इतिहास 55 सालों तक अपनी सल्तनत चलानेवाली बेग़म समरू| #IndianWomenInHistory

55 सालों तक अपनी सल्तनत चलानेवाली बेग़म समरू| #IndianWomenInHistory

उस दौर में बेग़म समरू एक ऐसा नाम हैं जो हमारे इतिहास में अपनी बहादुरी के किस्से छोड़ गईं। बेग़म समरू दिल्ली के चांदनी चौक की तवायफ़ से सल्तनत की जागीरदार बनीं और अपनी सत्ता को बखूबी चलाया।

भारत अनेक राजाओं और रानियों के किस्से से भरा पड़ा है, उन्हीं में से एक थीं बेग़म समरू। चांदनी चौक की बेग़म समरू की कहानी बहुत ही हैरतअंगेज़ और प्रेरित करनेवाली मालूम पड़ती है। बात है उस दौर की है जब महिलाओं का कोई वर्चस्व नहीं हुआ करता था, लड़कियां घरों के अंदर होती थीं, उनका जीवन उसी चार दीवारों में कैद था। पर्दा प्रथा का बोलबाला था। लड़कियों के लिए कोई शिक्षा व्यवस्था नहीं थी। उस दौर में बेग़म समरू एक ऐसा नाम हैं जो हमारे इतिहास में अपनी बहादुरी के किस्से छोड़ गईं। बेग़म समरू दिल्ली के चांदनी चौक की तवायफ़ से सल्तनत की जागीरदार बनीं और अपनी सत्ता को बखूबी चलाया। अपनी कूटनीति की कला से न सिर्फ़ मुग़लों बल्कि अंग्रेज़ों को भी काफी कुछ सिखाया।

साल 1753 में एक कुलीन परिवार में जन्मी बच्ची का नाम फरज़ाना था। उनके पिता का नाम असद अली खां था और माँ एक कश्मीरी महिला थीं। जब फरज़ाना 10 वर्ष की थी उसी समय उनके पिता का इंतकाल हो गया। घरेलू समस्याओं से परेशान होकर फरजाना की मां उन्हें लेकर दिल्ली चली गईंं और वही अपना गुजर-बसर करने लगीं। लेकिन फरज़ाना की मां भी ज्यादा समय तक उनका साथ नहीं निभा पाई और बचपन में ही उन्हें अकेला छोड़ गई। इतिहासकारों की मानें तो चावड़ी बाजार की मशहूर नर्तकी खानम खां की पालकी जा रही थी और जब उन्होने एक छोटी सी बच्ची को रोते हुए देखा तो उसे अपने साथ ले आई और उसे नाचने-गाने का प्रशिक्षण देने लगीं।

हुकुमत की शुरुआत हुई। एक मर्द की जगह औरत ने ली। एक ऐसी औरत जिनमें दोंनो खूबियां थीं। लड़ने में निडर और बरताव में ऊंची। बेग़म अपने लोगों के प्रति रहम दिल और दुश्मनों के लिए किसी चुनौती से कम नहीं थीं। उनकी सफलता से घबराकर लोग कहने लगें कि वह जादू-टोना करना जानती हैं।

बात है साल 1767 की जब फरजाना दिल्ली के चावड़ी बाज़ार की एक मशहूर तवायफ़ बन चुकी थीं। यहां कई सैनिक मनोरंजन के लिए आया करते थे। इन्हीं में से एक सिपाही था वाल्टर रेनहाल्ड जो मुगलों की ओर से अंग्रेज़ों से लड़ रहा था। वाल्टर ने फरज़ाना के सामने शादी का प्रस्ताव रखा और उसका प्रस्ताव स्वीकार कर वह चांदनी चौक छोड़कर वाल्टर के साथ चली गईं। फरज़ाना का यह सफर उनके जीवन के अनंत काल के लिए था। दोंनो लखनऊ, आगरा, भरतपुर होते हुए सरधना (मेरठ) पहुंच गए।

तस्वीर साभार: National Geography

फरजाना को वाल्टर का साथ पसंद आया इसलिए वाल्टर जहां-जहां जाया करते थे वह उनके साथ जाया करतीं। वह लड़ाइयों में हिस्सा भी लेने लगी। वाल्टर एक महत्वाकांक्षी व्यक्ति थे। वह अलग-अलग जागीदारों की तरफ से लड़ाइयां लड़ा करता था। इस दौरान मुगल बादशाह शाह आलम के कहने पर वाल्टर ने सहारनपुर के जाबिता खां को शिकस्त दी। इससे खुश होकर शाह आलम ने एक बड़ी जागीर वाल्टर को भेंट स्वरूप दिया और वे वहीं बस गए। साल 1778 में फरजाना के जीवन में नया मोड़ आता है जब वाल्टर की मृत्यु हो जाती है। वाल्टर की मृत्यु के बाद फरजाना को शाह आलम और उनके चार हजार सैनिकों की सहमति से सरधना का जागीरदार बना दिया गया और अब फरज़ाना, ‘बेग़म समरू’ के नाम से जानी जाने लगती हैं।

हुकुमत की शुरुआत हुई। एक मर्द की जगह औरत ने ली। एक ऐसी औरत जिनमें दोंनो खूबियां थीं। लड़ने में निडर और बरताव में ऊंची। बेग़म अपने लोगों के प्रति रहम दिल और दुश्मनों के लिए किसी चुनौती से कम नहीं थीं। उनकी सफलता से घबराकर लोग कहने लगें कि वह जादू-टोना करना जानती हैं। इसके बाद शुरू होता है फरजाना यानी बेग़म समरू का इतिहास। फ़रजाना को सरधना की जागीर का नियंत्रण दे दिया गया था। तीन साल बाद सन् 1781 में फ़रजाना ने आगरा के रोमन कैथोलिक चर्च में ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया। वह अब ‘जोहाना नोबलिस’ के नाम से जानी जाने लगीं। आगे चलकर बेग़म समरू ने बहुत कूटनीतिक ढंग से मुगलों का साथ दिया जिससे आगे आनेवाले समय में उन्हें ज़रूरत पड़ने पर उनका साथ मिले। वह अपने सैनिकों को हर वक्त तैयार रखती थीं कि उन्हें कभी भी युद्ध के मैदान में भेजा जा सकता है।

साल 1778 में फरजाना के जीवन में नया मोड़ आता है जब वाल्टर की मृत्यु हो जाती है। वाल्टर की मृत्यु के बाद फरजाना को शाह आलम और उनके चार हजार सैनिकों की सहमति से सरधना का जागीरदार बना दिया गया और अब फरजाना, बेग़म समरू के नाम से जानी जाने लगती हैं।

लड़ाई के मैदान से कूटनीति के अखाड़े तक बेग़म समरू की तूती बोलती थी और हालात के ख़िलाफ़ होने के बावजूद वह 1837 में अपनी मौत होने तक सरधना की जागीर पर बनी रहीं। साल 1822 में बेग़म समरू ने अपने पति की याद में सरधना में विशाल कैथोलिक गिरिजाघर का निर्माण करवाया था। उस समय का बना गिरिजाघर आज उत्तर भारत के सबसे विशाल गिरिजाघरों में से एक है। दिलचस्प बात यह है कि बेग़म समरू जिस महल में रहा करती थी अब वह एक शिक्षण संस्थान के तौर पर प्रयोग मे लाया जा रहा है। इसके साथ-साथ उन्होंने चांदनी चौक और हरियाणा में भी कुछ महलों का निर्माण करवाया। बेग़म समरू उस दौर में कूटनीति की एक अहम मिसाल बनकर उभरीं जिनके बारे में इतिहास में चर्चा बेहद कम की गई।


संदर्भ:

1-Google Arts and Culture
2-National Geography

Comments:

  1. Nishi Raj Verma says:

    ऐसे नारियों को ही नहीं बल्कि ऐसे सभी व्यक्तित्वों जो बहुत खास है पर आम बनकर रह गए हैं, के बारे में लिखने वाले बहुत कम लोग ही हैं, पढ़ कर बहुत ही अच्छा लगा🙏🥇

  2. Supriya Tripathi says:

    महिलाओंं के महत्वपूर्ण कर्तव्यों को आप ऐसे ही रेखांकित करते रहिए 💫👏🤘

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