं के संवैधानिक और कानूनी सुरक्षा प्रदान करने के उद्देश्य से साल 1992 में ‘राष्ट्रीय महिला आयोग’ की स्थापना की गई। साथ ही ग्रामीण महिलाओं के कल्याण के लिए भी हर राज्य में महिला आयोग की शाखा गठित की गई। यह आयोग एक संवैधानिक संस्था है और महिलाओं के अधिकारों के प्रति सजग भी है । मुख्य तौर पर यह लड़कियों की शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर कार्यक्रम भी आयोजित करता रहता है। इसके अलावा यह संस्था महिलाओं से संबंधित मौजूदा क़ानूनों की जांच करना और जहां आवश्यक हो ‘संशोधन के लिए सुझाव देना’, महिलाओं के अधिकारों की संरचना संबंधी मामलों के संबंध में किए गए शिकायतों की जांच करना जैसे, महत्वपूर्ण मुद्दों पर सक्रियता से कार्य करती है।

सवाल यह उठता है कि अगर इस तरह का बयान महिला आयोग के सदस्यों द्वारा ही दिया जाएगा जिन्हें महिलाओं के अधिकार की रक्षा करने की ज़िम्मेदारी दी गई है तो फिर, उन लोगों को तो और भी बढ़ावा मिलेगा जो कि लगातार लैंगिक असमानता बनाए रखने के पक्षधर हैं। 

अब सवाल यह उठता है कि जब केंद्र और राज्य दोनों स्तर पर यह आयोग काम कर रहा है फिर भी, क्या वजह है कि भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति में हर स्तर पर अपेक्षित सुधार नहीं हो पा रहा है? इसे इस प्रकार समझा जा सकता है कि शायद ज़मीनी स्तर पर इसे पूर्ण तौर पर व्यवहार में लाने में कहीं न कहीं कमी रह जा रही है। यह कमी क्यों है अगर इसका विश्लेषण किया जाए तो शायद यह परिणाम निकलकर आए। पितृसत्तात्मक मानसिकता की पीड़ित महिलाएं भी होती हैं। वे बचपन से ही एक खास तरह की ढांचे में ढाल दी जाती हैं। वे इस ‘तयशुदा पितृसत्तात्मक ढांचे’ से बाहर आने से पहले दस बार सोचती हैं। अगर अपने स्तर पर बाहर आने का मन बना भी लेती हैं तो उन्हें परिवार, समाज आदि के बंधन तमाम तरह की दुहाइयां देकर बाहर आने नहीं देते। यही वजह रही है कि बीच-बीच में अलग-अलग राज्यों के महिला-आयोग से जुड़े सदस्य अपने बयान की वजह से सुर्खियों में भी रहे हैं।

एक समाजविज्ञानी होने के नाते अगर इन स्थितियों की समीक्षा की जाए तो कहा जा सकता है कि आयोग के सदस्य चूंकि इसी पितृसत्तात्मक समाज का हिस्सा हैं इसलिए कई बार बहुत सोच-समझकर उन्हें चुने जाने के बाद भी उनके अंदर की रूढ़िवादिता को पूरी तरह से खत्म करना असंभव सा हो जाता है। यह रूढ़िवादी सोच कभी-कभी किसी विशेष अवसर पर उनके द्वारा बाहर आ जाता है । उदाहरण के तौर पर, कुछ बयानों को लिया जा सकता है जो कि महिला-अधिकार से संबंधित महत्वपूर्ण पदों पर पदस्थ महिलाओं द्वारा समय-समय पर दिया गया है। जैसे, “लड़कियां मोबाईल का उपयोग लड़कों से बात करने के लिए ही करती हैं और फिर रास्ता भटक जाती/भाग जाती है, “सहमती से लड़कियां यौन-संबंध बनाती है और फिर करती हैं रेप का केस”, “अगर भड़काऊ और छोटे कपड़े पहनेगी तो बलात्कार तो होगा ही।” अब सवाल यह उठता है कि अगर इस तरह का बयान महिला आयोग के सदस्यों द्वारा ही दिया जाएगा जिन्हें महिलाओं के अधिकार की रक्षा करने की ज़िम्मेदारी दी गई है तो फिर, उन लोगों को तो और भी बढ़ावा मिलेगा जो कि लगातार लैंगिक असमानता बनाए रखने के पक्षधर हैं। 

पितृसत्तात्मक मानसिकता की पीड़ित महिलाएं भी होती हैं। वे बचपन से ही एक खास तरह की ढांचे में ढाल दी जाती हैं। वे इस ‘तयशुदा पितृसत्तात्मक ढांचे’ से बाहर आने से पहले दस बार सोचती हैं।

वर्तमान में जब पढ़ाई से लेकर नौकरी जैसे अधिकांश काम ऑनलाईन हो रहे हैं तो लड़कियां ही क्यों मोबाईल का गलत इस्तेमाल कर रहीं हैं ये काम तो लड़के भी कर रहे होंगे? कोई भी लड़की अगर विवाह से पहले संबंध बनाती है या नहीं ये उनका निजी मसला है। जहां तक रेप का केस करने का मामला है तो यह बात अलग है कि रेप तो शादी के बाद भी होते हैं पर अभी उसे अपराध की श्रेणी में रखने पर लोग एकमत नहीं हैं। इसलिए वैवाहिक-बलात्कार का मुद्दा उभर ही नहीं पाता है। इस तरह के केस दर्ज होने पर उसे रूढ़िवादी लोग इस तरह से व्याख्यायित कर देते हैं कि पहले सहमति से संबंध बनाते और फिर केस करते हैं। पारंपरिक विवाह सबंध में तो सबंध बनाते समय सहमति/असहमति का प्रश्न ही नहीं उठता है। रही बात भड़काऊ और छोटे कपड़े पहनने की तो सवाल यह भी उठता है कि ग्रामीण क्षेत्रों मे कौन से छोटे कपड़े पहनने का चलन है या छोटी-छोटी बच्चियाँ ऐसा क्या करती हैं जो उनका बलात्कार होता है? यहां यही बात स्थापित होती है कि चाहे कितना भी कानून बना दिया जाए या संशोधन कर दिया जाए जब तक मानसिकता में बदलाव नहीं होगा तबतक वास्तविक रूप में महिलाओं को हर स्तर पर समानता नहीं मिल पाएगी।

अभी हाल ही में बिहार में ही एक आईएएस स्तर की महिला, महिलाओं से जुड़े ही किसी कार्यक्रम में भाग लेने के दौरान सवाल-जवाब वाले सत्र में कुछ ऐसी बात बोल गई जो कि विस्मित कर देनेवाली थी। उनका बयान था, “आज सेनेटरी नैपकिन की मांग कर कर हो कल मुफ्त में कंडोम की भी मांग करोगी? तुमलोग को हर चीज मुफ्त में ही चाहिए?” एक महिला द्वारा किसी महिला को इस तरह के जवाब की उम्मीद नहीं की जाने की वजह से यह मामला बहुत वायरल हुआ। बाद में इस आला अफसर ने अपनी सफाई में कहा कि उनके कहने का अर्थ यह था कि आत्मनिर्भर बनो।

यहां यही बात स्थापित होती है कि चाहे कितना भी कानून बना दिया जाए या संशोधन कर दिया जाए जब तक मानसिकता में बदलाव नहीं होगा तबतक वास्तविक रूप में महिलाओं को हर स्तर पर समानता नहीं मिल पाएगी।

अब सवाल यह भी उठता है कि इस तरह के मामले में महिला-आयोग ने क्या हस्तक्षेप किया? आए दिन इस तरह के मामले आते हैं और महिला-आयोग भी अपनी आधिकारिक प्रक्रिया को पूरी कर देती है लेकिन, वास्तव में जमीनी स्तर पर क्या बदलाव आ रहें हैं इससे वो भी अनभिज्ञ ही रहती हैं। सोचने वाली बात यह है कि, जब किसी महत्वपूर्ण पद पर पदस्थ महिला ही महिलाओं की मांग या जरूरत को इस तरह पितृसत्तात्मक सोच के आधार पर व्याख्यायित करने लगेगी तो फिर समाज का वास्तविक विकास कैसे होगा?


Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content