पश्चिमी उत्तर प्रदेश की रहनेवाली आरती इस साल साइंस स्ट्रीम में अपनी ग्रेजुएशन की डिग्री पूरी करने वाली है। वह मास्टर्स करना चाहती है, रिसर्च फील्ड में जाना चाहती है लेकिन उसके घरवालों ने तय कर दिया है कि वह आगे केवल बीएड करेगी। विज्ञान में आगे पढ़ाई करने का उसका सपना यहीं खत्म हो जाएगा। भले ही हम हर साल बोर्ड परीक्षा के रिजल्ट जारी होने पर सुर्खियों में देखते हैं कि लड़कियों ने मारी बाज़ी। कहने का मतलब है कि बोर्ड की सालाना परीक्षा में लड़कों की तुलना में लड़कियां ज्यादा सफल हो रही हैं। स्कूल और कॉलेज स्तर पर उनकी संख्या पहले के मुकाबले बहुत बढ़ गई है। स्नातक से उच्च शिक्षा तक के क्षेत्र में लड़कियों का नामांकन भी बढ़ा है। लेकिन जब शिक्षा में विज्ञान एवं तकनीक विषय की बात आती है तो यहां लड़कियां पीछे नज़र आती हैं। हायर एजुकेशन और रिसर्च में बहुत ही कम लड़कियां देखने को मिलती हैं। इसी कमी की वजह से नौकरियों में तो और भी कम लड़कियां दिखती हैं।
जब-जब बच्चे की भविष्य की बात होती है तो लोग कहते नज़र आते हैं कि साइंस स्ट्रीम से पढ़ाई करना ही सबसे बेहतर होगा। इंजीनियरिंग या मेडिकल की पढ़ाई से नौकरी का भविष्य उज्ज्वल है। लैंगिक भेदभाव के चलते पढ़ाई को भी लैंगिक आधार पर बांट कर लड़कियों के कदम गणित या विज्ञान में पढ़ाई से पीछे खींच लिए जाते हैं। एक तरफ तो यह पूर्वाग्रह है कि लड़कियां गणित-विज्ञान में कमजोर होती हैं, दूसरा विज्ञान और तकनीकी पढ़ाई में ज्यादा पैसे की ज़रूरत पड़ती है और लड़कियों की पढ़ाई पर ज्यादा खर्च करना आज भी सही नहीं माना जाता है।
समय के साथ बदलाव और संस्थानों के ज्यादा विकल्प होने के साथ लड़कियां विज्ञान क्षेत्र की पढ़ाई में धीरे-धीरे आगे बढ़ रही हैं। ग्रेजुएशन लेवल पर बैचलर ऑफ साइंस में डिग्री हासिल करनेवाले कुल विद्यार्थियों में से अब आधी संख्या लड़कियों की है। लेकिन उच्च शिक्षा, तकनीक और शोध में विज्ञान चुननेवाली लड़कियों की संख्या स्नातक के बाद उस तरह से आगे नहीं बढ़ती दिखती हैं। हाल ही में जारी उच्च शिक्षा पर अखिल भारतीय सर्वेक्षण 2020-21 में भी यही बात सामने निकलकर आती है। ताजा सर्वेक्षण के आंकड़े के अनुसार भारत में विज्ञान विषय में स्नातक करने वाली लड़कियों की दर 52.2 प्रतिशत है। सर्वेक्षण के अनुसार बीटेक में 23.20 लाख छात्रों के नामाकंन में से 28.7 फीसदी महिलाएं हैं। बैचलर ऑफ इंजीनियरिंग (बी.ई.) में 13.42 लाख विद्यार्थियों में से 28.5 प्रतिशत लड़कियां हैं।
STEM फील्ड में पिछड़ती लड़कियां
इंजीनियरिंग और टेक्नोलॉजी चौथा प्रमुख स्ट्रीम है जिसमें कुल 36.86 लाख छात्रों का नामांकन है। इसमें से 71 प्रतिशत लड़के हैं। एसटीईएम स्ट्रीम में जिसमें विज्ञान के अलावा इंजीनियरिंग, टेक्नोलॉजी और गणित में ग्रेजुएशन, पोस्ट ग्रेजुएशन, एम.फिल और पीएचडी में कुल 94,69,022 नामांकन हुए हैं। एसटीईएम में लड़कियों का नामाकंन कम है। इसमें 56.8 फीसदी लड़के हैं और 43.2 फीसदी लड़कियां हैं। इंजीनियरिंग और टेक्नोलाजी में कुल मिलाकर यूजी, पीजी और पीएचडी में 71 फीसदी लड़के हैं और केवल 29 फीसदी लड़कियों का नामांकन है। उच्च शिक्षा में भी सिविल इंजीनियरिंग में 71.8 प्रतिशत लड़कों का नामांकन हैं और कम्प्यूटर इंजीनियरिंग में 48 प्रतिशत लड़कों की हिस्सेदारी है।
लैंगिक भेदभाव के चलते पढ़ाई को भी लैंगिक आधार पर बांट कर लड़कियों के कदम गणित या विज्ञान में पढ़ाई से पीछे खींच लिए जाते हैं। एक तरफ तो यह पूर्वाग्रह है कि लड़कियां गणित-विज्ञान में कमजोर होती हैं, दूसरा विज्ञान और तकनीकी पढ़ाई में ज्यादा पैसे की ज़रूरत पड़ती है और लड़कियों की पढ़ाई पर ज्यादा खर्च करना आज भी सही नहीं माना जाता है।
ग्रेजुएशन, पोस्ट ग्रेजुएशन के अलावा विज्ञान विषय में हर स्तर के डिग्रियों में लड़कियां कुल नामाकंन 53.1 प्रतिशत है। अंडर ग्रेजुएट में 52 फीसदी छात्राएं हैं। पोस्ट ग्रेजुएट में केमेस्ट्री में 52.3 प्रतिशत लड़कियों का नामाकंन हुआ है। इतना ही नहीं गणित में भी कुल नामाकंन का 60 फीसदी हिस्सेदारी लड़कियों की है। विज्ञान विषय में पीएचडी करने वाले वाले 48,600 विद्यार्थियों में से 48.8 फीसदी महिलाएं हैं। आंकड़ों के अनुसार विज्ञान विषय की पढ़ाई में लड़कियां बढ़ रही हैं। स्नातक और परास्नातक की डिग्री हासिल कर रही है। इसी क्षेत्र में तकनीक और इंजीनियरिंग की बात आती है तो वहां उनकी मौजूदगी अभी भी कम है। इंजीनियरिंग की कुछ स्ट्रीम्स में तो पूरी तरह पुरुषों का प्रभुत्व बना हुआ है।
क्या कहना है छात्राओं का
कम्प्यूटर साइंस में बैचलर स्तर की पढ़ाई करनेवाली आरती पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक गांव से ताल्लुक रखती हैं। वह रोज पंद्रह किलोमीटर दूर का सफर तय कर कॉलेज जाती हैं। विज्ञान की पढ़ाई करनेवाली आरती अपने परिवार की पहली लड़की हैं। आरती का कहना है, “इस साल मेरा फाइनल ईयर है। पता नहीं क्या होगा? आगे मास्टर्स में एडमिशन लेना मेरा मुश्किल है। दरअसल मेरे घरवाले चाहते हैं कि मैं बीएड करूं। मैं और मेरी चचेरी बहन दोनों कॉलेज में पढ़ते हैं। वह आर्ट स्ट्रीम से है। उसके मुकाबले मेरी क्लासेज़ और लैब ज्यादा होती हैं। अक्सर वह मुझसे पहले घर जाती है लेकिन घर के बड़ों को यह बात समझ नहीं आती है। उनके अनुसार दोनों साथ ही तो पढ़ती हैं। एक का पहले आना एक के बाद आना ये सवाल तो हमेशा मेरे सामने रहता है। मुझे हमेशा घर पहुंचने की हड़बड़ी रहती है। ना चाहते हुए भी अगर घर वाले मुझे बीएड में एडमिशन के लिए बोलेंगे तो मुझे लेनी ही होगी। मैं कम्प्यूटर साइंस के फील्ड में ही आगे बढ़ना चाहती हूं। मेरी यहां से बाहर जाकर आगे पढ़ने और नौकरी करने की ख्वाहिश है। यहां इस फील्ड में इतना स्कोप नहीं है हम बाहर जाएंगे तो ज्यादा ऑप्शन होंगे।”
मुजफ़्फ़रनगर जिले की अलीज़ा (बदला हुआ नाम) माइक्रोबायोलॉजी में पढ़नेवाली छात्रा हैं। वह साइकिल से शहर के एक कोने से दूसरे कोने तक कॉलेज पढ़ने आती हैं। अपनी पढ़ाई के बारे में वह कहती हैं, “मैं रिसर्च करना चाहती हूं। मुझे लैब में प्रैक्टिकल करना बहुत पसंद है। किताबों से ज्यादा लैब में चीजें आसानी से समझ में आ जाती हैं। अपने भविष्य के बारे में बोलते हुए अलीज़ा का कहना है, मैं जानती हूं मुझे ग्रैजुएशन के बाद अपने ख्वाबों के साथ समझौता करना पड़ेगा। मेरे यहां दूसरे शहर में पढ़ने जाने की परमिशन मिलना नामुमकिन है। जो भी ऑप्शन मुझे अपने शहर में मिलेंगे उसी को अपनाना होगा। वैसे सबने तय किया हुआ है कि मुझे टीचिंग लाइन में करियर बनाना चाहिए। अक्सर मुझे टीचिंग प्रोफेशन में ही काम करने को बोला जाता है। अभी मेरा फस्ट ईयर हुआ है क्या पता चीजें बदल जाए मैं अक्सर इस बात के बारे में सोचती हूं।”
ग्रेजुएशन, पोस्ट ग्रेजुएशन के अलावा विज्ञान विषय में हर स्तर के डिग्रियों में लड़कियां कुल नामाकंन 53.1 प्रतिशत हैं। अंडर ग्रेजुएट में 52 फीसदी छात्राएं हैं। पोस्ट ग्रेजुएट में केमेस्ट्री में 52.3 प्रतिशत लड़कियों का नामाकंन हुआ है। इतना ही नहीं गणित में भी कुल नामाकंन का 60 फीसदी हिस्सेदारी लड़कियों की हैं। विज्ञान विषय में पीएचडी करने वाले वाले 48,600 विद्यार्थियों में से 48.8 फीसदी महिलाएं हैं।
मुजफ़्फ़रनगर जिले की रहने वाली इला शर्मा इंजीनियरिंग की पढ़ाई के बाद एक निजी कंपनी में काम करती हैं। छोटे शहर और इंजीनियरिंग की पढ़ाई के अनुभव और काम पाने के अनुभव के बारे में उनका कहना है, “मैं अपने घर की पहली इंजीनियर लड़की हूं। कॉलेज में नौकरी के बारे में सोचते हुए कभी-कभी मैं अपने ऊपर बहुत दबाव महसूस करती थी। मैं जानती थी कि मैं जो पढ़ाई पढ़ रही हूं उससे जुड़ा काम मेरे शहर में तो नहीं मिलेगा लेकिन दूसरे शहर में नौकरी पाना इतना आसान नहीं था। डिग्री पूरा करने के लगभग एक साल तक मैं खाली रही थी। कुछ काम नहीं मिल रहा था ऊपर से पढ़ाई में बहुत ज्यादा पैसे भी लगे थे। उसके बाद जाकर मुझे ट्रेनिंग का मौका मिला, फिर ट्रेनिंग पीरियड के बाद पहली नौकरी लगी। मैंने अपनी डिग्री किस कॉलेज से की है ये भी बहुत मायने रखता है। यहां बड़े शहर में शुरू में काम करने में बहुत परेशानी होती थी। लेकिन जब अब पीछे पलट कर देखती हूं तो अच्छा लगता है। मेरी इंजीनियरिंग की डिग्री ने कितना कुछ बदल दिया है।”
तकनीकी पढ़ाई और लैंगिक भेदभाव का असर
भारत दुनिया के उन चुनिंदा देशों में से एक है जहां वैज्ञानिक और इंजीनियर बहुत अधिक हैं। पिछले कुछ सालों ऐसा इस वजह से हुआ है क्योंकि स्टेम (STEM) के क्षेत्र में बहुत वृद्धि हुई है। लेकिन इस वृद्धि में लड़कियों और सभी लैंगिक पहचान के लोगों का शामिल होना बाकी है। साल 2019-20 में स्टेम के ग्रैजुएशन से रिसर्च स्टडी लेवल के सभी प्रोग्रामों में कुल 47 प्रतिशत लड़कियों का नामांकन था। साल 2018-19 में यह दर 46.2 प्रतिशत और 2017-18 में 44.5 फीसद दर्ज की गई। लेकिन स्टेम फील्ड में काम करनेवाली महिलाओं की दर केवल 14 प्रतिशत हैं। भारत के आंकड़े को देखते हुए यह बात भी सामने आती है कि इसमें महिलाओं को तो शामिल किया गया है लेकिन जेंडर की तय बाइनरी से अलग पहचान रखने वाले लोगों के बारे में कोई डेटा उपलब्ध नहीं है।
ओआरएफ की एक रिपोर्ट में यह कहा गया है, “एसटीईएम में महिलाओं की कमी कौशल की अपर्याप्तता के कारण नहीं है, बल्कि रूढ़िवादी लैंगिक भूमिकाओं का परिणाम है। महिलाओं को ‘दोहरी भूमिका’ सिंड्रोम का सामना करना पड़ता है, जिसमें पेशेवर फैसले काफी हद तक उनकी घरेलू जिम्मेदारियों से प्रभावित होते हैं।”
द प्रिंट में प्रकाशित ख़बर के अनुसार ऐडटेक प्लेटफॉर्म के द्वारा हुए सर्वे के अनुसार 57 प्रतिशत छात्राएं स्टेम फील्ड में आगे बढ़ने में रूचि रखती हैं। लड़कियों की विज्ञान तकतनीक के विषय में आगे बढ़ने की चाहत और मौजूदा अंतर को खत्म करने के लिए सरकार इस दिशा में कुछ कदम भी उठा रही है। इसी दिशा में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की ओर से साल 2020 में महिला वैज्ञानिकों को सम्मान और इस क्षेत्र में महिलाओं को आगे बढ़ाने के लिए एक पीठ को गठन किया जाएगा। इसके तहत देश के अलग-अलग संस्थानों में 11 महिला वैज्ञानिकों के नाम पर चेयर पद बनाए जाएंगे। केवल महिला रिसर्चर्स को ही इन पदों को दिया जाएगा और शोध के लिए एक करोड़ का फंड दिया जाएगा।
स्टेम के फील्ड में पढ़ाई और नौकरी की अपार संभावनाएं होने के बावजूद हमारे समाज में लैंगिक भेदभाव, महिलाओं को लेकर पूर्वाग्रह के चलते उनको पढ़ने से या फिर आगे बढ़ने से रोका जाता है। इस लेख के लिखने के दौरान हमने जितनी भी लड़कियों से बात की उनका कहना है कि ना चाहते हुए भी स्नातक के बाद उन्हें अपना फील्ड बदलना होगा। छोटे शहर और ग्रामीण परिवेश की जो लड़कियां साइंस में बैचलर डिग्री कर रही हैं उनके सामने बेहतर विकल्प न होने और शहर से दूर जाने की वजह से वे पढ़ाई के बावजूद नौकरी के लिए ज्यादातर अपनी डिग्री का फायदा तक नहीं उठा पाती हैं।
दूसरा सुरक्षित करियर विकल्प के तौर पर लड़कियों के लिए आज भी टीचिंग ज्यादा अच्छा माना जाता है तो उन्हें केवल टीचर कर नौकरी करने की ही इजाज़त दी जाती है। यह पहली वजह है कि वे उच्च शिक्षा और शोध में आगे नहीं बढ़ पाती है। ओआरएफ की एक रिपोर्ट में यह कहा गया है, “एसटीईएम में महिलाओं की कमी कौशल की अपर्याप्तता के कारण नहीं है, बल्कि रूढ़िवादी लैंगिक भूमिकाओं का परिणाम है। महिलाओं को ‘दोहरी भूमिका’ सिंड्रोम का सामना करना पड़ता है, जिसमें पेशेवर फैसले काफी हद तक उनकी घरेलू जिम्मेदारियों से प्रभावित होते हैं।”
महिलाएं विज्ञान और तकनीक जैसे विषयों की डिग्रियां भले ही हासिल कर रही हो लेकिन जब करियर बनाने की बात आती है तो वे आगे नहीं बढ़ पाती हैं। उच्च शिक्षा हासिल नहीं कर पाती है और शोध स्तर तक पहुंचने वाली तो बहुत कम रह जाती है। ऐसा होने की वजह महिलाओं में किसी तरह की प्रतिभा की कमी होना नहीं बल्कि उनके लिए समाज और परिवार और समाज के तय किए गए नियम हैं।