इंटरनेट पर ट्रांसजेंडर स्टूडेंट्स और यूनिवर्सिटी में उनके नामांकन की कुल संख्या जानने के लिए कीवर्ड्स डालने पर एलजीबीटीक्यू+ समुदाय से जुड़ीं बहुत सी ख़बरें सामने आती हैं। लेकिन भारत में विश्वविद्यालय स्तर पर ट्रांसजेंडर विद्यार्थियों की वर्तमान स्थिति क्या है उसे लेकर पुख़्ता आधिकारिक आंकड़े नज़र नहीं आते हैं। साल 2014 में नालसा जजमेंट आने के बाद ट्रांसजेंडर समुदाय को मान्यता मिलने के बाद भी सरकारी आंकड़ों में उनसे जुड़े डेटा की भारी कमी है।
हाल में शिक्षा मंत्रालय द्वारा जारी AISHE की रिपोर्ट में ट्रांसजेंडर विद्यार्थियों से जुड़ी जानकारी को शामिल नहीं किया गया है। उच्च शैक्षणिक संस्थानों में ट्रांसजेंडर समुदाय के प्रतिनिधित्व और उनकी स्थिति पर इस रिपोर्ट में कोई आंकड़े मौजूद नहीं हैं। इस पूरी रिपोर्ट में केवल जेंडर बाइनरी के तहत लड़के और लड़कियों का ज़िक्र किया गया है।
क्या कहती है AISHE रिपोर्ट 2020-21
AISHE रिपोर्ट 2020-21 में बताया गया है कि देश में उच्च शिक्षण संस्थानों में दर्ज नामांकन में 2019-20 की तुलना में साल 2020-21 में 7.5% की बढ़त हुई है। इसके अलावा साल 2019-20 में देश में कुल विश्वविद्यालयों की संख्या 1043 थी जो साल 2020-21 में बढ़कर 1113 हो गई है। 1113 विश्वविद्यालयों में 17 विशेष रूप से महिलाओं के लिए हैं। साथ ही 1453 नए कॉलेज जुड़े हैं।
प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर ट्रांसजेंडर विद्यार्थियों के बीच ड्रॉपआउट दर काफी अधिक है। इसके पीछे बहुत से कारण हैं। अधिकतर मामलों में ऐसा देखा गया है कि एक उम्र सीमा के बाद ट्रांसजेंडर छात्र खुद को शैक्षणिक और सामाजिक माहौल में भेदभाव और उत्पीड़न के कारण असहज पाते हैं।
लेकिन ज़रूरी सवाल यह है कि इन कॉलेज और विश्वविद्यालयों में ट्रांसजेंडर का क्या प्रतिनिधित्व है? मौजूदा विश्वविद्यालयों में कितने ट्रांस शिक्षक हैं? इस पर कोई आंकड़ा शामिल नहीं किया गया। रिपोर्ट में महिलाओं के लिए बने विशेष कॉलेज और विश्वविद्यालयों को अलग से दर्शाया गया है। भारत सरकार द्वारा जारी यह रिपोर्ट सीधे तौर पर लैंगिक भेदभाव और उच्च शैक्षणिक संस्थानों में ट्रांस समुदाय की अनदेखी करती है।
रिपोर्ट में जेंडर के आधार पर भी आंकड़ा अलग से इकट्ठा किया गया है। रिपोर्ट के अनुसार, उच्च शैक्षणिक संस्थानों में 2019-20 में महिला नामांकन 1.89 करोड़ और पुरुष नामांकन 1.96 करोड़ था जोकि 2020-21 में बढ़कर क्रमशः 2.01 करोड़ और 2.12 करोड़ हो गया है। उच्च शैक्षणिक संस्थानों में 2020-21 में सकल नामांकन अनुपात (GER) महिलाओं में 27.9 और पुरुषों में 26.7 रहा।
भेदभाव और असंवेदनशीलता प्रभावित करती है ट्रांसजेंडर समुदाय की शिक्षा
सेंटर फॉर लॉ एंड पॉलिसी रिसर्च (सीएलपीआर) की एक रिपोर्ट बताती है कि साल 2011 की जनगणना के अनुसार, राष्ट्रीय औसत 74.04% के मुकाबले लगभग 4.8 लाख की कुल आबादी के लिए ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के बीच कुल साक्षरता दर 56.1% थी। इसके अलावा कोई नया शैक्षणिक डेटा उपलब्ध नहीं है जिससे शिक्षण संस्थानों में ट्रांसजेंडर विद्यार्थियों के मौजूदा प्रतिनिधित्व का पता लगाया जा सके।
सामाजिक न्याय मंत्रालय की ओर से लोकसभा में शिक्षा और रोजगार में आरक्षण से संबधित सवाल में कहा है कि सरकार इस दिशा में आरक्षण का कोई प्रस्ताव नहीं ला रही है। सरकार ने यह भी कहा है कि मंत्रालय के पास इस बारे में कोई जानकारी नहीं है कि सरकारी और निजी नौकरियों में ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों की कितनी संख्या है।
टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित ख़बर के अनुसार एक ट्रांसजेंडर व्यक्ति की औसत योग्यता दसवीं या बारहवीं तक ही है लेकिन इसमें भी उनका नामांकन काफी कम है। साथ ही प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर ट्रांसजेंडर विद्यार्थियों के बीच ड्रॉपआउट दर काफी अधिक है। इसके पीछे बहुत से कारण हैं। अधिकतर मामलों में ऐसा देखा गया है कि एक उम्र सीमा के बाद ट्रांसजेंडर छात्र खुद को शैक्षणिक और सामाजिक माहौल में भेदभाव और उत्पीड़न के कारण असहज पाते हैं। साथ ही स्कूलों में शिक्षकों और प्रशासन ट्रांसजेंडर विद्यार्थियों को लेकर असंवेदनशील हैं। इस कारण उन्हें दूसरे विद्यार्थियों के द्वारा भेदभाव और मानसिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। अक्सर शिक्षकों की तरफ़ से भी ऐसा बर्ताव देखा गया है।
टाइम्स ऑफ इंडिया की ही एक और ख़बर के मुताबिक भेदभाव के चलते अधिकतर ट्रांस छात्र या तो पढ़ाई से दूरी बना लेते है या फिर रेगुलर विश्वविद्यालयों या कॉलेज जाने से कतराते हैं। रेगुलर पढ़ाई करने के बजाय ये विद्यार्थी ओपन स्कूलिंग और विश्वविद्यालयों से पढ़ना चुनते हैं। सीएलपीआर की एक रिपोर्ट के अनुसार, ट्रांसजेंडर विद्यार्थियों को जिन मुख्य परेशानियों का सामना करना पड़ता उनमें आधिकारिक दस्तावेजों पर अपना नाम और जेंडर बदलना शामिल है। साथ ही एक सहज और परेशानी मुक्त शैक्षणिक और सामाजिक बदलाव की सुविधा के लिए कोई प्रक्रिया नहीं है।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और केरल डेवलपमेंट सोसाइटी द्वारा द्वारा दिल्ली और यूपी में की गई एक स्टडी बताती है कि 52% ट्रांस स्टूडेंट्स को अपने ही क्लासमेट्स ने हरैस किया, 12% को उनके शिक्षकों द्वारा और 13% को स्कूल के नॉन-टीचिंग स्टाफ ने प्रताड़ित किया। इन आंकड़ों से साफ पता चलता है कि हमारे स्कूल और शिक्षक इन मुद्दों के प्रति कितने संवेनशील हैं।
‘ट्रांसजेंडर’ शिक्षा का कानूनी अधिकार और राजनीति
भारत में ट्रांसजेंडर (अधिकारों की सुरक्षा) अधिनियम 2019 लाया गया जिसमें निर्देश दिया गया कि सरकार द्वारा वित्त पोषित और मान्यता प्राप्त शैक्षणिक संस्थानों में बिना भेदभाव के ट्रांसजेंडर समुदाय से आने वाले व्यक्तियों को समावेशी शिक्षा, स्वास्थ्य, खेल एवं मनोरंजन की सुविधाएं प्रदान करनी होंगी। इस तरह आज़ादी के लगभग 70 सालों बाद ट्रांस समुदाय को अपने हिस्से की अंश भर आज़ादी और अधिकार तो मिले लेकिन अधिकार मिलना और नज़रिये में बदलाव होना दो अलग-अलग बातें हैं और शिक्षा मंत्रालय द्वारा जारी हाल की रिपोर्ट इसका ताजा उदाहरण है।
ट्रांसजेंडर(अधिकारों का संरक्षण)अधिनियम 2020 सरकार को आवासीय सरकारी स्कूलों और विश्वविद्यालयों में ट्रांसजेंडर और इंटरसेक्स बच्चों कa आवास और स्कूली शिक्षा प्रदान करने का निर्देश देता है। ठीक इसी तरह विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) का भी निर्देश है की हर विश्वविद्यालय ट्रांसजेंडर विद्यार्थियों की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए सकारात्मक कार्यवाही करेगा।
तमाम लिखित मौजूदा अधिकार और निर्देशों के बावज़ूद अभी तक बड़े पैमाने पर ट्रांसजेंडर विद्यार्थियों के लिए शैक्षणिक संस्थान समावेशी और संवेदनशील नहीं बन पाएं हैं। भारतीय संसद तक में यह स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि सरकार ट्रांस समुदाय के आरक्षण के लेकर कोई प्रस्ताव नहीं ला रही है। सबरंग इंडिया में प्रकाशित ख़बर के अनुसार सामाजिक न्याय मंत्रालय की ओर से लोकसभा में शिक्षा और रोजगार में आरक्षण से संबधित सवाल में कहा है कि सरकार इस दिशा में आरक्षण का कोई प्रस्ताव नहीं ला रही है। इतना ही नहीं संसद में सरकार ने यह भी कहा है कि मंत्रालय के पास इस बारे में कोई जानकारी नहीं है कि सरकारी और निजी नौकरियों में ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों की कितनी संख्या है। केंद्र सरकार का ये जवाब साफ जाहिर करता है कि एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के उत्थान के लिए सरकार में संवेदनशीलता की कितनी कमी है।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और केरल डेवलपमेंट सोसाइटी द्वारा द्वारा दिल्ली और यूपी में की गई एक स्टडी बताती है कि 52% ट्रांस स्टूडेंट्स को अपने ही क्लासमेट्स ने हरैस किया, 12% को उनके शिक्षकों द्वारा और 13% को स्कूल के नॉन-टीचिंग स्टाफ ने प्रताड़ित किया।
इससे अलग कई राज्य सरकारें और अदालतों के कुछ फैसले सामने बीच-बीच में आते हैं जो ट्रांस समुदाय के उत्थान को लेकर सकारात्मक सोच जाहिर करते हैं। लेकिन राजनीति और प्रतिनिधित्व के बीच ट्रांस समुदाय से जुड़े फैसले सबसे ज्यादा प्रभावित नज़र आते हैं। बीते कुछ समय में केरल में जेंडर न्यूट्रल परिवेश को बनाने के लिए स्कूल स्तर की शिक्षा में बदलाव किए गए लेकिन राजनीतिक विरोध के चलते सरकार के फैसलों को बस्ते में डाल दिया गया।
ऐसा इकलौता उदाहरण नहीं है जब ट्रांसजेंडर समुदाय से जुड़े कदमों को पीछे धकेला गया है। ट्रांस समुदाय के हकों को लेकर जब-जब बात आती है तो रूढ़िवादी सोच उनपर हावी हो जाती है। इस तरह की घटनाएं और विरोध जैसी वजहों के कारण ट्रांस समुदाय के लोग आगे बढ़ने से हिचकते हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के भास्कराचार्य कॉलेज ऑफ एप्लाइड साइंसेज (बीसीएएस) में ट्रांसजेंडर छात्रों के लिए एक अलग वॉशरूम भी बनाया गया है, लेकिन उन्हें अभी तक कोई ट्रांसजेंडर विद्यार्थी नहीं मिला सका।
उच्च शैक्षणिक संस्थानों में ट्रांसजेंडर समुदाय का प्रतिनिधित्व वर्तमान में कितना है इसको लेकर हाल का सरकारी डेटा तो उपलब्ध नहीं है लेकिन पिछले पिछले आंकड़ों के आधार पर ट्रांस विद्यार्थियों का नामांकन काफ़ी कम है। हावर्ड बिजनेस रिव्यू में प्रकाशित लेख के अनुसार ट्रांसजेंडर समुदाय की समान भागीदारी के लिए उनके लिए समावेशी समाज और माहौल का निमार्ण करने की बहुत ज्यादा आवश्यकता है जिसके लिए बुनियादी ढ़ाचे में बदलाव करना ज़रूरी है।
वहीं, वेबसाइट एलजीबीटी कैंपस.कॉम के अनुसार कहा गया है कि शिक्षा में ट्रांसजेंडर विद्यार्थियों का दाख़िला बढ़ाने के लिए शैक्षणिक संस्थानों में हायरिंग, ट्रेनिंग स्टाफ में भी ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों को शामिल करना होना बहुत ज़रूरी है। सरकार और देश के सभी शैक्षणिक संस्थानों को इस पर अधिक जागरूक और संवेदनशील ढंग से काम करने की ज़रूरत है। अगर सरकार इस दिशा में पहल नहीं करेंगी तो सामाजिक परिदृश्व में बदलाव के कल्पना तक सीमित रह जाएगा।